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नेतन्याहू के बाद भारत और अमेरिका से इजरायल के संबंध बदलेंगे?

भारत-इजरायल संबंध ने ऐसी गति पकड़ी है जिसके केंद्र में एक दूसरे के दीर्घकालिक हित हैं

पिनाक रंजन चक्रवर्ती
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>नेतन्याहू के बाद बेनेट बने इजरायल के प्रधानमंत्री&nbsp;</p></div>
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नेतन्याहू के बाद बेनेट बने इजरायल के प्रधानमंत्री 

(फोटो-ट्विटर/Yaakov Katz)

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120 सीटों वाली इजरायली संसद में 60-59 के मामूली लेकिन पर्याप्त बहुमत के साथ एक विचित्र और नई गठबंधन सरकार बनी है.49 वर्षीय नये प्रधानमंत्री नफ्ताली बेनेट हाई टेक्नोलॉजी सेक्टर के करोड़पति बिजनेसमैन हैं. वह संसद में मात्र 7 सीट जीतने वाले राजनीतिक दल 'यामिना' के कट्टर दक्षिणपंथी सुप्रीमो हैं. यामिना का हिब्रू भाषा में अर्थ ही दक्षिणपंथ से है.

हालांकि 1948 में आजादी के बाद इजरायल ने कई गठबंधन सरकारों को देखा है. लेकिन बेनेट के नेतृत्व वाली यह गठबंधन सरकार यकीनन इजरायल के इतिहास में सबसे विचित्र गठबंधन में से एक है. राजनैतिक रूप से देखें तो 8 दलों वाले इस गठबंधन में गहरे वैचारिक मतभेद मौजूद हैं.

बेंजामिन नेतन्याहू को अभी नकारा नहीं जा सकता

71 वर्षीय इजरायली नेता बेंजामिन नेतन्याहू लगातार 12 वर्षों तक इजरायल के सबसे लंबे शासनकाल वाले प्रधानमंत्री और लिकुड पार्टी के विवादास्पद नेता रहे हैं.अब उन्हें विपक्ष में बैठना होगा. बेनेट ने यह दावा किया है कि वह इस बंटे राष्ट्र के जख्मों पर मरहम लगाएंगे, जिसका आरोप उनके पूर्व सहयोगी और अब विपक्षी- नेतन्याहू पर लगाया गया है.

चाहे जो हो, इजराइल आखिरकार उस राजनैतिक अस्थिरता से बाहर आता दिख रहा है जहां उसे 2 साल के अंदर 4 आम चुनाव कराने पड़े. नेतन्याहू ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह नई सरकार का विरोध करेंगे.उन्होंने कहा "मैं इस दुष्ट और खतरनाक वामपंथी सरकार को गिराने के लिए रोजाना के संघर्ष में आपका नेतृत्व करूंगा".." भगवान ने चाहा तो यह आपके उम्मीद से जल्दी होगा". हालांकि उनके प्रधानमंत्री कार्यकाल में उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप को ठंडे बस्ते में डाला रखा गया. नेतन्याहू ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह इजरायल के राजनीतिक स्टेज को छोड़ने वाले नहीं हैं.

अपने समर्थकों के बीच बहुत लोकप्रिय होने के बावजूद उनकी आलोचना ऐसे लीडर के रूप में होती है जिस ने जानबूझकर अपने राजनीति का आधार ‘बांटो और राज करो की नीति’ को बनाया है और जिसमें अधिनायकवादी प्रवृतियां हैं. उनकी नीतियों को समर्थन इजरायली समाज के कई हिस्सों से मिलता रहा है जो कि यहूदियों और मुस्लिम इजरायली अरब लोगों के बीच धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष आधार पर गहरे स्तर तक बंटा हुआ है. यहां की जनसंख्या में मुस्लिम इजरायली अरबों की संख्या 90 लाख है जो जनसंख्या का लगभग 21% है.

