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इजरायल पर हमास (Israel Hamas War) का हमला
700 से ज्यादा लोगों की मौत (ये आंकड़े और बढ़ सकते हैं)
इजरायल के जवाबी हमले में 493 फिलिस्तीनी मरे
फिर सुर्खियों में फिलिस्तीन-इजरायल विवाद
'मजहब, जमीन और जंग' के बीच इजरायल-फिलिस्तीन विवाद एक ऐसा कांटा है, जिससे हमेशा पश्चिम और मिडिल ईस्ट एशिया की राजनीति प्रभावित होती रही है और वैश्विक स्तर पर गुटबाजी देखने को मिलती है. इजरायल पर हमास के हमले के बाद भी यही नजर आया. एक तरफ अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और भारत ने जहां इस हमले की निंदा की वहीं, ईरान ने इसे सही ठहराया. चीन और रूस, दोनों ने तुरंत युद्ध रोकने की वकालत की है. भारतीय प्रधानमंत्री पीएम मोदी ने हमास के हमले की निंदा की और इजरायल को इस दुख की घड़ी में अपना समर्थन व्यक्त किया.
ईरान और अरब देशों की इसमें क्या भूमिका है ये भी समझेंगे. इसके साथ ही हम फिलिस्तीन और इजरायल की राजनीति को भी समझने की कोशिश करेंगे. इसके लिए हमने पश्चिम एशिया को समझने वाले JNU और AMU के प्रोफेसरों से बात की है. लेकिन, उससे पहले हम इजरायल, फिलिस्तिन पृष्ठभूमि को जान लेते हैं, जिससे आपको समझने में आसानी होगी.
दरअसल, इजरायल के उत्तर में लेबनाना, पूर्व में सीरिया और जॉर्डन, दक्षिण में मिस्त्र और पश्चिम की सीमा, गाजा और भूमध्य सागर से मिलती है. फिलिस्तीन दो भागों में बंटा हुआ है. पहला भाग जो भूमध्य सागर के तट पर स्थित है, उसका नाम गाजा है और दूसरा भाग जो पश्चिम में जॉर्डन से सटा है उसका नाम वेस्ट बैंक है. गाजा पर हमास का कब्जा है और वेस्ट बैंक पर फतह का कब्जा है.
अमेरिका समेत पश्चिमी देशों का आरोप है कि हमास की आड़ में ईरान अपनी उंगली सीधी करने की कोशिश में लगा है.
AMU में पश्चिम एशिया स्टडी सेंटर के फैकल्टी मेंबर डॉ. इम्तियाज अहमद का मानना है कि इजरायल को कमजोर करने के लिए ईरान हमास की मदद कर पश्चिम और मिडिल ईस्ट एशिया में 'प्रॉक्सी वॉर' छेड़े हुए है. इस क्षेत्र में अमेरिका के कम होते प्रभाव के खाली स्थान को ईरान अपने को स्थापित कर भरना चाहता है. चूंकि, प्रत्यक्ष रूप से सामने नहीं आ सकता, इसलिए वह आतंकी संगठनों की मदद से इजरायल को कमजोर कर रहा है.
हमास: एक कट्टर सुन्नी मुस्लिम संगठन है, जो फिलिस्तीन की स्वायत्ता की माग करता है. इसका गठन 1987 में हुआ था. इस संगठन का उद्देश्य जिहाद का सहारा लेकर स्वतंत्र फिलिस्तीन की स्थापना करना है और आतंकवाद के माध्यम से इजरायल को कमजोर करना है. हालांकि, ये अपने आप को आतंकी संगठन नहीं मानता. ये खुद को फ्रीडम फाइटर मानता है.
हमास एक यह एक कट्टर सुन्नी मुस्लिम संगठन है, जो फिलिस्तीन की स्वायत्ता की माग करता है. इसका गठन 1987 में हुआ था.
