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बीसीसीआई के सर्वोच्च पद के लिए सौरव गांगुली के दावेदारी पेश करने पर जब पश्चिम बंगाल ने खुशी जताई, तो राजनीतिक तौर पर थोड़े प्रबुद्ध लोग अपना उत्साह दिखाने से बचते दिखे. गांगुली के बीसीसीआई के अध्यक्ष पद पर दावेदारी की खबर के साथ 2 और घोषणाएं सुनने को मिलीं, वो थीं बीसीसीआई के सेक्रेटरी पद के लिए गृहमंत्री अमित शाह के बेटे जय शाह और ट्रेजरर पद के लिए वित्त राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर के भाई अरुण धूमल का नामांकन.
बंगाल में गांगुली अपनी प्रसिद्धि की वजह से हमेशा से ही राजनीतिक पार्टियों की नजर में रहे. 2000 के शुरुआती सालों में गांगुली और तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य की करीबियां सबने देखी हैं.
कोलकाता के एक सीनियर पत्रकार बताते हैं कि ''बुद्धदेब उनको अपना बेटा मानते थे''. और तो और, साल 2005 में जब भारतीय टीम के पूर्व कप्तान गांगुली को टीम से बाहर किया गया था, तो बुद्धदेब भट्टाचार्य खुद विरोध में उतरे थे.
बुद्धदेब बाबू के चलते ही गांगुली राजनीति के इतने करीब आए कि साल 2006 में गांगुली ने बुद्धदेब के लिए क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बंगाल के प्रेसिडेंट पद के लिए लंबे अरसे से अपने मार्गदर्शक रहे जगमोहन डालमिया के खिलाफ लॉबिंग की.
इस मामले में ड्रामा तो तब शुरू हुआ, जब सौरव गांगुली के भाई स्नेहाशीष ने एक ईमेल का जिक्र किया, जिसमें सौरव ने डालमिया के विरोधी रहे कोलकाता पुलिस के पूर्व चीफ प्रसून मुखर्जी के समर्थन की बात कही थी. ये ईमेल उसी दिन सार्वजनिक किया गया था, जिस दिन डालमिया ने क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बंगाल के अध्यक्ष पद के लिए नामांकन किया था.
इस ईमेल से कुछ ऐसा लग रहा था कि मानो गांगुली डालमिया पर आरोप लगा रहे हों. आरोप ये कि उन्होंने भारत के कोच रहे ग्रेग चैपल का तत्कालीन बीसीसीआई प्रेसिडेंट रणबीर सिंह महेंद्रा को भेजा हुआ एक ईमेल लीक किया था, जिसमें सौरव के खराब फॉर्म और टेंपरामेंट की बात की गई थी.
इस मेल में गांगुली ने लिखा था:
डालमिया ये चुनाव जीत गए और गांगुली का दांव उल्टा पड़ गया. बाद में गांगुली ने सफाई दी कि वो ईमेल डालमिया ने लीक नहीं किए थे.
इसके बाद, लेफ्ट सरकार के कई कार्यक्रमों में गांगुली शिरकत करते रहे. साल 2008 में गांगुली ने रतन टाटा से सिंगूर में नैनो का प्लांट लगाने के लिए अपील भी की थी. उस दौरान गांगुली पर स्कूल बनाने के लिए सरकार की तरफ से 'मदद' लेने के आरोप भी लगे थे. साल 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने 62 कट्ठा जमीन के आवंटन को रद्द कर दिया था.
सौरव गांगुली उस दौर में भी ममता बनर्जी से सार्वजनिक तौर मिलने से कभी नहीं कतराए, जबकि उस वक्त ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस राज्य की लेफ्ट सरकार के सामने उभर रही थी. साथ ही तृणमूल कांग्रेस लगातार गांगुली के लेफ्ट पार्टियों के कार्यक्रमों में जाने की शिकायत करती थी.
2011 के विधानसभा चुनाव से पहले टीएमसी ने चुनाव आयोग के फैसले के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया, क्योंकि चुनाव आयोग ने सौरव गांगुली को राज्य के एंबेसडर होने के नाते चुनाव के प्रोमो का हिस्सा बनाया था. टीएमसी का कहना था कि गांगुली सीपीएम के सदस्य हैं और वो उनके लिए ही प्रचार करेंगे. चुनाव आयोग अपने फैसले पर कायम रहा, लेकिन गांगुली से लिखित में ये आश्वासन लिया गया कि वो किसी पार्टी का प्रचार नहीं करेंगे.
सौरव गांगुली की टीएमसी के साथ करीबी का सबसे बड़ा उदाहरण है साल 2015 में हुआ क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बंगाल के अध्यक्ष पद का चुनाव. डालमिया के निधन के बाद ये पद खाली हो गया. अध्यक्ष पद की दौड़ में सीनियर और तृणमूल कांग्रेस के नेता भी शामिल थे. सूत्र बताते हैं कि सीएबी में अध्यक्ष पद पर नियुक्ति की प्रक्रिया खुद ममता देख रही थीं और गांगुली को अध्यक्ष पद पर बैठाने के लिए वो इकलौती जिम्मेदार थीं.
प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद गांगुली के सीएबी का अध्यक्ष पद संभालने की घोषणा भी खुद ममता बनर्जी ने ही की. हालांकि वो ऐसा कहती दिखीं कि ''ये फैसला सीएबी के सदस्यों का है'' और ''वो सिर्फ इसकी घोषणा कर रही हैं''.
बता दें कि सीएबी एक स्वायत्त संस्थान है.
इसी दौरान साल 2016 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से ठीक पहले, ऐसी अफवाह फैली कि सौरव गांगुली बीजेपी ज्वाइन करना चाह रहे हैं. ऐसी खबरें भी आईं कि पार्टी ने सौरव गांगुली को अप्रोच किया है और बातचीत भी चल रही है.
उस दौरान इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए गांगुली ने कहा था कि बीजेपी ने उनसे संपर्क किया था, लेकिन वो चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे, इसलिए मना कर दिया. इसी रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले भी सौरव गांगुली से संपर्क किया था.
मौजूदा बीसीसीआई चुनावों में बीजेपी के संलिप्त होने से सौरव गांगुली के बीजेपी ज्वाइन करने की अफवाह एक बार फिर से तूल पकड़ रही है. लेकिन गांगुली का पिछला रिकॉर्ड देखा जाए, तो कहा जा सकता है कि ये एक और ऐसा मौका हो सकता है, जब गांगुली राजनीतिक धारा के साथ कुछ तो बातचीत कर रहे हैं. लेकिन खेल और राजनीति में कहा जाता है, 'कभी ना मत कहो'.
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