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श्रीलंका (Srilanka) आज अपनी आजादी के बाद के सबसे बड़े आर्थिक संकट से गुजर रहा है. हालात यह हैं कि आवश्यक वस्तुएं सेना की मौजूदगी में वितरित की जा रही हैं और आर्थिक आपातकाल की घोषणा की जा चुकी है. पूरे एशियाई महाद्वीप में सबसे अधिक मुद्रास्फीति अभी श्रीलंका में ही है. ये आर्थिक संकट श्रीलंका के इतिहास में दशकों बाद आया है, क्योंकि यहां की सरकार ने विदेशों से लिए गए कर्ज के भुगतान की अनदेखी की है. जिसमें सबसे ज्यादा कर्ज चीन द्वारा दिया गया है.
लेकिन ये हुआ कैसे, आखिर क्यों श्रीलंका चीन (China) के इस जाल में फंसता चला गया? यह समझने की कोशिश करते हैं.
दरअसल श्रीलंका अपनी आर्थिक स्थिरता की उम्मीद में चीनी विदेशी निवेश के आगे झुक गया. इससे आम लोगों के जीवन स्तर में वृद्धि जरूर हुई लेकिन श्रीलंका कई सालों तक चीन पर आश्रित रहा और इसके पीछे चीन के गुप्त उद्देश्यों की बार-बार की चेतावनी को नजरअंदाज करता गया.
सालों से श्रीलंका में काफी चीनी निवेश होने के बावजूद देश सबसे खराब आर्थिक संकटों से जूझ रहा है, श्रीलंका में विदेशी मुद्रा भंडार में कमी आई है. भोजन, फर्टिलाइजर, फ्यूल, बिजली और की कमी और बड़ती कीमतों की वजब से आम आदमी संकट में आ गया है.
इसी साल जनवरी में जब चीन के विदेश मंत्री वांग यी श्रालंका की यात्रा पर आए थे, तब देश के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने उनसे देनदारी को लेकर बातचीत की थी और कहा था की देनदारी को रिस्ट्रक्चर करने की जरूरत है.
देश में चीन का भारी निवेश तो हुआ, लेकिन उसमें खुद श्रीलंका की कोई भागीदारी नहीं रही जो बड़ी समस्या बनकर सामने आई. इन निवेशों के बाद कोई ऐसा रोजगार पैदा नहीं हुआ जो लंबे समय तक लोगों के हाथों में टिका रह सके, जिससे की उनके जीवन पर कुछ असर पड़ सके.
श्रीलंका की सरकार ने अपनी उदारीकरण (लिबर्लाइजेशन) पॉलिसी के तहत 1980 के दशक से विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए अपनी विदेशी निवेश नीतियों में बदलाव किया है और चीन को इसी नीति का भरपूर फायदा पहुंचा, और वह टैक्स देने से बचा रहा. जबकि दूसरी तरफ श्रीलंका आज अपने आजाद इतिहास के सबसे बड़ी आर्थिक संकट के बीच है.
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