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कोरोना काल का अकेलापन, हमें बिगाड़ेगा या संवारेगा?  

“त्रासदी का समय है, हम सबकी मेंटल हेल्थ एकदम डिस्टर्ब है”

प्रतिभा कटियार
ब्लॉग
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इस त्रासदी में सभी की मेंटल हेल्थ पर काफी असर पड़ा है
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इस त्रासदी में सभी की मेंटल हेल्थ पर काफी असर पड़ा है
(फोटो: iStock)

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स्काटलैंड की सड़कों पर घूमते हुए मिली थी वह महिला. वो शदीद दुख से भरी थी. उसने हाल ही में अपना बच्चा खोया था. वो खाली बच्चा गाड़ी के पास उदास बैठी थी. हम सड़कों पर यूं ही घूम रहे थे. हम दोनों एक-दूसरे के लिए अनजान थे. उसने भीगी पलकों से मुझे देखा और मुस्कुरा दी. मैंने उसके चेहरे पर दुख, शांति और अपनेपन की मिली-जुली छाया देखी. उस महिला की उस भीगी हुई मुस्कुराहट ने मुझे आज तक थाम रखा है.

दुःख बहुत गाढ़ी चीज होता है. यह हम सबको मांजता है, ज्यादा मनुष्य होने की तरफ प्रेरित करता है. हाथ थामता है, अपनेपन से भर देता है. आज पूरी दुनिया एक से दुःख, एक से भय और पीड़ा से गुजर रही है.

लेकिन क्या हम ज्यादा अपनेपन से भर उठे हैं. क्या हमारे रिश्ते पहले से ज्यादा मीठे हुए हैं? क्या हमने उन्हें जी भरके याद किया जो हमसे नाराज हुए बैठे हैं, क्या हमने अपने तमाम पूर्वाग्रहों को छोड़, तमाम गिले शिकवे भुलाकर लोगों को अपनेपन से भर दिया है?

मेंटल हेल्थ पर सबसे ज्यादा असर

हम ऐसे हालात में हैं जिसकी किसी ने कल्पना में भी कल्पना नहीं की थी. हममें से किसी को कुछ पता नहीं है कि क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए. इसकी जद में दुनिया भर की सरकारों, डाक्टरों समेत हर व्यक्ति आता है. मैं भी आती हूं, इसे पढ़ते हुए आप भी आते हैं.

त्रासदी का समय है. हम सबकी मेंटल हेल्थ एकदम डिस्टर्ब है. लेकिन हम इसे समझ नहीं पा रहे हैं. कभी खुद को खुश रखने के लिए गार्डनिंग करने लगते हैं, गाने सुनने लगते हैं. वर्क फ्रॉम होम में खुद को पहले से ज्यादा झोंककर महसूस करते हैं कि भला हुआ काम ने हमें बचा लिया. कभी रसोई में एक्सपेरिमेंट करने लगते हैं, कभी योगा, एक्सरसाईज, पढ़ना-लिखना. दोस्तों से बात करते हैं. उन दोस्तों के हाल चाल पूछते हैं जो स्लीपिंग मोड में पड़े थे. किसी का टूट रहा था हौसला तो उसे हिम्मत बंधा रहे होते हैं.

फिर...अचानक...सब बिखरने लगता है. और शाम तक आते-आते फूट-फूट कर रो पड़ते हैं. सब लोग तो हैं आसपास फिर भी एक अजीब सा अकेलापन काटने को आता है.

मनोवैज्ञानिक कहते हैं यह बिलकुल अलग अनुभव है. हर किसी के भीतर बहुत से बदलाव हो रहे हैं. बहुत मंथन चल रहे हैं. लोग बाहर के काम, व्यवहार, सेहत आदि पर तो काम कर रहे हैं, लेकिन भीतर की दुनिया में चल रही इस हलचल को दुनिया में कभी स्पेस नहीं मिला, आज भी नहीं मिल पा रहा. हमारी समझ ही नहीं है कि इस बात की कि अगर व्यक्ति के भीतर की दुनिया ठीक नहीं होती तो टेक्निकली तो सब ठीक हो भी जाता है, लेकिन असल में कुछ भी ठीक नहीं होता.