इस संगठन का उद्देश्य जिहाद का सहारा लेकर स्वतंत्र फिलिस्तीन की स्थापना करना है और आतंकवाद के माध्यम से इजरायल को कमजोर करना है.
हालांकि, ये अपने आप को आतंकी संगठन नहीं मानता. ये खुद को फ्रीडम फाइटर मानता है.
फतह भी एक संगठन है, जो फिलिस्तीन की स्वतंत्रता की मांग करता है. इसका गठन यासिर अराफात ने 1950 के दशक में किया था. फतह सबसे बड़ा फिलिस्तीनी राजनीतिक गुट है. यह संगठन वेस्ट बैंक में अपना प्रभाव स्थापित किए हुए है. हालांकि, इस संगठन की विचारधारा हमास की विचारधारा के विपरीत है. यह संगठन संयुक्त राष्ट्र संगठन और ‘ओस्लो शांति समझौते’ को स्वीकार करता है, जबकि हमास इस समझौते को नहीं मानता है.
ओस्लो शांति समझौता: साल 1993 में अमेरिका और रूस की मध्यस्थता से इजरायल और फिलिस्तीन के बीच एक समझौता हुआ था. ओस्लो शांति समझौते का ‘दो राज्यों के समाधान’ (Two State Solution) के नाम से जाना जाता है. इस समझौते के तहत यह तय किया गया था कि इस क्षेत्र को दो हिस्सों में विभाजित किया जाएगा. उनमें से एक हिस्सा फिलिस्तीन को और दूसरा इजरायल के हिस्से में जाएगा. इसी समझौते का विरोध हमास करते आया है.
JNU में पश्चिम एशिया स्टडी सेंटर के प्रोफेसर अमित कुमार बताते हैं कि ईरान, इजरायल को कमजोर करने के लिए सिर्फ हमास की ही मदद नहीं करता है, बल्कि लेबनान में हिज्बुल्लाह का भी समर्थन करता है. हिजबुल्लाह भी हमास जैसा ही संगठन है, जो इजरायल को अपना दुश्मन मानता है.
फिलिस्तीन में भारत कभी भी हमास का समर्थक नहीं रहा है. हालांकि, हमास गाजा में फतह सरकार के समानांतर सरकार चलाता है और गाजा की भौगोलिक स्थिति कई मायनों में महत्पूर्ण है.
AMU में पश्चिम एशिया स्टडी सेंटर के HOD, प्रोफेसर जावेद इकबाल कहते हैं कि "भारत का हमास के साथ प्रत्यक्ष रूप से कोई संबंध नहीं है, लेकिन भारत हमास के खिलाफ उतना खुलकर सामने नहीं आता जितना अमेरिका आता है. इसकी सबसे बड़ी वजह हमास का गाजा पर कब्जा है और गाजा व्यापारिक दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति पर है. क्योंकि, भूमध्य सागर के बिलकुल तट पर स्थित है. स्वेज नहर है जो भूमध्य सागर को रेड सागर से जोड़ती है, जो दुनिया का सबसे बिजी व्यापारिक मार्ग है."
स्वेज नहर से वैश्विक समुद्री व्यापार का 10 फीसदी माल गुजरता है, इनमें ज्यादातर तेल और अनाज होता है.
यह नहर एशिया और यूरोप को जोड़ने वाला शॉर्टकट रास्ता है.
इसके अलावा दूसरा रास्ता अफ्रीका का चक्कर लगाकर केप ऑफ गुड होप के जरिए है, लेकिन उसके लिए जहाजों को अफ्रीका का चक्कर लगाना होता है और उसमें 12 दिन ज्यादा लगते हैं.
इजरायल पर हमास के हमले के बाद पीएम मोदी ने दुख जताया है और हमले की निंदा की. इसके साथ ही उन्होंने इजरायल के समर्थन में खड़े होने की बात कही.
पीएम मोदी के इस ट्वीट बाद से इसके अलग-अलग मायने निकाले जाने लगे हैं.