उनकी पार्टी संसद में सबसे बड़ी पार्टी है, जिसके पास 30 सीटें हैं. नेतन्याहू ने 15 साल तक प्रधानमंत्री के रूप में बागडोर संभाली है और अपना नाम इजराइल के इतिहास में दर्ज कराया है. उन्होंने इजरायल को अमीर तो किया है लेकिन साथ ही उसका ध्रुवीकरण भी. एक राजनैतिक जादूगर के रूप में जाने वाले नेतन्याहू की 'राजनैतिक श्रद्धांजलि' अभी लिखनी जल्दबाजी होगी. वह इंतजार में होंगे कि नई गठबंधन सरकार कोई गलती करे और उसका फायदा उठा कर भविष्य में नई गठबंधन सरकार बनाई जा सके.

बेनेट: अगले 2 साल इनके बैलेंस स्किल का परीक्षण

सरकार गठन के लिए इस असामान्य गठबंधन का आधार नेतन्याहू को सत्ता से बाहर करने की इच्छा रही. इस गठबंधन के 3 नेता पहले नेतन्याहू के सहयोगी और उनके दक्षिणपंथी राजनीतिक सोच के साझेदार रह चुके हैं- नए प्रधानमंत्री बेनेट नेतन्याहू सरकार में पूर्व 'चीफ ऑफ स्टाफ' और मंत्री रह चुके हैं तथा अपने पूर्व बॉस की अपेक्षा हार्डलाइनर और उनसे भी ज्यादा दक्षिणपंथी हैं. बेनेट की यामिना पार्टी की पॉपुलैरिटी धार्मिक यहूदियों और सेटलर कम्युनिटी तक सीमित है, जिसने यहूदियों को बसाने के लिए वेस्ट बैंक के फिलिस्तीनी भूमि और पूर्वी यरूशलम के आवासीय क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया है.

नेतन्याहू और बेनेट दोनों स्वतंत्र और संप्रभु फिलिस्तीनी राज्य तथा ईरान के साथ JCPOA न्यूक्लियर डील के खिलाफ हैं. बेनेट को अगले 2 साल में अविश्वसनीय संतुलन का परिचय देना होगा जिसके बाद यह प्रधानमंत्री पद गठबंधन की घटक सेंट्रलिस्ट पार्टी ‘येश अतिद’ के नेता यैर लेपिड के पास चला जाएगा.
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एक बड़ी चुनौती होगी अरब पार्टियों के साथ गठबंधन को सुरक्षित रखने की, जो संभवतः इजरायली अरब और अपने फिलिस्तीनी बंधुओं के लिए मांगों को दबाव के साथ रखेंगे. इजराइली अरब भेदभाव और दक्षिणपंथियों द्वारा 'आतंकवाद का हमदर्द' कहकर निशाना बनाये जाने का आरोप लगाते रहें हैं.

इसके अलावा बेनेट और लेपिड,दोनों के पास नीतियों पर वीटो रहेगा क्योंकि लेपिड के पास विदेश मंत्रालय जैसा महत्वपूर्ण पोर्टफोलियो है. इसलिए फिलिस्तीनी मुद्दों पर किसी तेजी की उम्मीद नहीं की जा सकती.

भारत इजरायल संबंध पर सत्ता परिवर्तन से फर्क नहीं पड़ेगा

इजरायल में सरकार बदलने से भारत-इजरायल संबंधों के प्रभावित होने की संभावना नहीं है. बेनेट को बधाई देने वाले विभिन्न वैश्विक नेताओं में पीएम मोदी के बधाई संदेश पर बेनेट ने गर्मजोशी के साथ प्रतिक्रिया दी है.उन्होंने कहा कि वह द्विपक्षीय संबंधों को और मजबूत करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी के साथ काम करने के लिए उत्सुक हैं. 2022 में भारत और इजरायल अपने डिप्लोमेटिक संबंध के 30 साल पूरा करने का जश्न मनाएंगे.

'पीएम इन वेटिंग' और विदेश मंत्री यैर लेपिड ने भी आगे कहा कि उनकी सरकार भारत के साथ अपने सामरिक संबंधों को और मजबूत करने पर काम करेगी.लेपिड ने भारतीय विदेश मंत्री एस.जयशंकर के बधाई संदेश पर प्रतिक्रिया दी और उन्हें जल्द इजरायल यात्रा पर आने का न्योता भी दिया.

