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Benjamin इज बैक: नेतन्याहू के आने से फिलिस्तीन और भारत पर क्या पड़ेगा असर?

Israel की राजनीति में Benjamin Netanyahu अर्श से फर्श और फिर से अर्श पर कैसे पहुंचे?

आशुतोष कुमार सिंह
दुनिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>Benjamin इज बैक: नेतन्याहू के आने से फिलिस्तीन और भारत पर क्या पड़ेगा असर?</p></div>
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Benjamin इज बैक: नेतन्याहू के आने से फिलिस्तीन और भारत पर क्या पड़ेगा असर?

(फोटो- Altered By Quint)

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दक्षिणपंथी नेता बेंजामिन नेतन्याहू (Benjamin Netanyahu) फिर से इजरायल के प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं. हाल ही में हुए चुनावों (Israel Election) में नेतन्याहू के नेतृत्व वाले गठबंधन ने 120 सीटों वाली संसद (केसेट) में बहुमत के आंकड़े से अधिक सीटों पर जीत हासिल कर ली है. गुरुवार, 4 नवंबर को घोषित फाइनल रिजल्ट बताते हैं कि नेतन्याहू और उनके अल्ट्रानेशनलिस्ट सहयोगी पार्टियों को 64 सीटें मिली हैं, जिनमें से 32 सीटें नेतन्याहू की पार्टी लिकुड के पाले में आई हैं. दूसरी तरफ मध्यमार्गी वर्तमान प्रधान मंत्री यायर लैपिड के नेतृत्व में विरोधी गठबंधन को 51 सीटें मिली हैं. बाकी बची सीटों पर छोटी अरब पार्टियों ने जीत हासिल की है.

इस स्टोरी में हम आपको इन चार सवालों के जवाब देने की कोशिश करेंगे:

  1. इजरायल की राजनीति में बेंजामिन नेतन्याहू अर्श से फर्श और फिर से अर्श पर कैसे पहुंचे?

  2. इजरायल का यह चुनावी नतीजा वहां की राजनीति और नेतन्याहू के भविष्य के बारे में क्या संकेत दे रहा है?

  3. इजरायल के कब्जे वाले क्षेत्रों में यह चुनावी नतीजा फिलिस्तीनियों को कितना प्रभावित करेगा?

  4. बेंजामिन नेतन्याहू की जीत का भारत के लिए क्या मतलब है?

इजरायल: 17 महीने में बेंजामिन नेतन्याहू का पीएम पद पर कमबैक- किन कारणों से पलटा पासा?

पिछले साल चुनाव हारने के बाद बेंजामिन नेतन्याहू ने ये कहा था कि मैं जल्द लौटूंगा, और उन्होंने ठीक यही किया. मार्च 2021 के चुनावों के बाद पिछले साल बने मौजूदा सत्ताधारी गठबंधन ने नेतन्याहू को 12 साल बाद सत्ता से बेदखल कर दिया थे, लेकिन यह 'वनवास' केवल 17 महीने ही चला.

इजरायल में लगातार आम चुनाव हुए (केवल 3.5 साल में 5 बार) लेकिन हर बार नतीजा एक ही रहा- पार्टियों को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, वे स्थिर सरकारें बनाने में असमर्थ रहीं और किसी तरह यायर लैपिड के नेतृत्व में सरकार बनी भी तो आखिर में वो सरकार भी गिर गयी.

इजरायल के इस राजनीतिक अस्थिरता का सबसे बड़ा कारण था किे अबतक नेतन्याहू का साथ देते आये उनके दक्षिणपंथी सहयोगी पार्टियों ने 2021 में विश्वास भंग करने, रिश्वत लेने और धोखाधड़ी के आरोपों के बाद उनका समर्थन करने से इनकार कर दिया था.

लेकिन इस बार नेतन्याहू के पक्ष में पासा पलट गया है. इजरायली संसद की 120 में से 64 सीटों के साथ नेतन्याहू के दक्षिणपंथी गुट के पास पूर्ण बहुमत है.

दरअसल नेतन्याहू के विरोधियों के लिए उनका फिर से प्रधानमंत्री बनना चकित करने वाला नहीं है क्योंकि नेतन्याहू तो 15 सालों तक इस कुर्सी पर पहले ही बैठ चुके हैं. इसके बजाय नेतन्याहू के मुख्य गठबंधन सहयोगियों में से एक- Religious Zionism फ्रंट की आश्चर्यजनक सफलता उन्हें चौंका रही है जो यहूदी वर्चस्ववादी, अरब और समलैंगिक संबंध विरोधी पार्टी है.

Religious Zionism फ्रंट ने जहां पिछले चुनाव में 6 सीटें जीतीं थी वहीं इसने इस बार अपने पाले में 14 सीट करके नेतन्याहू को फिनिश लाइन से बहुत आगे पहुंचा दिया है.

इस चुनाव में नेतन्याहू की सफलता का एक दूसरा कारण वामपंथी पार्टियों के बीच की फूट भी रही. लेबर पार्टी और मेरेट्ज पार्टी एक संयुक्त फ्रंट बनाकर चुनाव लड़ने के लिए सहमत नहीं हो सकी और न ही इजराइल में फिलिस्तीनियों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियां भी एकसाथ आ सकीं.

नतीजतन, मेरेट्ज पार्टी 1992 में अपने गठन के बाद से पहली बार इजरायल की संसद में एक भी सीट हासिल करने में नाकामयाब रही. अरब बलाद पार्टी भी इसमें जगह नहीं बना पाई.

इसके अलावा यायर लापिड वामपंथी रुझानों के लोगों के लिए उन्हें वोट देने के लिए प्रचार कर रहे थे और इस कवायद में वे छोटे दलों से वोट खींच रहे थे.

