Home Videos Feature ‘हम भगवान नहीं हैं’: बेंगलुरु में सरकारी डॉक्टर मांग रहे सुरक्षा
‘हम भगवान नहीं हैं’: बेंगलुरु में सरकारी डॉक्टर मांग रहे सुरक्षा
State of Doctors: डॉक्टरों की जिंदगी की हकीकत
अर्पिता राज
फीचर
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हर दिन मरीजों का धमकाने वाला रवैया और मारपीट का डर लिए काम करते हैं डॉक्टर
(फोटो: द क्विंट)
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वीडियो एडिटर: कुणाल मेहरा
“मरीजों के साथ आए लोग हमेशा चाहते हैं कि इलाज तुरंत हो. वे चाहते हैं कि मरीज चुटकी बजाते ठीक हो जाए. हम अपने जीवन को जोखिम में डाल रहे हैं, क्योंकि लंबे समय तक काम करना पड़ता है. अगर वे हमें थोड़ा सम्मान देते हैं या हमारे साथ इंसानों की तरह व्यवहार करते हैं, तो उन्हें सबसे अच्छी सेवा मिलेगी. कभी-कभी हम जनता की दया पर होते हैं. हम भगवान नहीं हैं.”
डॉ. मेघना देवकी, जूनियर डॉक्टर
जरा सोचिए, एक युवा डॉक्टर, उम्र 20 के आसपास, हर दिन ढेरों मरीजों को देखता है. रोज 18 से 20 घंटे तक घावों पर टांके लगाता है. सिर्फ 4 घंटे सो पाता है. फिर भी उसे मरीजों के दुखी रिश्तेदारों से मार खानी पड़ती है.
देश में आज डॉक्टरों की यही हकीकत है. अपने नोबल प्रोफेशन में सम्मान तो दूर, डॉक्टरों का अपमान ही होता है, हाथापाई से दो-चार होना पड़ता है. यहां तक की शहरी बेंगलुरु में भी ऐसे ही हालात हैं.
कोलकाता में मरीज के परिजनों द्वारा डॉक्टर के साथ हुई मारपीट की घटना ने देशभर में काम कर रहे डॉक्टरों की चिंता बढ़ा दी है. इस सिलसिले में द क्विंट ने बेंगलुरु के जूनियर डॉक्टरों के साथ बात की जिन्हें ऐसे हालात से हर दिन दो-चार होना पड़ता है.
“मैं अचानक आईसीयू में किसी को टूटी हुई खोपड़ी के साथ देखने से कतराता हूं और माता-पिता आईसीयू के बाहर बैठे रहते हैं और रोते रहते हैं, मैं इस मंजर को नहीं देखना चाहता. और ऐसे केस में सबसे पहले डर का एहसास होता है.”
डॉ. शेरोन फ्रेडरिक, हाउस सर्जन, विक्टोरिया अस्पताल
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“घंटो तक लगातार करते रहते हैं काम”
मरीजों के लिए किसी भी समय इमरजेंसी में सर्विस देने को तैयार रहने वाले ये डॉक्टर ओवर वर्क यानी काम के ज्यादा घंटे से प्रेशर में रहते हैं. क्विंट से बातचीत में डॉ. शेरोन कहते हैं,
“हमारा दिन जो सुबह 9 बजे शुरू होता है वो अगली शाम 6, 7, 8 बजे खत्म होगा. शायद एक घंटे की नींद के साथ अगर हम भाग्यशाली रहे तब. अब मैं इसे आपकी सोच पर छोड़ता हूं, तय कीजिए कि ये आराम पर्याप्त है या नहीं.”
नाम न बताने की शर्त पर एक सीनियर सरकारी डॉक्टर अपना दर्द बयां करते हैं, वो कहते हैं-
“जब मैं सरकारी सेटअप में शामिल हुआ, तो मैं स्वस्थ था. ज्वाइन करने के 2 साल बाद मुझे डायबिटीज हो गया. ये सब तनाव की वजह से हुआ. मैं पिछले 14 सालों से डायबिटिक हूं. 30 साल की उम्र में मुझे टाइप 2 डायबिटीज हो गया. मैं इंसुलिन पर हूं. मैं सुबह में 60 और शाम को 60 यूनिट इंसुलिन ले रहा हूं. मैंने अपना स्वास्थ्य बिलकुल खराब कर लिया है. मैं अपने परिवार को समय नहीं दे सकता.”
डॉक्टरों की मांग है कि सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वो अस्पतालों में अच्छा इंफ्रास्ट्रक्चर, सरकारी सुविधाएं बढ़ाए. साथ ही जिस तरह हर दिन मरीजों का धमकाने वाला रवैया और मारपीट का डर लिए ये डॉक्टर काम कर रहे हैं, उससे इन्हें निजात मिले. डॉक्टरों की सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए.
यहां आने वाले मरीज ICU बेड चाहते हैं. जिन मरीजों को वाकई ICU बेड की जरूरत होती है, उनके लिए भी ये उपलब्ध नहीं होते. मगर शायद उन्होंने सीएम या किसी और से सुना होगा, ‘’सरकारी अस्पतालों में जाओ. वहां हर तरह का वेंटिलेटर और सबकुछ मिलेगा.’’ मरीज यहां आते हैं तो उन्हें सबसे पहले डॉक्टर ही मिलते हैं. ऐसे में वे सोच सकते हैं कि उन्हें ICU में बेड देने के लिए डॉक्टर पर्याप्त कदम नहीं उठा रहे, और उनका गुस्सा फूट पड़ता है.
डॉ. अजय रमेश
इन डॉक्टरों की अपील ये भी है कि लोगों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए. वो वोट देकर भूल जाते हैं और सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर को असुविधाओं के लिए जवाबदेह समझते हैं जबकि असली जिम्मेदारी चुनी हुई सरकार, नेताओं की होती है.