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यह अंतरराष्ट्रीय जलवायु वार्ताओं का एक निर्णायक पल है. अमीर देश आखिरकार इस बात के लिए राजी हो गए हैं कि वे कमजोर देशों को जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले नुकसान की भरपाई करने के लिए एक फंड बनाएंगे. यह रजामंदी मिस्र में संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन (COP27)के दौरान हुई है.
नुकसान का खामियाजा भरने वाली बात पर सहमति के अलावा इस वार्षिक सम्मेलन में कई दूसरे महत्वपूर्ण मुद्दों पर कोई ठोस प्रगति नहीं हुई, जैसे कोयले के साथ-साथ दूसरे फॉसिल फ्यूल का इस्तेमाल तेजी से कम किया जाए.
मिस्र समझौते में इस बात का जिक्र भी नहीं हुआ कि 2025 तक ग्लोबल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन चरम पर पहुंच जाएगा. बेशक, दुबई में होने वाले अगले शिखर सम्मेलन में यह एक मुश्किल मुद्दा बन सकता है.
विकसित देशों ने सालों तक इस बात का विरोध किया लेकिन आखिरकार मिस्र के संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में वे कमजोर देशों की मांग मानने को राजी हो गए. कमजोर देश लगातार यह अपील कर रहे थे कि ग्लोबल वॉर्मिंग ने जो जलवायु संकट पैदा किया है, उन्हें उसके नुकसान से निपटने के लिए मदद दी जाए. विकसित देश इसकी भरपाई करने के लिए एक फंड बनाएं.
डेडलाइन शुक्रवार तक की थी, लेकिन विश्व वार्ताकारों ने रविवार, 20 नवंबर की सुबह मिस्र घोषणापत्र पर आम सहमति कायम की. हां, नुकसान की भरपाई के अलावा जलवायु संबंधी पहल से जुड़े किसी मुद्दे पर कोई प्रगति नहीं हुई, खासकर जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने, और उसके अनुकूल पहल करने, और सभी फॉसिल फ्यूल के इस्तेमाल को तेजी से खत्म करने के लिए वित्त जुटाने पर, जिसे क्लाइमेट फाइनैंस कहा जाता है.
"30 साल पुराना मिशन पूरा हो गया है. हमारे वार्ताकारों ने रात और दिन एक करके, यह समझौता किया है और हमारी मेहनत रंग लाई है."एंटीगुआ और बारबुडा के मोल्विन जोसेफ ने कहा. वह अलायंस ऑफ स्मॉल आईलैंड स्टेट्स के अध्यक्ष हैं. समुद्र के बढ़ते स्तर के कारण इन द्वीपीय देशों का अस्तित्व ही खत्म होने की आशंका है.
यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) के कार्यकारी सचिव साइमन स्टिल ने इस दो हफ्ते के सम्मेलन के समापन पर कहा, "सम्मेलन का फैसला हमें आगे बढ़ने की ताकत देता है. दसियों साल से नुकसान की भरपाई को वित्त पोषित करने के लिए बातचीत चल रही थी. अब हमने आगे बढ़ने का रास्ता तय कर लिया है."
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटारेज ने शर्म अल शेख नामक शहर में आयोजित 27वें कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज (COP27) के समापन पर बयान दिया. उन्होंने कहा, "मैं लॉस और डैमेज फंड बनाने, और आने वाले समय में इसे चालू करने के फैसले का स्वागत करता हूं. साफ है, यह काफी नहीं होगा, लेकिन टूटे हुए भरोसे को फिर से कायम करने के लिए यह एक बहुत जरूरी राजनीतिक संकेत है."
हालांकि लॉस और डैमेज फंड कैसे काम करेगा, इससे जुड़े कई सवाल बेजवाब ही रह गए, फिर भी जलवायु विशेषज्ञों और एक्टिविस्ट्स ने इस कदम का स्वागत किया.
दिल्ली के एक थिंक टैंक, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के प्रोफेसर नवरोज के. दुबाश ने कहा, "लॉस और डैमेज फंड का निर्माण इस बात की तरफ इशारा करता है कि इस एजेंडा को समर्थन दिए बिना किसी देश के लिए नैतिक रुख अपनाना मुमकिन नहीं है." उन्होंने मीडिया से कहा, "यह एक रचनात्मक बदलाव है."
क्लाइमेट ऐक्शन नेटवर्क इंटरनेशनल में ग्लोबल पॉलिटिकल स्ट्रैटेजी के हेड हरजीत सिंह ने एक प्रेस रिलीज के जरिए कहा, "ऐसा फंड बनाकर, कॉप 27 ने प्रदूषण फैलाने वालों को चेतावनी दी है कि जलवायु को नुकसान पहुंचाने पर उन्हें बख्शा नहीं जाएगा." क्लाइमेट ऐक्शन नेटवर्क इंटरनेशनल 1,300 से ज्यादा गैर सरकारी संगठनों का एक गठबंधन है.
