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1953 में पड़ी ईरान-US के बीच नफरत की नींव, आधी सदी का पूरा ब्योरा

1953 में उठी एक चिंगारी के पीछे लगभग हर मिडिल ईस्ट के विवाद की तरह ‘ऑइल’ ही था

नमन मिश्रा
दुनिया
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1953 में उठी एक चिंगारी के पीछे लगभग हर मिडिल ईस्ट के विवाद की तरह ‘ऑइल’ ही था
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1953 में उठी एक चिंगारी के पीछे लगभग हर मिडिल ईस्ट के विवाद की तरह ‘ऑइल’ ही था
(फाइल फोटो: AP)

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वीडियो एडिटर: वरुण शर्मा/आशुतोष भारद्वाज

अमेरिकी एयरस्ट्राइक में जनरल कासिम सुलेमानी की मौत से ईरान और अमेरिका के रिश्तों की दरार और गहरी हो गई है. हालांकि, डोनाल्ड ट्रंप और ईरान दोनों ही युद्ध से इनकार कर रहे हैं, लेकिन हालात बदतर बने हुए हैं. ईरान में हर रोज प्रदर्शन हो रहे हैं और लोग 'डेथ टू अमेरिका' के नारे लगा रहे हैं. ये नारे मिडिल ईस्ट को जानने वाले किसी भी शख्स को एक ही समय की याद दिलाते हैं - 1979 ईरानी क्रांति.

लेकिन इस क्रांति के पीछे जो अहम घटना है, उसी से ईरान और अमेरिका के बीच के तनाव की शुरुआत हुई थी. 1953 में घटी उस घटना ने ईरान के लोगों में अमेरिका के लिए गुस्सा और नफरत भर दी थी. इसी घटना के साथ ईरान और अमेरिका की दुश्मनी की नींव पड़ गई थी. 1953 में उठी एक चिंगारी के पीछे लगभग हर मिडिल ईस्ट के विवाद की तरह 'ऑइल' ही था.

1953 में क्या हुआ था?

वर्ल्ड वॉर 2 से पहले ईरान के तेल उद्योग पर ब्रिटेन का खासा प्रभाव था. ब्रिटेन इस प्रभाव और कंट्रोल को एंग्लो-ईरानी ऑइल कंपनी के माध्यम से बनाए रखता था. फिर साल 1952 में ईरान के शाह मोहम्मद रेजा पहलवी ने मोहम्मद मोसद्दिक को प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया और ब्रिटेन के लिए सब बदल गया. मोसद्दिक को एक पॉपुलर, सेक्युलर और राष्ट्रवादी नेता के तौर पर देखा जाता था. उन्होंने सत्ता में आते ही देश के तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण कर दिया और ब्रिटेन से संबंध तोड़ दिए.

मोहम्मद मोसद्दिक(फाइल फोटो: AP)
ब्रिटेन समझ गया था कि मोसद्दिक को हटाए बिना वापस तेल उद्योग पर वर्चस्व मुमकिन नहीं है, लेकिन इसके लिए उसे अमेरिका की मदद चाहिए थी. कोल्ड वॉर का समय था. ब्रिटेन ने अमेरिका को ईरान के तब के सोवियत संघ के पाले में जाने का डर दिखाकर अपने साथ मिला लिया. अमेरिका की इंटेलिजेंस एजेंसी CIA ने पैसे और शाह पहलवी के जरिए मोसद्दिक के तख्तापलट को अंजाम दे डाला और सत्ता शाह के हाथों में चली गई. ईरान के लोगों ने इस घटना को देश के मामलों में अमेरिका की सीधी दखलंदाजी के तौर पर देखा.  

पहलवी की हुकूमत और क्रांति की शुरुआत

1953 से लेकर 1977 तक ईरान में शाह रेजा पहलवी ने अमेरिका की मदद से हुकूमत चलाई. उस समय ईरान मिडिल ईस्ट में अमेरिका का सबसे पक्का साथी हुआ करता था. शाह ने ईरान को पश्चिमीकरण के रास्ते ले जाने का मन बना लिया था. महिलाओं को ज्यादा से ज्यादा आजादी और लैंड रिफॉर्म्स के जरिए शाह ईरान के पारंपरिक सत्ता के ढांचे से परे अपने लिए समर्थन की बुनियाद रखना चाहते थे. पहलवी को लगता था कि लैंड रिफॉर्म्स से वो मजदूर तबके में अपनी पैठ बना लेंगे. लेकिन शाह के इस कदम से असल में सामाजिक सौहाद्र बिगड़ गया.

