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वीडियो एडिटर- वरुण शर्मा
कैमरा- अभिषेक रंजन
साल 2008 में मुंबई में आतंकी हमला हुआ था. उस वक्त देश के गृहमंत्री थे शिवराज पाटिल. हमले के वक्त पाटिल एक जगह से दूसरी जगह जाने के दौरान उनके कपड़े बदल रहे थे. इसको लेकर हंगामा खड़ा हो गया. मीडिया ने इसे इतना बड़ा मुद्दा बनाया कि देश के गृहमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा. 2013 में मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक दंगे हुए. तब वहां के एसएसपी को सस्पेंड कर दिया गया था. उस वक्त यूपी के सीएम अखिलेश यादव से लेकर देश के पीएम मनमोहन सिंह तक दंगा पीड़ितों से मिलने पहुंचे थे.
लेकिन दिल्ली में हुई हिंसा में अबतक 47 लोगों की जान जा चुकी है, सैकड़ों लोग घायल हैं. इसके बावजूद क्या किसी पुलिस वाले पर कोई कार्रवाई हुई?
देश की राजधानी दिल्ली की सुरक्षा की गारंटी गृह मंत्री अमित शाह के हाथ में है, लेकिन तीन दिनों तक दिल्ली में मौत का डरावना खेल चलता रहा. घर, दुकान सब जलकर खाक हो गए. उस हिंसा को रुके एक हफ्ते से ज्यादा हो चुका है, लेकिन गृह मंत्री ने हिंसा के पीड़ितों से मिलना तो दूर, अबतक एक शब्द भी नहीं बोला. एक भी शब्द नहीं.
दिल्ली के नॉर्थ-ईस्ट इलाके-मुस्तफाबाद, शिव विहार, चांद बाग, गोकलपुरी में दंगाइयों ने बच्चों, बूढों, महिलाओं, किसी को भी नहीं छोड़ा. डंडे, तलवार, बंदूक, सबकुछ लोगों को मारने के लिए इस्तेमाल किए गए. किसी की बॉडी नहर में मिली तो, किसी की नाले में.
चुनावी भाषणों में पाकिस्तान और चीन को सबक सिखाने की ताल ठोकी जाती है लेकिन देश की राजधानी में सुरक्षा के वादे धराशाई हो जाते हैं. देश के दिल को छलनी कर दिया जाता है और उसे आप न तो रोक पाते हैं और न ही इसके लिए जिम्मेदार लोगों पर कोई कार्रवाई होती है.
पुलिस पर न सिर्फ ये आरोप है कि वो हिंसा रोकने में नाकाम रही, बल्कि ये भी आरोप है कि वो खुद कई जगह पार्टी बन गई. एक फुटेज आया जिसमें पुलिस वाले सीसीटीवी तोड़ते नजर आए. एक वीडियो आया जिसमें पुलिस वाले सड़क पर गिरे हुए घायल युवकों से राष्ट्रगान गाने को कह रहे थे. एक वीडियो आया जिसमें दिखा कि हिंसा करने वाले पुलिस के सामने ही पत्थर जमा कर रहे थे.
ये भी आरोप लगा कि भीड़ से घिरे हुए लोग, डरे हुए लोग, 100 नंबर पर कॉल करते रह गए, पुलिस से मदद मांगते रह गए, लेकिन पुलिस मदद के लिए नहीं आई.
हिंसा में लोगों को करोड़ों रुपए का नुकसान हुआ है, कई बच्चे अनाथ हो गए, कई परिवारों का अकेला कमाने वाला तड़प-तड़प कर मर गया. अब उन्हें मुआवजा लेने में भी दिक्कत हो रही है. जिनके पिता चले गए, उन बच्चों की पढ़ाई का क्या होगा? जिसका बेटा गया उस मां का क्या होगा? क्या उन्हें गरीबी के अंधेरे में धकेल दिया जाएगा?
दिसंबर 2019 में देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में भी हिंसा भड़की थी. 20 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई. तब से लेकर अबतक एक भी पीड़ित को मुआवजा मिलना तो दूर,, सरकार का कोई मंत्री मिलने तक नहीं गया. सूबे के सीएम ने तो नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के विरोध में हुए प्रदर्शन के दौरान मारे गए लोगों पर कहा, "अगर कोई मरने के लिए आ ही रहा है तो वो जिंदा कहां से हो जाएगा." मतलब 20 लोग जो मरे थे, वो मरने ही आए थे?
यही नहीं सीएम ने हिंसा में मारे गए परिवार के लोगों को मुआवजा देने के सवाल पर विधानसभा में साफ कहा- “जी नहीं, ऐसा कोई प्रावधान नहीं है.”
नागरिकता संशोधन कानून से जुड़ी हिंसा से देशभर में अबतक 75 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है. सीधे तौर पर लाखों जिंदगी इसकी चपेट में हैं. फिर भी मंत्री से लेकर अधिकारी पर कोई एक्शन नहीं, ना मुआवजा, ना उन पीड़ितों से मिलकर सांत्वना.
क्या सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास सिर्फ 'जुमला' था? अगर इसी तरह लोगों की मौत होती रही और किसी की जवाबदेही तय नहीं हुई, तो भले ही जिंदा दिख रहे लोग ना पूछें लेकिन मर चुके लोगों की कब्र और चिता से आवाज जरूर आएगी...जनाब ऐसे कैसे?
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