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यह वो खेल है जिसमें ऑस्ट्रेलिया-साउथ अफ्रीका सेमीफाइनल के कारण 1999 के वर्ल्ड कप को क्रिकेट के सबसे यादगार वर्ल्ड कप के लिए चुना गया.
एक समय में भारत को जीतने के लिए 62 गेंदों पर 62 रनों की जरूरत थी. सिर्फ दो ओवर् पहले ही पांचवे विकेट के रूप में धोनी आउट हुए थे. इसके बाद, उस शाम पहली बार ऐसा हुआ कि जितने रन चाहिए थे, उतनी ही गेंदें फेंकी जानी बाकी थीं. अगला विकेट गिरने के साथ ही पुछल्ले बल्लेबाजों का क्रम शुरू होना था.
यदि 2011 वर्ल्ड कप के किसी शानदार अंत वाले पल के मामले में कोई लम्हा वास्तव में खास था, तो वह यही शानदार क्षण था.
2015 में स्टार्क ने तीन नॉकआउट मैचों में से हर एक में दो विकेट झटके थे. इसमें से हर बार एक विकेट निचले क्रम का था, जब उनकी टीम पूरी तरह हावी हो चुकी थी. हर बार दूसरे गेंदबाज ने उनके मुकाबले ज्यादा बड़ा फर्क डाला.
इसमें भी खास बात ये है कि स्टीव स्मिथ ने तीन नॉक-आउट मैचों में हर बार शुरुआती विकेट गिरने के बाद तीसरे नंबर पर आकर एक शतक और दो अर्धशतक लगाए. स्मिथ को मैन ऑफ द टूर्नामेंट का पुरस्कार नहीं दिया जाना क्रिकेट पारखियों की एक और खास चूक है.
दूसरा सेमी फाइनल (न्यूज़ीलैंड-पाकिस्तान) मैच अपने आप में एंटी-क्लाइमेक्स बन गया था, क्योंकि मैच के दौरान नाटकीय अंदाज में परिस्थितियां बदल गई थीं, और फाइनल तो और भी ज्यादा खराब था क्योंकि जिस तरह से पाकिस्तान ढ़ेर हुआ था, वो अब तक का सबसे खराब फाइनल है (जो बमुश्किल 59 ओवर्स तक चला). बड़े संदर्भ में इन चीजों का आंकलन भी नहीं किया गया.
किसी भी टूर्नामेंट में प्रतिस्पर्धा के स्तर का फैसला करने के दो तरीके हैं. पहला, कितने मैचों में करीबी मुकाबले हुए या कम से कम टूर्नामेंट के आखिरी दौर में यानि नॉक आउट राउंड में कितने रोमांचक या नाटकीय मैच हुए. दूसरा, पूरे टूर्नामेंट में कितने मैचों में करीबी मैच हुए.
यह पहला वर्ल्ड कप था जिसमें क्वार्टर फाइनल्स थे, इसलिए सभी को मिलाकर सात नॉकआउट मैच हुए और हर मैच नाटकीय और दिलचस्प रहा.
पहले क्वार्टर फाइनल में सनथ जयसूर्या की टी-20 जैसी पारी (236 रनों का पीछा करते वक्त 44 गेंदों पर 82 रन) उस दौर में बहुत दुर्लभ थी, जिसने इंग्लैंड को बड़ा झटका दिया. ये पहला संकेत था कि श्रीलंका सिर्फ कुछ उलट-फेर करने के बजाए, बड़े मकसद से टूर्नामेंट में आई थी.
बैंगलोर में भारत-पाकिस्तान क्वार्टर फाइनल आज तक वर्ल्ड कप के किसी भी मैच में से सबसे नाटकीय मैच है. भले ही भारत अंत में आसानी से जीत गया हो. वहीं, तीसरे क्वार्टर फाइनल में ब्रायन लारा ने शानदार शतक लगाया, जिसका पीछा करते हुए दक्षिण अफ्रीका एक समय 3 विकेट खोकर 186 रन बना चुका था और उसके बाद दिखा था अफ्रीका का वो “चोकर” रूप. चौथे क्वार्टर फाइनल में न्यूजीलैंड ने उस दौर के लिहाज से 286 रनों का विशाल टारगेट दिया था, लेकिन मार्क वॉ की फेमस सेंचुरी ने ऑस्ट्रेलिया की राह आसान कर दी.
पहले सेमीफाइनल में जब श्रीलंका की स्थिति सही नहीं थी, तो अरविंदा डिसिल्वा ने वर्ल्ड कप इतिहास की सबसे जुझारू पारियों में से एक खेली. उन्होंने सिर्फ 47 गेंदों पर 66 रन बनाए और टीम के 85 रनों के स्कोर पर चौथे विकेट के रूप में आउट हुए, लेकिन इसके बाद परिस्थितियां नाटकीय तरीके से बदलीं और श्रीलंका ने 251 तक स्कोर पहुंचाया. स्कोर का पीछा करते हुए भारत 98 रनों पर 1 विकेट के नुकसान पर आरामदायक स्थिति में था, तभी अचानक 22 रनों के अंतराल में भारत ने 7 विकेट गंवा दिए और कोलकाता के दर्शकों का गुस्सा स्टेडियम में दिखा. उस शर्मनाक स्थिति के कारण मैच रोक दिया गया और श्रीलंका की झोली में गया.