इजरायल: चुनावी नतीजे क्या संकेत दे रहे हैं?

1. विरोधी पार्टियों के पास बेंजामिन नेतन्याहू का जवाब नहीं है

नेतन्याहू का शासन, उनपर चल रहे भ्रष्टाचार के मुकदमे, दो साल के राजनीतिक गतिरोध और सरकार बनाने में उनकी विफलता के बाद 2021 में समाप्त हो गया. इजरायल की राजनीति में तब नेतन्याहू का विरोध इतना मजबूत था कि उनके पूर्व सहयोगी और दक्षिणपंथी नेता नफ्ताली बेनेट ने भी उनका साथ छोड़कर यायर लैपिड के साथ मिलकर गठबंधन कर लिया. यायर लैपिड की सरकार बनी और सबको लगा कि नेतन्याहू का राजनीतिक सफर यही खत्म हो गया.

लेकिन 17 महीने बाद ही नेतन्याहू के इस जीत ने बता दिया है कि इजरायल की राजनीति में उनका विकल्प नहीं है. 2019 के बाद से पिछले चार चुनाव रिश्वत लेने और धोखाधड़ी आरोपों का सामना कर रहे नेतन्याहू की पीएम बने रहे की क्षमता पर जनमत संग्रह थे. लेकिन इस बार का चुनाव इजरायल की राजनीतिक स्थिरता के लिए नेतन्याहू की जरूरत पर मुहर है.
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2. इजरायल में अति दक्षिणपंथ का उभार

नेतन्याहू के साथ इजरायल की सरकार में Religious Zionism फ्रंट के दो बड़े नाम होंगे- अति दक्षिणपंथी नेता इतामार बेन-ग्विर (Itamar Ben-Gvir) और बेजेल स्मोट्रिच (Bezalel Smotrich) जो खुले तौर पर फिलिस्तीनियों के खिलाफ हथियार उठाने पर हिंसा करने का आह्वान करते हैं.

तामार बेन-ग्विर ने इजरायल में फिलिस्तीनियों के लिए "लॉयलिटी टेस्ट" की वकालत की है और कहा है कि जो भी इस टेस्ट में पास न हो उन्हें इजरायल से बाहर भेज दिया जाए. जो फ्रंट इन अति दक्षिणपंथी विचारों की वकालत करता है, उसने इसबार के चुनाव में 14 सीटों पर कब्जा किया है.

इजरायल के कब्जे वाले क्षेत्रों में यह चुनाव फिलिस्तीनियों को कितना प्रभावित करेगा?

करीब 45 लाख फिलिस्तीनी इजरायली सैन्य शासन के अधीन या उसके कब्जे वाले वेस्ट बैंक, पूर्वी यरुशलम और घिरी हुई गाजा पट्टी में रहते हैं. लेकिन इजरायल के चुनावों में उन्हें कोई अधिकार नहीं है. 1967 के कब्जे वाले क्षेत्रों में फिलिस्तीनी दो-स्तरीय कानूनी प्रणाली के तहत अवैध बस्तियों में रहने वाले सैकड़ों हजारों इजरायली यहूदियों के साथ रहते हैं.

हालांकि फिलिस्तीनियों के लिए यायर लैपिड या नेतन्याहू के नेतृत्व वाली दोनों सरकारों में बहुत अंतर नहीं रहा, उनकी जिंदगी- उनके अधिकारों में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया. लेकिन अब कि जब नेतन्याहू इतामार बेन-ग्विर और बेजेल स्मोट्रिच सरीखे अति दक्षिणपंथी नेताओं के सहयोग से वापसी कर रहे हैं, फिलिस्तीनियों के लिए चिंताएं बढ़ सकती हैं.

बेंजामिन नेतन्याहू की जीत का भारत के लिए क्या मतलब है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को बेंजामिन नेतन्याहू को बधाई दी और ट्वीट करते हुए हिब्रू में लिखा कि "मैं भारत और इजराइल के बीच रणनीतिक साझेदारी को गहरा करने के हमारे संयुक्त प्रयासों को जारी रखने के लिए तत्पर हूं."

नेतन्याहू की वापसी और मोदी के साथ उनके मधुर संबंधों को देखते हुए, दोनों देशों के बीच संबंधों को और मजबूती के ही संकेत मिल रहे हैं. याद कीजिये जब जुलाई 2017 में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने इजरायल की ऐतिहासिक यात्रा की थी - किसी भारतीय प्रधान मंत्री द्वारा पहली - और दोनों नेताओं के बीच की 'केमिस्ट्री' उभर कर सामने आई थी, दोनों समुंद्र किनारे घूम रहे थे.

पीएम मोदी की यात्रा के दौरान भारत और इजराइल ने अपने द्विपक्षीय संबंधों को रणनीतिक साझेदारी तक बढ़ाया. इसके बाद नेतन्याहू की बारी थी. उन्होंने जनवरी 2018 में भारत की यात्रा की- यह किसी भी इजरायली पीएम की केवल दूसरी भारत यात्रा थी.

तब से दोनों देशों के बीच संबंधों ने ज्ञान-आधारित साझेदारी के विस्तार पर ध्यान केंद्रित किया है, जिसमें 'मेक इन इंडिया' पहल को बढ़ावा देने सहित इनोवेशन और रिसर्च फील्ड में सहयोग शामिल है.

भारत और इजराइल के बीच अब व्यापक और व्यापक आर्थिक, सैन्य और राजनीतिक संबंध हैं. बेंजामिन नेतन्याहू की पीएम पद तक वापसी से इसके और मजबूत होने के ही आसार हैं.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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