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लंबे लॉकडाउन का एक अच्छा साइड एफेक्ट हुआ है. उन दोस्तों से बात करने का मौका मिला जो कब के बिछड़ गए थे. मेरे लिए सबसे सुखद अनुभव रहा करीब 30 सालों बाद अपने स्कूल के दोस्तों से जुड़ना, जिसमें काफी लड़कियां भी हैं. यह सामाजिक क्रांति से कम नहीं है, क्योंकि स्कूल के दिनों में कभी भी उनसे बात नहीं हुई.
हमारे स्कूल में लड़के और लड़कियों की दुनिया बिल्कुल अलग हुआ करती थी. कुछ भी कॉमन ग्राउंड नहीं था. लेकिन तीस साल बाद काफी आत्मियता है, जोक्स शेयर हो रहे हैं, एक-दूसरे का खुलकर मजाक भी उड़ाया जा रहा है. और सबकुछ अच्छे और स्वस्थ माहौल में हो रहा है.
अपने दोस्तों और दूसरे करीबियों का ध्यान मैंने कई मुद्दों पर लाने की कोशिश की. कुछ मुद्दे इस तरह के हैं:
उनके हिसाब से अर्थव्यवस्था को दुरूस्त करने का सरकार के पास जरूर एक प्लान है जो हमें पता नहीं है. कोरोना से लड़ने के लिए टेंस्टिंग कम करना है या ज्यादा, ये सारे डिटेलिंग के मामले हैं, जिसको कभी भी एडजस्ट किया जा सकता है. इन मसलों पर बाल की खाल निकालना सही नहीं है.
कुछ आंकड़े भी यही बताते हैं कि लॉकडाउन का पालन करने में देश पूरी तरह से पीएम का साथ दे रहा है. गूगल का आंकड़ा है कि लॉकडाउन के ऐलान के बाद अपने देश में सार्वजनिक जगहों पर जाने में जितनी कमी हुई वो दुनिया में सबसे ज्यादा में से एक है. जिन शहरों को जुड़वा माना जाता है- दिल्ली-गाजियाबाद और मुंबई-ठाणे उनमें शामिल है- उनमें ट्रैंफिक की आवाजाही बिल्कुल बंद है.
9 बजे- 9 मिनट का पीएम का जो आह्वान था, उसका पूरी तरह से पालन हुआ और इसका सबूत ये है कि उस दिन बिजली में मांग में करीब 25 परसेंट तक की कमी आई. इन सारे आंकड़ों को देखकर लगता है कि प्रधानमंत्री ने देश के लोगों को जो भी कहा उसका पूरी तरह से पालन हुआ है. काफी दिक्कतों के बावजूद भी.
आखिर ऐसा क्यों है कि मुश्किल दौर में मोदी जी की लोकप्रियता और भी काफी बढ़ जाती है. हमने नोटबंदी के समय में भी देखा था कि सारी मुसीबतों को झेलने के बावजूद लोग उस फैसले के साथ थे. नौकरियां गईं, शादियां टलीं, इलाज कराने में दिक्कत हुई, कुछ जानें भी गईं, लेकिन लोगों ने पीएम के फैसले का पूरा साथ दिया. इसकी क्या वजह हो सकती है?
ऐसा नहीं है कि मेरे पास इसका पूरा जवाब है. मेरा अनुमान है कि पीएम मोदी उस व्यवस्था के विरोधी ताकतों का प्रतिनिधित्व करते नजर आते हैं, जो उनके कार्यकाल से पहले तक चल रहा था. दार्शनिक कार्ल मार्क्स के शब्दों में 2014 से पहले की व्यवस्था अगर थी, तो मोदी जी उसके एंटी थीसीस नजर आते हैं. पुरानी व्यवस्था इलिलिस्ट थी, अंग्रेजीदां को तरजीह देती थी, एक बड़े तबके की आवाज को ज्यादा नहीं सुना जाता था जो अंग्रेजीदां नहीं था.
मोदी जी ने उन तबकों को आवाज दी जिनकी बातें नहीं सुनी जाती थी. आप तरीके पर सवाल उठा सकते हैं, लेकिन मोदी जी की मुहिम एक लोकतांत्रिक मुहिम है. प्रधानमंत्री उस व्यवस्था को बदलने में लगे हैं और इस बदलाव में दर्द तो होगा ही.
भारतीय परंपरा में तपस्या का भारी महत्व है और तप में मुश्किलों का सामना होता ही है. इसके बाद ही तो मनचाहा फल मिलता है. और देश के लोग पीएम के साथ तपस्या को तैयार हैं. और ऐसा होता हुआ हम बारबार देख रहे हैं.
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Published: 23 Apr 2020,08:40 AM IST