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मैं एक यंग रिसर्च स्टूडेंट थी जब मैं सबसे पहले वरवर राव से मिली थी. यह 2018 की गर्मियों की बात है. मैं तेलंगाना के सामाजिक आंदोलनों और महिलाओं के एक्टिविज्म पर काम कर रही थी. हैदराबाद पहुंचने के कुछ ही हफ्तों के बाद मुझे वरवर राव, या जैसे उन्हें एक्टिविस्ट्स और बुद्धिजीवी अक्सर बुलाते हैं, वीवी के बारे में पता चला.
एक महिला संगठन की सदस्य से बातचीत करने के बाद मैंने उनसे मिलने का फैसला किया. वह पुराने हैदराबाद के एक अपार्टमेंट में रहते थे. मैंने वहीं उनसे मिलने पहुंची. आगे मैं आपको जो बता रही हूं, उसी मुलाकात का एक छोटा सा हिस्सा है.
मैं दोपहर 11 बजे उनके घर पहुंची. आम तौर पर इस कद के किसी व्यक्ति से मिलने से पहले मैं थोड़ा डरी हुई होती हूं, खुद पर ही संदेह होता है. उस दिन भी ऐसे ही भाव मन में थे.
उनकी पत्नी हेमलता हमारे साथ बैठी हुई थीं. हमें बड़े गौर से, उत्सुकता के साथ देख रही थीं. पर हम अंग्रेजी में बातचीत कर रहे थे, वह बहुत ज्यादा नहीं बोल रही थीं. वीवी बहुत नरम, लेकिन दृढ़ स्वर में बात कर रहे थे. भाषा पर उनकी पकड़ से साफ पता चलता था कि वह वारंगल में कितने शानदार लेक्चरर रहे होंगे, जहां वह तेलुगू भाषा और साहित्य पढ़ाते थे. उनकी बातचीत में कभी कविताओं की पंक्तियां आ जातीं, तो कभी इतिहास का जिक्र होता.
वह मार्क्स, थॉम्पसन, मार्केज और यहां तक कि महाभारत का कुछ इस तरह हवाला दे रहे थे, कि मुझे पक्का यकीन था कि वह उनके टेक्स्ट और उनके लेखकों से अच्छी तरह वाकिफ हैं. तेलंगाना में लोगों के संघर्ष पर चर्चा शुरू हुई तो हम जीवन, उसकी त्रासदियों और अचंभों पर भी बातचीत करने लगे. खासकर फिलॉसफर के तौर पर हिंसा और उन ज़ुल्मों पर जिनका उन्होंने सामना किया है.
हिंसा वीवी के लिए कोई नई बात नहीं. बीते सालों में वरवर राव को कई संगठनों की तरफ से धमकियां मिल चुकी हैं, चाहे वह सरकार समर्थित माओवाद विरोधी अर्ध सैन्य बल हों या दक्षिण पंथी. इसी के चलते वह दो बार अपने घर बदल चुके हैं- पहले वारंगल से हैदराबाद और फिर तेलंगाना से. उन्हें कई बार हत्या की धमकियां मिल चुकी हैं. फिर भी आज तक वह निडर भाव से दबे-कुचले और वंचित लोगों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं- अपनी मार्क्सवादी विचारधारा पर कायम हैं.
जब मैंने उनसे पूछा कि हिंसा पर उनकी क्या राय है तो उन्होंने कहा:
वरवर राव की यह टिप्पणी एक दुखद विडंबना ही है. दो साल पहले उन्होंने राज्य प्रायोजित हिंसा की बात की थी, उसे हम आज जीवंत रूप में देख सकते हैं. आज उन्हें तकलीफदेह मानसिक और शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ रहा है.
जब सिस्टम बेनाम और बेआवाज आवाम को तैयार करने के लिए संस्थागत हिंसा पर उतर आए (जैसे यूएपीए के तहत मनगढ़ंत मामलों में अधिक से अधिक लोगों को गिरफ्तार करना) तो क्या यह जरूरी नहीं हो जाता कि हम सब इन लोगों की ओर से इस दमन के खिलाफ आवाज उठाएं?