प्रधानमंत्री मोदी की इस प्रतिक्रिया पर AMU में फैकल्टी मेंबर डॉ. इम्तियाज अहमद का कहना है कि "अगर आप ऐतिहासिक तौर पर देखेंगे तो नेहरू से लेकर मोदी सरकार तक सभी ने फिलिस्तीन के स्वतंत्रता की बात की है. भारत का एक स्पष्ट मत रहा है कि दोनों देशों की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है."
JNU के प्रोफेसर अमित कुमार कहते हैं कि 21वीं सदी की जो डिप्लोमेसी है इसमें कोई भी देश किसी तीसरे देश के लिए किसी दूसरे देश से अपने संबंध खराब नहीं करेगा. आप ईरान का ही उदाहरण ले लीजिए. पीएम मोदी ने इजरायल के समर्थन में खड़े होने की बात कही है. इससे ईरान को नाराज होना चाहिए. लेकिन, ऐसा नहीं है. वैश्विक राजनीति में ईरान कभी भी भारत के साथ संबंध खराब नहीं करेगा.
हमास का दावा है कि उसने इजरायल के खिलाफ 'ऑपरेशन अल-अक्सा फ्लड' शुरू किया है. इस दावे के तहत उसने 5 हजार से ज्यादा रॉकेट दागे हैं, वहीं इजरायल ने इस बात की पुष्टि की है कि हमास के लड़ाके उसके कब्जे वाले इलाकों में घुस गए हैं.
इस स्थिति पर AMU के प्रोफेसर जावेद इकबाल सवाल उठाते हैं. उनका कहना है, "अगर ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है तो इजरायल के उस ‘आयरन डोम’ यानी ‘प्रक्षेपास्त्र रक्षा प्रणाली’ का क्या हुआ जो इजरायल को हवाई हमलों से बचाता है."
JNU के प्रोफेसर अमित कुमार इसमें हमास और इजरायल की छिपी हुई रणनीति पर प्रकाश डालते हैं. अमित कुमार कहते हैं कि पश्चिम एशिया में अशांति की 5 प्रमुख वजहे हैं.
इजरायल पर हमला कर हमास अपनी मजबूती को मिडिल ईस्ट में कायम रखना चाहता है, वह बताना चाहता है कि वह कमजोर नहीं पड़ा है.
हमास चाहता है कि फिलिस्तीनी मुद्दे पर कोई भी देश उसके साथ नेगोसियशन करे.
हमास अरब देशों (ईरान, सीरिया, लेबनान, जॉर्डन, मिस्र) के अखंड फिलिस्तीन की अवधारणा का आगे बढ़ा रहा है. अरब के देश इजरायल के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं.
हमास के इन्हीं हरकतों से इजरायल को फिलिस्तीनी आंदोलन को कुचलने का मौका मिलता है.
हमास ने नेतन्याहू सरकार को दोबारा लोगों के विश्वास हासिल करने का एक मौका दे दिया है. क्योंकि नेतन्याहू सरकार, सुप्रीम कोर्ट की शक्ति को कम करने और न्यायपालिका के नियमों में बदलाव को लेकर आंतरिक रूप से राजनीतिक विरोध का समाना कर रही थी. लेकिन, जब कोई देश संकट में आता है, तो आपसी मतभेद भूलाकर सब साथ आ जाते हैं और इसका फायदा नेतन्याहू को जरूर मिलेगा.
इजराइल पर हमास के हमले के बाद दुनिया दो गुटों में बंट गई है. इजराइल के समर्थन में अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, भारत जैसे बड़े देश हैं, तो वहीं हमास के समर्थन में ईरान, कतर, सीरिया और लेबनाने जैसे उसके पड़ोसी मुल्क हैं. चीन और रूस ने जल्दी सीजफायर करने की और शांति बहाल करने की बात की है.