स्पष्ट रूप से भारत-इजरायल संबंध राजनैतिक परिवर्तन से मुक्त हो चुके हैं और इनके संबंधों ने ऐसी गति पकड़ी है जिसके केंद्र में एक दूसरे के दीर्घकालिक हित हैं. नेतन्याहू ने व्यक्तिगत स्तर पर भारत के साथ द्विपक्षीय संबंध बनाने और प्रधानमंत्री मोदी के साथ पर्सनल केमिस्ट्री बैठाने के लिए प्रयास किये थे, विशेषकर जब 2017 में पहली बार किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री के रूप में पीएम मोदी इजरायल गए थे.

आज द्विपक्षीय संबंध इस स्तर पर हैं जहां इजरायल भारत का दूसरा सबसे बड़ा रक्षा एवं तकनीकी उत्पादों का निर्यातक है. कोरोना महामारी के बीच मेडिकल सेक्टर में भी द्विपक्षीय सहयोग ने गति पकड़ी है.इजरायल मेडिकल टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में लीडर है और उसने सबसे पहले अपने अधिकांश जनसंख्या को वैक्सीनेट कर लिया था.

इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष पर भारत का संतुलन भरा रुख

इजरायल या भारत में चाहे कोई भी सरकार हो, उसकी राजनैतिक विचारधारा चाहे जो हो- उसके इस द्विपक्षीय संबंध पर असर पड़ने की संभावना नहीं है. इजरायल और हमास के बीच गाजा में 11 दिनों के हिंसक संघर्ष के बाद UNSC की चर्चा में मोदी सरकार का बयान काफी संतुलन भरा था.

साथ ही भारत UN ह्यूमन राइट काउंसिल के उस रेजोल्यूशन पर वोटिंग में अनुपस्थित रहा जिसमें गाजा पर बमबारी और इजरायल द्वारा फिलिस्तीनियों के मानवाधिकार के उल्लंघन की स्वतंत्र जांच की मांग की गई थी.

जैसे-जैसे द्विपक्षीय संबंध मजबूत हुए हैं भारत का इजरायल-फिलिस्तीन विवाद पर स्टैंड अधिक संतुलित हुआ है.हालांकि भारत ने 'टू स्टेट सॉल्यूशन' पर अपना निरंतर समर्थन बनाए रखा है, जिसकी परिकल्पना संयुक्त राष्ट्र के 1947 के प्रस्ताव में की गई थी और जिसे 1990 के दशक के ओसलो समझौतों में दुहराया गया था.

क्या बाइडेन और बेनेट साथ आयेंगे?

इजरायल में नयी सरकार तब आई है जब अमेरिका में भी नयी बाइडेन सरकार अपने शुरुआती दिनों में ही है.नेतन्याहू के संबंध पूर्व राष्ट्रपति ओबामा से अच्छे नहीं रहे थे जिसमें बाइडेन उपराष्ट्रपति पद पर थें.अमेरिका की पॉलिसी में परिवर्तन- जैसे पूर्वी जेरूसलम में वाणिज्य दूतावास को फिर से खोलना, जो कि मुख्यतः फिलिस्तीनियों के पक्ष में है और गाजा के पुनर्निर्माण के लिए फंड प्रदान करना- पहले से ही दिखा रहा है कि बाइडेन प्रशासन का दृष्टिकोण इस मुद्दे पर सोचा समझा है.

बाइडेन भी हर अमेरिकी राष्ट्रपति की तरह इजरायलके मजबूत समर्थक रहेगें.इजरायल अमेरिका के साथ रेड लाइन को पार नहीं कर सकता.बाइडेन की नई सरकार चुप्पी और निष्क्रियता की पॉलिसी चुन सकती है जो दोनों पक्षों के लिए अनुकूल है.पूर्व ट्रंम प्रशासन के भारी समर्थन के बाद इजरायल को बाइडेन प्रशासन कुछ हद तक कम मिलनसार लगेगा. हालांकि यरूशलम में अमेरिकी दूतावास को स्थानांतरित करने जैसे किसी भी निर्णय के उलटे जाने की संभावना नहीं है.

( लेखक विदेश मंत्रालय में पूर्व सचिव तथा राजदूत रहे हैं. वे DeepStrat के फाउंडिंग डायरेक्टर हैं तथा इजरायल में DCM के रूप में सेवा दे चुके हैं. वर्तमान में वे ORF,दिल्ली में विजिटिंग फेलो हैं .यह एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं.द क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है)

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