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झारखंड में सियासी हलचल के बीच रविवार को महागठबंधन विधायकों ने राज्यपाल रमेश बैस से फैसला सार्वजनिक करने की मांग की. साथ ही कहा कि राज्य में ऐसी स्थिति उत्पन्न कर हॉर्स ट्रेडिंग को बढ़ावा दिया जा रहा है. साथ ही सवाल उठाया कि जब जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 9ए के तहत किसी की सदस्यता रद्द नहीं हुई है, तो सीएम हेमंत सोरेन के साथ संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग कर ऐसा बर्ताव क्यों?
Representation of the People Act 1951, Section 9 (A), जिसके अंतर्गत हेमंत सोरेन के सदस्यता रद्द करने की अटकलें लगायी जा रही हैं. ऐसे मामले में आज तक कभी भी किसी की सदस्यता रद्द नहीं हुई, तो फिर मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन के साथ संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग कर ऐसा बर्ताव क्यूं?
क्या कारण है कि चुनाव आयोग के पत्र पर राज्यपाल महोदय ने अभी तक अपना मंतव्य नहीं दिया है? ऐसी क्या कानूनी सलाह है जो वो नहीं ले पा रहे हैं? यह तो सरासर लोकतंत्र और जनता का अपमान है.
क्या समय काटकर राजभवन विधायकों के खरीद-फरोख्त को हवा देना चाहते हैं? हमने महाराष्ट्र और अन्य राज्यों में भी राज्यपाल के पद की गरिमा को गिरते हुए देखा है. यह दुर्भाग्य पूर्ण है. हम किसी की अनुकंपा पर सरकार में नहीं आए हैं.
बड़ा दुखद है कि राज्य में एक बाहरी गैंग काम कर रहा है. नीचे से ऊपर तक बैठे इस गैंग के सभी लोगों में एक समानता है. झारखंड के लोगों के प्रति इनके मन में थोड़ा सा भी स्नेह नहीं है.
क्या बीजेपी और इनकी अनुषंगी संस्थाओं को एक आदिवासी का राज्य का मुख्यमंत्री बना क्या नहीं पच रहा है?
महागठबंधन के नेताओं ने कहा कि हम भारत सरकार से झारखंड के हक के लिए लड़ रहे हैं. वह इन्हें नहीं पच रहा है. एक बात कान खोल कर सुन लें कि झारखंडी अगर किसी के सम्मान में झुकना जानता है, तो अपने हक के लिए दूसरों को झुकाना भी जानता है. अराजक स्थिति की ओर राज्य को धकेलने से बचें. आप महामहिम हैं. आदिवासी दलित के अधिकार के संरक्षण का जिम्मा आपके कंधो पर संविधान ने दिया है.
वहीं, इसके जवाब में झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी के सहयोगी बाबूलाल मारंडी ने कहा कि महागठबंधन के नेता संवैधानिक संस्थाओं को निष्पक्ष काम करने दें. झारखंड में मुख्यमंत्री से जुड़े मामले में चुनाव आयोग या राज्यपाल की भूमिका पर जबरन सवाल उठाकर निष्पक्ष संस्थाओं को घेरने का काम किया जा रहा है. बेहतर होता कि महागठबंधन के नेता पहले आयोग के फैसले का विधिवत इंतजार करते. लेकिन, फैसला आने के पहले ही संस्थाओं को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है.
महागठबंधन के ही लोग बताएं के चुनाव आयोग ने मुख्यमंत्री को पक्ष रखने का हर मौका दिया या नहीं. कई बार सुनवाई टाली गई. मामले में जानबूझकर देरी की गई. अब वही लोग राजभवन और चुनाव आयोग पर फैसला जल्दी देने का दबाव डाल रहे हैं. बीमारी से लेकर तमाम तरह के बहाने बनाकर संवैधानिक संस्थाओं से बार-बार समय मांगने वाले मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को अब इतनी जल्दबाजी है कि चुनाव आयोग/महामहिम राज्यपाल तक पर निर्णय तुरंत करने का दवाब बना रहे हैं. लगता है अविश्वास ऐसा कि इनसे साथ के विधायक दो दिन भी नहीं संभल रहे?
इनपुट- आनंद दत्ता
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