advertisement
‘सब कुछ लुटा कर होश में आए तो क्या हुआ...’
ये लाइन मुझे एक एक्सपर्ट ने कही जब मैंने उनसे पूछा कि मायावाती किसी गठबंधन से जुड़ने के लिए पूरी तरह इच्छुक क्यों नहीं दिख रहीं? उस वक्त मुझे इस लाइन का मतलब नहीं समझ आया था. मायावती की छवि एक सशक्त नेता की है. माना जाता है कि वो एकमात्र ऐसी नेता हैं जो अपने समर्थकों का वोट गठबंधन को ट्रांसफर करा सकती हैं.
ऐसे में किसका सबकुछ लुटा, किसने होश में आने में देरी कर दी?- इस सवाल का जवाब खोजने के लिए मैंने उत्तर प्रदेश के पिछले 5 चुनावों, 3 विधानसभा और 2 लोकसभा चुनाव के आंकड़े को ध्यान से देखना शुरू किया. उससे जुड़े कुछ रिसर्च पेपर पढ़े.
सारे आंकड़े जोर-जोर से बता रहे हैं कि मायावती की हैसियत अब वो नहीं है, जो 10 साल पहले हुआ करती थी. दलितों की वो बड़ी नेता हैं, लेकिन दलितों का एक बहुत बड़ा वर्ग है, जो उनके लिए वोट नहीं करता है.
याद कीजिए 2014 लोकसभा और 2017 विधानसभा चुनाव में मायावती की बहुजन समाज पार्टी के प्रदर्शन को.
जिस बीएसपी ने 2007 में इतिहास बनाया था, उसी पार्टी को 7 साल बाद उत्तर प्रदेश में एक भी लोकसभा सीट नहीं मिली. और उससे भी शर्मनाक बात ये थी कि बीएसपी को राज्य के 403 विधानसभा सेंगमेंट में से महज 9 सेगमेंट में बढ़त मिली थी. उस चुनाव में बीएसपी के कहीं आगे कांग्रेस को राज्य के 15 विधानसभा सेगमेंट में बढ़त मिली थी.
किसी हैसियत वाली पार्टी के लिए इससे बड़ा झटका हो नहीं सकता है. लेकिन सबने कह दिया कि एक लंबे सफर में ये महज एक 'कॉमा' है, मायावती तेजी से वापस आएंगी और खोई हुई सारी जमीन वापस पा लेंगी.
लेकिन 2017 में स्क्रिप्ट खास नहीं बदली. विधानसभा चुनाव में बीएसपी ने 5 परसेंट के स्ट्राइक रेट से 19 सीटें जीतीं. कांग्रेस का 6 परसेंट और समाजवादी पार्टी का जीत का स्ट्राइक रेट 15 परसेंट रहा. दो बड़े चुनावों में ऐतिहासिक झटके को अपवाद नहीं कहा जा सकता है. कहीं यह टर्मिनल डिक्लाइन की तरफ तो इशारा नहीं? आखिर क्या बदल गया है?
चूंकि बीएसपी को मिलने वाले वोटों का बड़ा हिस्सा उत्तर प्रदेश से ही आता है, तो देखते हैं कि वहां क्या हाल रहा है. 2012 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी को गैर जाटव दलितों का 48 परसेंट वोट बीएसपी को मिला था.
इसी की नतीजा है कि बीएसपी का वोट शेयर हर चुनाव में लगातार गिर रहा है.
इससे साफ है कि मायावती को अपने आप को रीडिफाइन करना होगा. वो बहुजन हिताय या सर्वजन सुखाय के नारों से संभव होता नहीं दिख रहा. वो पदाधिकारियों को बदलकर नहीं होगा. नए स्लोगन से भी शायद संभव नहीं है.
मायावती को सहयोगियों की जरूरत है, जो उनके मैसेज को समाज के दूसरे वर्गों में पहुंचाएं. मायावती के लिए सब कुछ लुटने से पहले होश में आने का समय है. ज्यादा सीटें पाने के लिए मोलभाव तो जरूरी है. लेकिन हर हाल में मायावती अब अलायंस बस को मिस नहीं कर सकती हैं. 2019 का लोकसभा चुनाव इसका टेस्ट होगा. वो इस बस पर सवार होती हैं, तो शायद रेलेवेंस बची रहे, नहीं तो हाशिए पर आने में देर नहीं लगेगी.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)