वाशिंगटन डीसी स्थित एनवायरमेंटल थिंक टैंक वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के प्रेसिडेंट और सीईओ एनी दासगुप्ता के एक बयान के अनुसार, यह नया फंड उन गरीबों को जीवन रेखा प्रदान करेगा जिनके घर नष्ट हो गए हैं, जिनकी फसलें बर्बाद हो गई है, और द्वीपवासी, जो अपने पैतृक घरों को छोड़ने को मजबूर हैं. एनी कहते हैं, "कॉप 27 में जो समझौता हुआ, वह कमजोर देशों में भरोसा कायम करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है."
इस सकारात्मक प्रगति के बावजूद शर्म अल शेख शिखर सम्मेलन में यह दोहराया नहीं गया कि कोयले ही नहीं, फॉसिल फ्यूल के इस्तेमाल को भी चरणबद्ध तरीके से खत्म किया जाए. स्थिति जस की तस बनी हुई है, जैसे कि 2021 ग्लासगो जलवायु समझौते में कहा गया था. तब भारत ने कूटनीतिक बचाव के तौर पर यह मुद्दा उठाया था और यूरोपीय संघ सहित कई देशों ने उसका समर्थन किया था. भारत ने कहा था कि फॉसिल फ्यूल का इस्तेमाल धीरे-धीरे खत्म किया जाना चाहिए. इससे कोयले पर बहुत अधिक निर्भर रहने वाले भारत और चीन जैसे देशों के अलावा, तैल और गैस उत्पादक देशों की भी तरफ सबका ध्यान खिंचा.
विशेषज्ञों का कहना है कि सम्मेलन में इस मुद्दे का न उठना, नुकसान की भरपाई के लाभ को खतरे में डाल सकता है. चूंकि फॉसिल फ्यूल का बेरोकटोक इस्तेमाल जलवायु संकट को बढ़ाएगा और नुकसान भी बढ़ता जाएगा.
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ सस्टेनेबल डेवलपमेंट में एक सीनियर पॉलिसी एडवाइजर श्रुति शर्मा के अनुसार, जैसा कि भारत का प्रस्ताव था, ऐसी उम्मीद की गई थी कि कोयला, तेल और गैस- सभी फॉसिल फ्यूल्स के इस्तेमाल को धीरे-धीरे खत्म करने की अपील की जाएगी. लेकिन कॉप 26 के बयान (कोयले के इस्तेमाल को चरणबद्ध तरीके से खत्म करना) को कॉप 27 में आगे नहीं बढ़ाया गया जोकि दुर्भाग्यपूर्ण है.
अब यह स्थापित हो गया है कि अगर पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करना है और तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना है तो उत्सर्जन को जबरदस्त तरीके से कम करना होगा. मिस्र के जलवायु वक्तव्य में निम्न कार्बन विकास का आह्वान किया गया है. उसका अर्थ यह है कि प्राकृतिक गैस के बढ़ते उपयोग को रोकने वाला कोई अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध नहीं है.
दुबाश कहते हैं, "हम 1.5 डिग्री सेल्सियस के अनुमान की वजह से एक बड़ी परेशानी का सामना कर रहे हैं. उत्तर यानी विकसित देश पर्याप्त कटौती नहीं कर रहे, अपनी रफ्तार बढ़ाने के लिए हमारे पास पूरा पैसा नहीं है और दक्षिण यानी विकासशील देश अपने यहां के विकास को जोखिम में डालना चाहते. यानी किसी न किसी को तो इसकी कीमत चुकानी ही होगी, और यह कीमत हमारे लक्ष्य, 1.5 डिग्री के मानक को चुकानी पड़ रही है."
विशेषज्ञों का कहना है कि हालांकि उत्सर्जन में बढ़ोतरी की रफ्तार धीमी है, लेकिन यह जलवायु परिवर्तन की गति को रोकने के लिए पर्याप्त नहीं है. जलवायु विशेषज्ञों की दुनिया की सबसे बड़ी संस्था, इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज के अनुसार, ग्रह अभी भी 21वीं सदी के अंत तक लगभग 3 डिग्री की औसत वैश्विक तापमान वृद्धि की डगर पर है.
UNFCCC के साइमन स्टिल का कहना है कि कोई न करने की कीमत जलवायु संबंधी पहल से भी अधिक है. उनके मुताबिक, "2025 तक वैश्विक उत्सर्जन में गिरावट होने की जरूरत है." मिस्र शिखर सम्मेलन ने इस मुद्दे पर चुप्पी रही- सिर्फ यही दोहराया गया कि वह तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बरकरार रखने के लिए कृतसंकल्प है लेकिन इस संबंध में क्या पहल की जाएगी, इस पर कोई बात नहीं की गई.
अपनी कमियों के बावजूद कॉप 27 में एक फंड बनाने की बात तो तय हुई. हरजीत सिंह का कहना है कि यह सुनिश्चित करने के लिए कि नया फंड अच्छी तरह से काम कर रहा है और जलवायु संकट की मार झेल रहे सबसे कमजोर व्यक्तियों और समुदायों की मदद करता है, देशों को अब परस्पर सहयोग करना चाहिए.
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