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TRP के बोझ तले दबी पत्रकारिता के लिए ये हंगामा, नई शुरुआत है!

कहीं टीआरपी की रेस में दौड़ते दौड़ते हम पत्रकारिता को पीछे तो नहीं छोड़ आए हैं?

फ़बेहा सय्यद
पॉडकास्ट
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कहीं टीआरपी की रेस में दौड़ते दौड़ते हम पत्रकारिता को पीछे तो नहीं छोड़ आए हैं?
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कहीं टीआरपी की रेस में दौड़ते दौड़ते हम पत्रकारिता को पीछे तो नहीं छोड़ आए हैं?
फोटो: क्विंट हिंदी/श्रुति माथुर 

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रिपोर्ट: फबेहा सय्यद
इनपुट्स: अंकिता सिन्हा
न्यूज एडिटर: अभय कुमार सिंह
म्यूजिक: बिग बैंग फज

मीडिया के बाजार के खरीदार यानी कि एडवरटाइजर टीआरपी देखकर रेट तय करते हैं. मुनाफे और लोकप्रियता की रेस में पत्रकारिता कहां पर खड़ी है, इसपर देशभर में बहस चल रही है. सबके अपने-अपने सच और घड़े गढ़े गए तर्क हैं. लेकिन टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट का जो घोटाला सामने आया है, उसके बाद से न्यूज चैनलों की जमकर किरकिरी हो रही है. पैसा देकर चैनल दिखाने और टीआरपी कमाने के इस धंधे का भंडाफोड़ करने का दावा किया मुंबई पुलिस ने. TRP के साथ इस छेड़छाड़ में रिपब्लिक टीवी और दो मराठी चैनलों के नाम सामने आए हैं और चार की गिरफ्तारी हो चुकी है. रिपब्लिक टीवी के सीईओ और सीओओ समेत बाकी दूसरे चैनलों के कर्मचारियों से पूछताछ हो रही है.

लेकिन आज इस पॉडकास्ट में इस खबर से जुड़े एक बड़े मुद्दे पर बात करेंगे -  कहीं टीआरपी की रेस में दौड़ते दौड़ते हम पत्रकारिता को पीछे तो नहीं छोड़ आए हैं? अगर हां, तो क्या सुधार का कोई रास्ता बचा है हमारे लिए? सुनिये पॉडकास्ट.

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