JNU के प्रोफेस अमित कुमार कहते हैं, "अगर मिडिल ईस्ट में ऐसी ही स्थिति रही तो भारत के इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोपी इकोनॉमिक कॉरिडोर में बाधा जरूर पैदा होगी, क्योंकि मिडिल ईस्ट में शांति लाए बिना ये संभव नहीं होगा."
फिलिस्तीन: भारत हमेशा से फिलिस्तीन को तमाम मंचों पर समर्थन करता आया है. भारत 'फिलिस्तीन मुक्ति संगठन' (PLO) शासन को मान्यता देता है.
1970 के दशक में भारत ने PLO और उसके नेता यासिर अराफात का समर्थन किया था.
इसके अलावा 1975 में भारत ने PLO को मान्यता दी थी, जो ऐसा करने वाला पहला गैर-अरब देश था.
भारत ने 1988 में फिलिस्तीन को एक देश के रूप में औपचारिक तौर पर मान्यता प्रदान की थी.
साल 1996 में भारत ने फिलिस्तीनी राष्ट्रीय प्राधिकरण की स्थापना के बाद गाजा में अपना रेप्रेजेंटेटिव ऑफिस भी खोला था, जो 2003 में 'रामाल्लाह' में शिफ्ट कर दिया गया.
नई दिल्ली में फिलिस्तीनी दूतावास भवन का शिलान्यास अक्टूबर 2008 में अपनी भारत यात्रा के दौरान खुद फिलिस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने की थी.
संयुक्त राष्ट्र की महासभा के 53वें सत्र के दौरान फिलिस्तीन के आत्म निर्णय के अधिकार के प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था.
अक्टूबर 2003 में इजरायल द्वारा एक दीवार के निर्माण के खिलाफ UN के प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था.
2011 में फिलिस्तीन को यूनेस्को का पूर्ण सदस्य बनाने का समर्थन किया था.
इसके अलावा भारत ने 29 नवंबर 2012 को UNGA में फिलिस्तीन को गैर-सदस्य पर्यवेक्षक देश यानी 'बिना वोटिंग के अधिकार के' बनाने के पक्ष में भी मतदान किया था.
2014 में भारत ने गाजा क्षेत्र में इजरायल के मानवाधिकारों के उल्लंघन की जांच के लिए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) के प्रस्ताव का समर्थन किया था.
नवंबर 2019 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक में फिलिस्तीनियों के आत्म-संकल्प के अधिकार से संबंधित प्रस्ताव का समर्थन किया था.
इजरायल: भारत ने 1950 में इजरायल को मान्यता दी थी. हालांकि, 1992 से पहले भारत के इजरायल के साथ कूटनीतिक संबंध नहीं थे. 1992 में पहली बार भारत ने इजरायल के साथ अपने कूटनीतिक संबंधों की शुरुआत की थी. भारत ने कई मौकों पर इजरायल का साथ दिया है.
साल 2015 में UNHRC ने इजराइल के खिलाफ एक प्रस्ताव लेकर आया था, इस प्रस्ताव में गाजा क्षेत्र में इजरायल के मानवाधिकारों के उल्लंघन की जांंच करना शामिल था, लेकिन भारत ने इजराइल के खिलाफ प्रस्ताव पर मतदान नहीं किया था.
ऐसे ही जून 2019 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक परिषद में इजरायल की ओर से पेश किये गए एक निर्णय के पक्ष में मतदान किया, जिसमें एक फिलिस्तीनी गैर-सरकारी संगठन को सलाहकार का दर्जा देने पर आपत्ति जताई गई थी.
19वीं सदी खत्म होने वाली थी और 20वीं सदी का आगाज होने वाला था. इसी वक्त फिलिस्तीन-इजरायल विवाद की भी पृष्ठभूमि पड़ गई. साल 1897 के आस-पास फिलिस्तीनी क्षेत्र में यहूदियों का उत्पीड़न शुरू हुआ. यहूदियों ने अपने इस उत्पीड़न से बचने के लिए एक आंदोलन की शुरुआत की. इस आंदोलन को ‘जायोनी आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है.