शाह को ईरान के लोग अमेरिका का 'एजेंट' ही समझते थे. लोग 1953 का तख्तापलट नहीं भूले थे. इसके अलावा शाह पहलवी के शासन पर लोग भ्रष्टाचारी और दमनकारी होने का आरोप लगाते थे. शाह की खुफिया पुलिस पर उनके विरोधियों की हत्या करने के न जाने कितने आरोप लगे थे. लेकिन अमेरिका शाह के समर्थन में खड़ा रहा.

1963 में शाह पहलवी की पश्चिमीकरण की नीतियों खिलाफ रूहोल्लाह खोमैनी ने मोर्चा खोल दिया. खोमैनी को शाह के खिलाफ प्रदर्शन करने के लिए पहले गिरफ्तार किया गया और फिर 1964 में देशनिकाला दे दिया गया. खोमैनी इराक चले गए. लेकिन वो कुछ ही वक्त में ईरान की जनता के लिए ‘मार्गदर्शक’ बन चुके थे.
रूहोल्लाह खोमैनी(फाइल फोटो: AP)

फिर साल 1977 में जब ईरान की अर्थव्यवस्था में मंदी आई तो सालों से शाह पहलवी के खिलाफ सुलग रही चिंगारी भड़क उठी.

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1979 की क्रांति

1977 के बाद से ही बढ़ती कीमतों, भ्रष्टाचार और शाह पहलवी की दमनकारी नीतियों समेत कई मुद्दों पर ईरान में विरोध प्रदर्शन हो रहे थे. खोमैनी इराक के नजफ शहर से शाह की अमेरिका से नजदीकी और इस्लाम की अनदेखी के आरोप को लेकर निशाना साध रहे थे. शाह ने देश में मार्शल लॉ लगा दिया और सभा करना प्रतिबंधित कर दिया. लेकिन ये कदम शाह के खिलाफ हो गया और लोग बड़ी संख्या में राजधानी तेहरान समेत कई शहरों में सड़कों पर आने लगे.

तेहरान में शाह पहलवी के विरोध में प्रदर्शन(फाइल फोटो: AP)
देश में महीनों तक धरना-प्रदर्शन होते रहे. शाह की पुलिस ने विरोध कुचलने की जितनी कोशिश की, वो उतना उग्र होता चला गया. शाह को इस तरह के प्रदर्शन की उम्मीद नहीं थी और उनकी पुलिस इसे दबाने में सक्षम नहीं थी. 1978 के जनवरी में कोम शहर में प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने गोली चला दी. कई लोग मारे गए, इसके विरोध में तब्रिज शहर में प्रदर्शन हुआ, वहां भी पुलिस की कार्रवाई में कई लोगों की मौत हो गई. फिर आया शुक्रवार 8 सितंबर, तेहरान के जलेह स्क्वायर में प्रदर्शन चल रहा था और शाह की खुफिया पुलिस ने मोर्चा खोल दिया. कम से कम 100 लोगों की मौत हो गई. लोगों ने दिन को ‘ब्लैक फ्राइडे’ का नाम दे दिया.  

खुद के खिलाफ विरोध चरम पर देख शाह पहलवी ने विपक्षी नेता शाहपुर बख्तियार को प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया. लेकिन शाह के इस कदम का भी कुछ असर नहीं हुआ. खोमैनी इस बीच इराक से फ्रांस चले गए. खोमैनी ने शाह को हटाने की मुहिम पहले से भी तेज कर दी. और उग्र प्रदर्शन होने लगे. आखिरकार 16 जनवरी 1979 को शाह पहलवी हमेशा के लिए ईरान छोड़ कर मिस्र के लिए रवाना हो गए.

अपनी पत्नी के साथ ईरान छोड़ कर मिस्र जाते शाह पहलवी(फाइल फोटो: AP)

बख्तियार ने रूहोल्लाह खोमैनी को ईरान वापस लौटने का न्योता भेजा. 15 साल के निर्वासन के बाद खोमैनी जब 1 फरवरी को ईरान लौटे तो तेहरान की सड़कों पर पैर रखने को जगह नहीं थी. लाखों की तादाद में लोग खोमैनी का इस्तकबाल करने सड़कों पर थे. 1 अप्रैल को ईरान को जनमत संग्रह से इस्लामिक रिपब्लिक घोषित कर दिया गया.

