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तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) चीफ ममता बनर्जी का ये तल्ख बयान संसद में चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव नोटिस पर टीएमसी के विरोध के बाद आया था. इस बयान ने फिर पुख्ता कर दिया कि 2019 आम चुनावों के लिए बीजेपी के खिलाफ विपक्षी एकता की बात तो बार-बार हो रही है, लेकिन बहुत कठिन है डगर पनघट की.
लेकिन कर्नाटक के नाटक ने महागठबंधन की उम्मीदों के पौधे में पानी डाला है.
कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस बहुमत के बावजूद सरकार बना पाएंगे या नहीं, ये अलग बात है, लेकिन ये घटनाक्रम आने वाले दिनों की सियासत के लिए एक बड़ा इशारा है.
आप कर्नाटक के घटनाक्रम को ममता बनर्जी के बयान से जोड़कर देखिए. ममता का सबसे बड़ा मुद्दा ये है कि
लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस ने इन दोनों बातों को गलत साबित किया है. चुनावों से पहले जबरदस्त विरोध के बावजूद
तो क्या मान लिया जाए कि कांग्रेस अपने ‘बिग ब्रदर’ सिंड्रोम से बाहर आ चुकी है. अगर हां, तो क्या ये मान लिया जाए कि कर्नाटक जैसे राज्य से शुरुआत करने वाली कांग्रेस पार्टी केंद्र की राजनीति में भी ये दरियादिली दिखाएगी. यानी 2019 आम चुनावों के लिए प्रस्तावित विपक्षी महागठंबधन में कांग्रेस ये कहेगी कि
हालांकि कांग्रेस पार्टी ने जो दांव सिद्धारमैया पर खेला, वही दांव वो राहुल गांधी पर भी खेल देगी, अभी ये कहना बहुत जल्दबाजी होगी. लेकिन फिर भी कर्नाटक के कदम से कांग्रेस ने अपनी शान जाए, पर अकड़ ना जाए वाली छवि को तोड़ा है.
आइए, अब नजर डालते हैं तस्वीर के दूसरे पहलू पर. बात एक बार फिर ममता बनर्जी के ट्वीट से ही शुरू करते हैं. वो कह रही हैं कि अगर कांग्रेस ने जेडीएस के साथ चुनावों से पहले ही गठबंधन कर लिया होता, तो नतीजे कुछ और होते.
तो सवाल यही कि क्या कांग्रेस हाथ जलाकर ही सबक लेती है? वो पहले से हालात का आकलन क्यों नहीं करती, जो कि राजनीति का बुनियादी कायदा है.
लेकिन कांग्रेस चुनाव से पहले कांग्रेस का वही पुराना अहम आड़े आ रहा था, जिसने उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे हिंदी पट्टी के राज्यों में कांग्रेस पार्टी का सफाया कर दिया. इन दोनों राज्यों में लोकसभा की 120 सीटें हैं.
चुनाव पूर्व गठबंधन में जेडीएस के साथ सीटों का बंटवारा करना पड़ता. मंत्री पदों को लेकर भी कोई फॉर्मूला बनाना पड़ता, लेकिन मुख्यमंत्री का पद जाहिर तौर पर न छोड़ना पड़ता. लेकिन कांग्रेस है, जात भी गंवाएगी और भात भी न खाएगी.
अगर कांग्रेस ने ये रवैया न छोड़ा, तो उसे हर उस राज्य के विधानसभा चुनाव में मात खानी पड़ेगी, जहां क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा है.
इसी तरह राज्यवार चुनावों में बीजेपी के खिलाफ सीधी लड़ाई के लिए कांग्रेस तेलंगाना में केसी राव की टीआरएस, तमिलनाडु में करुणानिधि की डीएमके और ओडिशा में नवीन पटनायक की बीजेडी की अगुवाई में चुनाव लड़ना स्वीकार कर पाएगी. हो सकता है कि उसके बाद ये तमाम दल केंद्र में राहुल गांधी की लीडरशिप स्वीकार कर लें.
बेहतर होगी कि कांग्रेस कर्नाटक की उठा-पटक से सबक ले. हमेशा आग लगने के बाद कुआं खोदना कोई समझदारी नहीं है, खासकर उस पार्टी के लिए, जो हर मंच पर अपने सवा सौ साल पुराने इतिहास का दंभ भरती है और देश की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करती है.
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Published: 16 May 2018,05:46 PM IST