जायोनी आंदोलन में यहूदियों को फिलिस्तीनी लोगों के विरुद्ध सफलता मिली और उन्होंने उस क्षेत्र में एक इजरायली राज्य की स्थापना की. तब तक प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत हो गई.
बाल्फोर घोषणा: फिलिस्तीन पर ब्रिटिश नियंत्रण के स्थापित होने के बाद ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश सचिव जेम्स बाल्फोर की अध्यक्षता में एक निर्णय लिया गया. इस निर्णय के तहत यहूदी मातृभूमि की स्थापना करने पर सहमति व्यक्त की गई और यहूदियों के लिए एक देश के गठन की मांग को स्वीकार कर लिया गया. इस घोषणा को इतिहास में ‘बाल्फोर घोषणा’ के नाम से जाना जाता है. इस घोषणा के बाद इजरायल के लिए एक अलग देश के गठन का आधिकारिक आधार तैयार हो गया.
फिलिस्तीन और इजराइल के बीच बढ़ते तनाव के को देखते हुए ब्रिटेन ने इस मुद्दे को 1947 में संयुक्त राष्ट्र संघ के सामने रखा. संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस मुद्दे पर निर्णय लेते हुए फिलिस्तीन के क्षेत्र को दो भागों में विभाजित कर दिया. इसमें से एक हिस्सा अरबों (फिलिस्तीनियों) को और दूसरा हिस्सा यहूदियों को दे दिया गया.
संयुक्त राष्ट्र संघ के इस निर्णय को यहूदियों ने स्वीकार कर लिया और 1948 में इजरायल को स्वतंत्र देश घोषित कर दिया. लेकिन, अरबों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के इस निर्णय को मानने से इनकार कर दिया और इजरायल के खिलाफ जंग का एलान कर दिया.
यहूदी राष्ट्र घोषित होने के बाद ब्रिटेन ने 1948 में फिलिस्तीन से अपनी सेनाएं हटा ली. इसी वक्त चार अरब देशों (मिस्र, इराक, सीरिया और जॉर्डन) ने मिलकर इजरायल पर हमला कर दिया. कड़े संघर्ष के बाद इस युद्ध में इजरायल को विजय प्राप्त हुई और अकेले ही चारों देशों की संयुक्त सेनाओं को मात दी. इस पहले युद्ध के परिणाम स्वरूप यरुशलम का पश्चिमी हिस्सा इजरायल की राजधानी बना था और यरुशलम का पूर्वी हिस्सा जॉर्डन के कब्जे में गया था.
साल 1967 में एक बार फिर से अरब देशों (सीरिया, जॉर्डन और मिस्र) की संयुक्त सेना ने मिलकर इजरायल पर हमला बोल दिया. इजरायल ने 6 दिनों में ही इन तीन देशों की संयुक्त सेनाओं को पराजित कर दिया. इसके साथ ही इजरायल ने जॉर्डन से ‘वेस्ट बैंक’ और ‘पूर्वी यरुशलम’, सीरिया से 'गोलन हाइट्स' और मिस्र से 'गाजा पट्टी’ और ‘सिनाई प्रायद्वीप’ को अपने कब्जे में ले लिया.
हालांकि, 1979 में इजरायल और मिस्र के बीच एक संधि हुई. इस संधि के तहत इजरायल ने 1982 में मिस्र को सिनाई प्रायद्वीप वापस कर दिया और इसके बदले मिस्र ने इजरायल को एक देश के रूप में आधिकारिक तौर पर मान्यता दे दी. उस समय इजरायल को आधिकारिक तौर पर मान्यता प्रदान करने वाला ‘मिस्र’ पहला अरब देश बना था.