यह टेक्निकली ठीक होना है किसलिए, इंसानों के लिए ही न, इंसानों के स्वस्थ रहने और खुश व शांत रहने के लिए, एक-दूसरे को महसूस करने के लिए. लेकिन ऐसा हो क्यों नहीं रहा? जब हम किसी से पूछते हैं, “तुम ठीक हो न? सब ठीक है न?” तो उत्तर में प्रतीक्षा होती है कि सामने वाला हां ही कहे, कहीं दुखड़े लेकर न बैठ जाए. और उस हां में सैनिटाइजर होना, तबियत ठीक होना, घर में रहना, घर में पर्याप्त राशन होना भर होता है.

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अंदर ही अंदर सब टूट रहे हैं

एक रोज मुझसे किसी ने पूछा, “सब ठीक है न?” और “हां” कहने के बाद मैं फफक कर रो पड़ी. जानती हूं सुनने वाले को सिर्फ हां में दिलचस्पी थी. भीतर ही भीतर हम सब टूट रहे हैं, जैसे कुछ खो रहा है. हम सबको सबसे पहले एक-दूसरे के प्रति संवेदनाएं बढ़ानी थीं, महसूस करना बढ़ाना था लेकिन हमने तकनीकी तौर पर हालचाल भर लेकर काम चला लिया.

काम तो हो जाते हैं सारे, घर के भी, बाहर के भी, लेकिन हम जो लगातार अकेले पड़ते जा रहे हैं उसका क्या? हम जो एक-दूसरे को महसूस नहीं कर पा रहे हैं उसका क्या? बस कि एक आवाज की दूरी पर तो थे हम, लेकिन यह जो हमारे बीच सदियों का सा फासला गहराता जा रहा है इसका क्या बुखार होता तो बता देती लेकिन इस उदासी को कैसे बताऊं, किसे बताऊं? कैसे बताऊं कि नींद खुल जाती है रात में, कि काम करते-करते रोती जाती हूं. काम वक्त पर पूरा हो जाता है, मैं टूटकर बिखर जाती हूं.

जिस समाज में लोग भूख से बिलख रहे हों, जिस दौर में पूरी दुनिया मौत के एक वायरस से लड़ने की खातिर घरों में कैद हो, उस दौर में कोई भी व्यक्ति सामान्य मनस्थिति में तो नहीं होगा... क्या हम अपने होने से एक-दूसरे को हील (भर) कर पा रहे हैं. क्या बिना किसी को जज किए कह पा रहे हैं एक-दूसरे से कि जरा तुम अपना हाथ देना...कि हम साथ हैं, परेशान न हो.

इतिहास साक्षी है इस बात का कि ऐसी महामारियों के दौर में लोगों की टूटन बढ़ी है, अकेलापन बढ़ा है. जब टूटन बढ़ती है तो बढ़ती है असुरक्षा, अविश्वास. शायद इस दौर में सबसे पहले और सबसे ज्यादा हमें अपनेपन को बढ़ाने पर, एक-दूसरे को महसूस करने पर काम करना चाहिए. सोचना चाहिए कि क्या हम इतने निर्मल, इतने मीठे हो सके हैं कि हमारा होना ही हमारे आसपास के लोगों को अच्छा महसूस कराए, राहत दे. हम सबको ज्यादा मनुष्य होने की जरूरत है... अभी यह लंबी लड़ाई है. लॉकडाउन खत्म भी हो जाएगा लेकिन जंग जारी रहेगी...

तकनीक ने हमें जोड़ तो रखा है लेकिन एक-दूसरे से मन से जुड़ने की तकनीक तो हमें खुद ही ईजाद करनी होगी.

(लेखिका युवा साहित्यकार हैं. लंबे समय तक पत्रकारिता से जुड़े रहने के बाद इन दिनों सोशल सेक्टर में कार्यरत हैं)

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