राज्य सिर्फ वरवर राव के खिलाफ हिंसा नहीं कर रहा, हिंसा सिर्फ एक व्यक्ति के खिलाफ होती भी नहीं. पीड़ा जेल की दीवारों से रिसती हुई सामाजिक संबंधों में घुलती जाती है. ऐसा हर बार हुआ, जब भी उन्हें गिरफ्तार किया गया. वरवर राव ने मुझे बताया था कि उन्हें सरकार ने तीन बार तंग किया है. मई 1974- अप्रैल 1975 के दौरान सिकंदराबाद कॉन्सपिरेसी केस में उन्हें गिरफ्तार किया गया था. फिर 21 महीने के लिए इमरजंसी के समय और 1985-89 के दौरान टाडा के तहत उन्हें गिरफ्तार किया गया था.
उन्होंने मुझसे कहा था:
वीवी जब हेमलता और अपने परिवार के बारे में बात कर रहे थे, तो उनकी आवाज में वह गर्व और स्नेह, दोनों थे. पर एक दर्द भी था कि वह अपना ज्यादा समय उन्हें नहीं दे पाए. वह बहुत निर्भीक तरीके से भीमा कोरेगांव मामले और अपनी संभावित गिरफ्तारी के बारे में बात कर रहे थे, पर हेमलता के लिए उनके मन में मौजूद पीड़ा साफ देखी जा सकती थी.
हमारी मुलाकात के दो हफ्ते के बाद उन्हें भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा के सिलसिले में यूएपीए के तहत गिरफ्तार कर लिया गया. ऐसे बहुत से लोग हैं जो वरवर राव के बारे में ज्यादा विस्तार से बता सकते हैं और मैं यह दावा नहीं करती कि मैं उन्हें बहुत अच्छी तरह से जानती हूं. मैं सिर्फ इतना कहना चाहती हं कि मैं उनके मार्गदर्शन और स्नेह की हमेशा आभारी रहूंगी. एक संक्षिप्त सी मुलाकात में मैंने उन्हें जाना था. जब वीवी की सेहत बिगड़ रही है, वह अपने परिवार, अपनी बीवी से दूर हैं, तो उनके ये शब्द मेरे कानों में गूंज रहे हैं:
मैं इन पक्षियों को नहीं देखता,
आकाश में उड़ते हुए
शाम का सन्नाटा
हवालात में पसरा हुआ है
मैं सिर्फ कबूतरों को कोने में मंडराते हुए देखता हूं
दृढ़ विश्वास से गरमाइश से भरे ताजा हवा के झोंके
इन दीवारों के भीतर बाहर नहीं बहते
मैं पुरानी स्मृतियों में गोते लगाते हुए,
पंख लगी चिट्ठियों की लालसा करता हूं
जो विचारों के पिघलने से अवरुद्ध है
जो न हिलने की हठ कर रही हैं
- वरवर राव, कैप्टिव इमैजिनेशन: लेटर्स फ्रॉम प्रिजन (2010)
आज मैं दुख से रो नहीं रही, मैं गुस्से से भरी हुई हूं- जिस तरह राज्य एक कलाकार, एक क्रांतिकारी, और उससे भी अधिक एक कॉमरेड, एक गुरु पर घोर अत्याचार कर रहा है.
आज वरवर राव, और उनसे भी पहले बहुत से लोगों की तरह, मैं भी अपने शब्दों के जरिए अपना विरोध जता रही हूं और एकजुटता दिखा रही हूं. मुझे उम्मीद है कि आप तक मेरी आवाज पहुंच रही होगी.
(ज़ीना ओबराय यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड के डिपार्टमेंट ऑफ इंटरनेशनल डेवलपमेंट (ओडीआईडी) से डेवलपमेंट स्टडीज़ में एमफिल हैं. फिलहाल वह RISE (रिसर्च ऑन इंप्रूविंग सिस्टम्स ऑफ एजुकेशन) में रिसर्च कंसल्टेंट हैं और वहां वह बिहार की शिक्षा नीति पर काम करती हैं. वह @OberoiZeena पर ट्वीट करती हैं. यह एक व्यक्तिगत ब्लॉग है और यहां व्यक्त विचार लेखिका के स्वयं के हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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