लाहौर में फाइनल मैच भी कुछ देर तक ऐसे ही चलता रहा. ऑस्ट्रेलिया की टीम एक समय 1 विकेट पर 137 पर थी, लेकिन इसके बावजूद सिर्फ 241 रन ही बना पाई. श्रीलंका भी 23 रन पर 2 विकेट गंवा चुकी थी, लेकिन इसके बाद डिसिल्वा की ऐतिहासिक सेंचुरी और रणतुंगा की आक्रामक बल्लेबाजी की बदौलत श्रीलंका ने वापसी की.
एक के बाद एक लगातार सात नॉक आउट मैचों में देखने को मिला नाटकीयता का ये स्तर इसके पहले या बाद के वर्ल्ड कप में दोहराया नहीं गया. श्रीलंका की ये जीत उस समय का बड़ा उलटफेर था.(हालांकि जिन्होंने उस दौर के क्रिकेट को सही से देखा होगा, उनके लिए ऐसा नहीं था)
दो नॉक आउट मैच, जिनमें भारत शामिल रहा बहुत ही रोमांचक रहे, सिर्फ इसलिए नहीं कि जीत का अंतर कम था, बल्कि इसलिए क्योंकि विजेता अप्रत्याशित थे.
1987 के रिलायंस वर्ल्ड कप के दोनों सेमीफाइनल रोमांचक रहे. हार-जीत के अंतर के मुकाबले चौंकाने वाले नतीजों के कारण क्योंकि टूर्नामेंट की सबसे बेहतरीन दो टीमें मेजबान भारत और पाकिस्तान बाहर हो गए थे. ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के बीच अप्रत्याशित फाइनल मैच अब तक का सबसे करीबी फाइनल है.
1996 के अलावा 2011 और 2015 ही सिर्फ ऐसे टूर्नामेंट्स थे, जिनमें क्वार्टर फाइनल शामिल किए गए थे. इस दौरान 14 नॉक आउट मैचों में से सिर्फ तीन में 1996 जैसा ड्रामा देखने को मिला. उनमें से भी दो सबसे बेहतरीन मैच थे- 2011 का भारत-ऑस्ट्रेलिया क्वार्टर फाइनल और 2015 में न्यूज़ीलैंड-साउथ अफ्रीका सेमी फाइनल.
1975 के प्रूडेंशियल वर्ल्ड कप में ऑस्ट्रेलिया के दोनों नॉक आउट मैच रोमांचक रहे, लेकिन 1979 के संस्करण में सिर्फ इंग्लैंड-न्यूज़ीलैंड सेमी फाइनल ही उस स्तर का था.
जब बात टूर्नामेंट में नजदीकी मुकाबलों की आती है, तो 1992 अव्वल है (9 नजदीकी मैच), जबकि दूसरे स्थान पर 1987 (8 नजदीकी मुकाबलों के साथ) का टूर्नामेंट है. इनके बाद 2011 (7 गेम), 2015 (6 गेम) और 2007 (5 गेम) के वर्ल्ड कप हैं. इसमें से 2007 का नाम आना हैरानी भरा है, क्योंकि दुनियाभर में इसे सबसे खराब वर्ल्ड कप माना जाता है. शायद इससे यह भी पता चलता है कि हम टूर्नामेंट्स को उनके नॉकआउट मैचों के कारण याद करते हैं, खासतौर पर जब वो बहुत करीबी होते हैं.
यदि हम मैचों की संख्या और नजदीकी मुकाबलों के रेशियो पर विचार करें और उसमें भी एसोसिएट टीमों के नजदीकी मुकाबलों को छोड़ दें, तो बाद के वर्ल्ड कप कमजोर लगते हैं. यह वास्तव में टूर्नामेंट से एसोसिएट टीमों को हटाने के फैसले को सही साबित करता है.
इस सभी चीजों को ध्यान में रखते हुए, एक के बाद एक सात नाटकीय नॉकआउट मैचों के कारण 1996 का वर्ल्ड कप सबसे रोमांचक था, जबकि 1992 का सबसे नजदीकी वर्ल्ड कप रहा, जिसमें कई करीबी मुकाबले और उलटफेर देखने को मिले.
2019 का वर्ल्ड कप उसी फॉर्मेट में है, जैसा 1992 का था. इसमें भी सभी टीमें बिल्कुल एक-दूसरे की टक्कर में बेहद मजबूत हैं. इस लिहाज से ये वर्ल्ड कप सबसे कठिन होने वाला है.
(यह आर्टिकल तीन भाग की सीरीज का पहला हिस्सा है. अगला हिस्सा है- 2019 वर्ल्ड कप क्यों सबसे कठिन होने वाला है?)
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