15 साल बाद ईरान वापस लौटे खोमैनी(फाइल फोटो: AP)

अमेरिकी दूतावास पर हमला और ईरान के साथ रिश्तों का खात्मा

शाह रेजा पहलवी कई सालों से कैंसर से जूझ रहे थे. उन्हें इलाज की सख्त जरूरत थी और ऐसे समय में उन्होंने पुराने दोस्त अमेरिका का रुख किया. अमेरिका ने थोड़े विरोध के बाद इलाज के लिए शाह को देश में आने की इजाजत दे दी. ईरान में अमेरिका के इस कदम से रोष पैदा हो गया. तेहरान में अमेरिकी दूतावास के सामने प्रदर्शन होने लगे और लोग 'डेथ टू अमेरिका' के नारों के साथ शाह पहलवी को लौटाने की मांग करने लगे. लोग चाहते थे कि शाह पहलवी को ईरान में सजा दी जाए.

अमेरिका ने ऐसा कुछ नहीं किया. और फिर वो घटना घटी जिसके बाद अमेरिका और ईरान के संबंध ऐसे टूटे के आज तक नहीं जुड़ पाए. 4 नवंबर 1979 को कई ईरानी छात्रों ने अमेरिकी दूतावास पर हमला बोल दिया. छात्रों ने दूतावास में काम करने वाले 50 से ज्यादा अमेरिकी अधिकारियों को बंधक बना लिया. छात्रों ने बंधकों के बदले अमेरिका से शाह को लौटाने की मांग की. अमेरिका ने जवाब में देश के बैंकों में मौजूद ईरान की संपत्ति जब्त कर ली. दोनों देशों के राजनयिकों ने बंधकों को छुड़ाने की बहुत कोशिश की लेकिन कोई सफलता नहीं मिली और ईरान अपनी बात पर अड़ा रहा.  

मई 1980 तक अमेरिका ने कई साथी देशों को ईरान के साथ व्यापार पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए राजी कर लिया था. 27 जुलाई को मिस्र के काइरो में शाह रेजा पहलवी की मौत हो गई, लेकिन ईरान के रुख में कोई बदलाव नहीं आया. लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि कुछ महीने पुराने इस्लामिक रिपब्लिक को नरमी दिखानी ही पड़ी. सितंबर में इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने ईरान पर हमला बोल दिया. ईरान को साथ की जरूरत थी. लेकिन लगभग सभी देशों की शर्त थी कि अमेरिकी नागरिकों को कैद में रख कर ईरान मदद की अपेक्षा नहीं कर सकता.

बंधकों की रिहाई पर बातचीत शुरू हुई और अल्जीरिया के राजनयिकों की मध्यस्थता से पूरे 444 दिन बाद जनवरी 20, 1981 को सभी बंधक छोड़ दिए गए. ईरान ने व्यापार करने के प्रतिबन्ध हटाए जाने और अमेरिका में संपत्ति वापस पाने के अलावा और भी कई शर्तों के साथ बंधकों को छोड़ दिया था. दिलचस्प बात ये है कि बंधकों की रिहाई नए अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन के शपथ ग्रहण के कुछ मिनट बाद हुई थी.  

ईरान परमाणु डील

इस घटना के बाद से अमेरिका और ईरान के रिश्ते कभी सामान्य नहीं हो पाए. अमेरिका, यूएन और यूरोपियन यूनियन ने ईरान पर कई सैंक्शन लगाए. लेकिन बराक ओबामा के कार्यकाल में अमेरिका और ईरान के बीच बातचीत शुरू हुई. ईरान पर कई सालों से गुपचुप तरीके से परमाणु हथियार बनाने का आरोप लग रहा था. 2015 में ईरान दुनिया के शक्तिशाली देशों के समूह P5+1 (अमेरिका, रूस, चीन, जर्मनी, फ्रांस, यूके) के साथ एक परमाणु डील के लिए राजी हो गया.

इस डील के मुताबिक ईरान पर लगाए गए सैंक्शन हटाए जाएंगे और बदले में ईरान अपनी परमाणु गतिविधयां सीमित करेगा और इंटरनेशनल इंस्पेक्टर को भी जांच करने की इजाजत देगा. लेकिन डोनाल्ड ट्रंप ने 2018 के नवंबर में अमेरिका को इस डील से बाहर निकाल लिया और ईरान पर सैंक्शन फिर लगा दिए. ट्रंप के इस कदम से ईरान और अमेरिका के नाजुक रिश्ते फिर से तनाव के साए में आ गए.

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Published: 09 Jan 2020,09:26 PM IST

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