साल 2021 में इजरायली सशस्त्र बलों की ओर से यरुशलम में एक मार्च निकाला जाना था. ये मार्च जायोनी राष्ट्रवादियों की ओर से 1967 में पूर्वी यरुशलम पर इजरायल के कब्जे की याद में निकाला जाना था. लेकिन, इससे पहले ही इजरायल के सैनिकों ने पूर्वी यरुशलम के ‘हराम अल शरीफ’ नामक जगह पर स्थित ‘अल अक्सा मस्जिद’ पर हमला कर दिया.
इसके विरोध में हमास ने गाजा पट्टी से इजरायल पर अनेक रॉकेट दागे. इसके जवाब में इजरायल ने भी गाजा पट्टी पर अनेक रॉकेटों से हमला किया. इस दौरान हमास की ओर से किए जाने वाले रॉकेट के हमलों से अपनी सुरक्षा करने के लिए इजरायल ने ‘आयरन डोम’ नामक ‘प्रक्षेपास्त्र रक्षा प्रणाली’ का उपयोग किया था. इससे प्रयोग से इजरायल को हमास के हवाई हमलों से कोई नुकसान नहीं हुआ था.
दरअसल, यरुशलम एक ऐसा पवित्र स्थान है, जो ईसाई, यहूदी और इस्लाम, तीनों ही धर्मों के लिए बहुत अधिक धार्मिक महत्व रखता है.
इजराइल: ‘हिब्रू बाइबल’ यहूदी धर्म की एक पवित्र धार्मिक पुस्तक है. यहूदी धर्म की इस पवित्र धार्मिक पुस्तक में इस बात का उल्लेख किया गया है कि प्राचीन काल में राजा डेविड ने अपने इजराइल साम्राज्य की राजधानी पूर्वी यरुशलम को बनाया था. इसके अलावा, यहूदियों के लिए एक पवित्र धार्मिक संरचना ‘पश्चिमी दीवार’ भी यरुशलम में ही स्थित है. यरुशलम में स्थित इस पश्चिमी दीवार का यहूदियों के लिए अत्यधिक धार्मिक महत्व है.
इस्लाम: यरुशलम में स्थित अल अक्सा मस्जिद मुस्लिमों के मक्का और मदीना के बाद तीसरा सबसे पवित्र स्थल है. इस कारण मुसलमानों की धार्मिक भावना यरूशलम के साथ गहराई से जुड़ी हुई है. यरुशलम में ही इस्लाम धर्म से संबंधित दो अन्य प्रमुख स्थल भी है. इन स्थलों में ‘डोम ऑफ द रॉक’ तथा ‘डोम ऑफ द चैन’ शामिल हैं. यरुशलम में ही ‘टेंपल माउंट’ नामक स्थान है. इस टेंपल माउंट को ‘हराम अल शरीफ’ नामक अन्य नाम से भी जाना जाता है. यह स्थल यहूदी धर्म और इस्लाम धर्म, दोनों के दृष्टिकोण से पवित्र माना जाता है.
ईसाई: यरुशलम में एक पवित्र चर्च स्थित है. इसके अलावा, ईसाइयों की मान्यता के अनुसार ईसा मसीह को यरुशलम में ही सूली पर चढ़ाया गया था और इसी यरुशलम में इनके धार्मिक महत्व से संबंधित एक कब्र स्थल भी स्थित है.
इन तमाम पहलुओं के आधार पर यह स्पष्ट है कि यरुशलम इस्लाम, यहूदी और ईसाई, तीनों ही धर्मों के लिए कितना धार्मिक महत्व रखता है. जहां तक बात रही भारत की तो जानकारों का यही मानना है कि भारत हमेशा से दोनों ही देशों की स्वतंत्रा की वकालत करता रहा है. भारत UN में भी फिलिस्तीन की स्वायत्ता की मांग करता रहा है. ऐसा नहीं है कि इजरायल के समर्थन के बाद भारत फिलिस्तीन की स्वायत्ता पर चुप हो जाएगा. ऐसे जब भी मौके आएंगे तब हर मौकों पर भारत फिलिस्तीन के साथ खड़ा नजर आएगा.
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