Home Photos छत्तीसगढ़ के अचानकमार टाइगर रिजर्व में कैसे गुजरता है लोगों का जीवन? तस्वीरों में देखिए
छत्तीसगढ़ के अचानकमार टाइगर रिजर्व में कैसे गुजरता है लोगों का जीवन? तस्वीरों में देखिए
अचानकमार टाइगर रिजर्व छत्तीसगढ़ के मुंगेली जिले में स्थित है.
दीपान्विता गीता नियोगी
तस्वीरें
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छत्तीसगढ़ के अचानकमार टाइगर रिजर्व में कैसे गुजरता है लोगों का जीवन?
फोटो- Deepanwita Gita Niyogi
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छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) के मुंगेली जिले में स्थित अचानकमार टाइगर रिजर्व में काम करने वाले कर्मचारियों तथा आसपास के गांवों के लोगों की जिंदगी आसान नहीं है. रिजर्व के आसपास 19 गांवों में रहने वाले कई लोग बिलासपुर और कोटा जैसे शहरों में भी कभी नहीं गए हैं. कुछ लोग अपने गांव से बाहर जाना चाहते हैं, लेकिन कई बाधाओं के कारण वे लोग नहीं जा पाते हैं. यहां की सड़कों में बरसात के दिनों में गाड़ी चलाना चुनौतीपूर्ण हो जाता है. तस्वीरों में देखें यहां के लोगों को किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है.
भीमसेन नापित छत्तीसगढ़ के अचानकमार टाइगर रिजर्व के अंदर शिवतराई वन चेकपोस्ट पर सुबह की शिफ्ट के प्रभारी हैं. चेकपोस्ट से सड़क अमरकंटक की ओर जाती है, जहां से नर्मदा का उद्गम होता है. नेपित की ड्यूटी का समय सुबह 10 बजे से रात 8 बजे तक है. उन्होंने बताया, "कई लोग इस रास्ते का उपयोग करते हैं, इसलिए उनकी गाड़ियों का निरीक्षण किया जाता है.
(फोटो- दीपान्विता गीता नियोगी)
रिजर्व के आसपास 19 गांवों में रहने वाले कई लोग बिलासपुर और कोटा जैसे शहरों में भी नहीं गए हैं. कुछ लोग अपने गांव से बाहर जाना चाहते हैं, लेकिन कई बाधाओं के कारण वे नहीं जा पाते हैं.
(फोटो- दीपान्विता गीता नियोगी)
रिजर्व के जंगली रास्ते में छह चेकपोस्ट हैं. शिवतराई के बाद बारीघाट, अचानकमार, छपरवा, लमनी और केओची में चेकपोस्ट हैं. चेकपोस्ट पर स्टाफ वायरलेस की मदद से सहकर्मियों से संपर्क करते हैं और कोड वार्ड का इस्तेमाल करते हैं.
(फोटो- दीपान्विता गीता नियोगी)
छपरवा चेकपोस्ट पर स्थानीय बसें रुकती है ताकि यात्री जलपान (नास्ता) कर सकें. मानसून में जंगल का रास्ता निजी वाहनों के लिए बंद हो जाता है. केवल गांवों के अंदर रहने वालों को ही बसों में यात्रा करने की अनुमति है, जो स्थानीय लोगों के लिए लाइफलाईन हैं. दिनेश्वर सोनवानी नाम के एक बस कंडक्टर ने कहा, “इस मार्ग पर गाड़ी चलाना चुनौतीपूर्ण है क्योंकि सड़क अच्छी स्थिति में नहीं है. कभी-कभी बस एक तरफ से दूसरी तरफ झुक जाती है और भारी बारिश के कारण सड़क फिसलन भरी हो जाती है.'' दिनेश्वर जिस बस पर काम करते हैं वह लगभग 70 किमी दूर बिलासपुर शहर से आती है.
(फोटो- दीपान्विता गीता नियोगी)
यात्री अल्प विश्राम के दौरान छपरवा चेकपोस्ट के रास्ते पर एक स्थानीय ढाबा में भोजन करते हैं.
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टाइगर रिजर्व के अंदर अचानकमार गांव का एक दृश्य. यह रिजर्व के सबसे बड़े गांवों में से एक है. जिसके कारण अचानकमार एक महत्वपूर्ण चेकपोस्ट बन गया है.
(फोटो- दीपान्विता गीता नियोगी)
पर्यटक गाइड कुशल तिरवानी ने कहा कि वह सफारी के दौरान जिप्सी शैली के वाहनों में टूरिस्ट के साथ जाते हैं. उन्होंने कहा, “यहां पर्यटन अभी भी ठीक से गति नहीं पकड़ पाया है. अन्य बाघ अभ्यारण्यों में पर्यटन पर अधिक ध्यान दिया जाता है.'' उनके मुताबिक बिलासपुर से ऑफबीट यात्री और स्थानीय लोग ही अचानकमार आते हैं.
(फोटो- दीपान्विता गीता नियोगी)
टाइगर रिजर्व के अंदर चलने वाली बसों में से एक बस के अंदर का दृश्य.
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छपटवा चेकपोस्ट पर तैनात एक स्टाफ. भारी बारिश के दौरान भी कर्मचारी रिजर्व में काम करते हैं.
(फोटो- दीपान्विता गीता नियोगी)
बारीघाट चेकपोस्ट के एक स्टाफ नेपित ने बताया, ड्यूटी पर तैनात लोगों के लिए जीवन आसान नहीं है. नेपित ने कहा कि 2014 में यहां कोई कंक्रीट की इमारतें नहीं थी. कर्मचारी बांस के ढांचे के अंदर बैठते थे, जैसा कि बारीघाट में अभी भी मौजूद है. बिस्तरों की कमी के कारण हम न सो सकते थे और न ही आराम कर सकते थे.
(फोटो- दीपान्विता गीता नियोगी)
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रिजर्व में कभी-कभी भारी बारिश के दौरान वायरलेस सर्विस काम करना बंद कर देती है या वायरलेस की आवाजें अस्पष्ट हो जाती हैं. ऐसे समय में वहां के स्टाफ किसी भी सामानों की डिलीवरी के लिए मैसेज वाहनों के द्वारा भेजते हैं
(फोटो- दीपान्विता गीता नियोगी)
अचानकमार में भारी बारिश से पहले बादल छाए हुए हैं.
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वायरलेस सर्विस पूरे बाघ अभयारण्य में मौजूद है.
(फोटो- दीपान्विता गीता नियोगी)
एक स्टाफ अचानकमार चेकपोस्ट में ड्यूटी करता हुआ.
(फोटो- दीपान्विता गीता नियोगी)
अचानकमार के एक गांव में एक आदिवासी महिला झाड़ू बनाते हुए.
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पकौड़े और न्यूज पेपर बारिश के दिनों में स्टाफ सदस्यों का साथ देते हैं.
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टाइगर रिजर्व में भारी बारिश.
(फोटो- दीपान्विता गीता नियोगी)
बसों के आने-जाने के लिए एक सड़क. इन रास्तों में सफर करने वाले एक ओरांव आदिवासी व्यक्ति हबलू एक्का ने कहा, वह महीने में एक बार अपने बेटे से मिलने के लिए बसों पर निर्भर रहते हैं. एक्का का 14 साल का बेटा एक हॉस्टल में रहता है. वह महीने में एक बार उससे मिलने के लिए 300 रुपये खर्च करते हैं. एक्का ने आगे कहा कि बस से उतरने के बाद उन्हें घर पहुंचने के लिए तीन किमी पैदल चलना पड़ता है.
(फोटो- दीपान्विता गीता नियोगी)
एक बस के अंदर हबलु एक्का और उर्मिला नाम की एक महिला. उर्मिला ने बताया कि कोटा के गोबरीपत गांव तक पहुंचने के लिए वह अक्सर बस सेवा पर निर्भर रहती हैं. जिसका किराया 40 रुपये है. जिनके पास बाइक नहीं है वे बस से यात्रा करते हैं. बस में औसतन 25-30 यात्री होते हैं और कभी-कभी यह 40 तक पहुंच जाता है. कई बार बारिश के कारण बसें बीच रास्ते में ही रुक जाती हैं.