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भारत और नेपाल के बीच तनाव के बीच बीजेपी सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने दावा किया कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1950 में नेपाल को भारत के साथ मिलाने का ऑफर ठुकरा दिया था. लेकिन ये तथ्य कितना सही है? इसके लिए पहले हम 1950 के नेपाल में अहम किरदारों के बारे में जानते हैं.
इसका पहला किरदार नेपाल का राजघराना राणा है, जिसने 1846-1951 के बीच राज किया था. जो खुद को अलग-थलग रखने की नीति पर चलता था. दूसरे राजा त्रिभुवन,जो 1911 से नेपाल के राजा थे. राणा शासकों को हराने के बाद 1951 में वो फिर से राजा बने. उन्होंने नेपाल में संवैधानिक राजतंत्र के तहत लोकतंत्र की स्थापना की. बाद में नेपाली नेशनल कांग्रेस और नेपाली डेमोक्रेटिक पार्टी के मर्जर के बाद दि नेपाली कांग्रेस का गठन 1946 में हुआ. ये अभी नेपाल की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है.
स्वामी के दावे की सच्चाई जानने के लिए हमने कुछ एक्सपर्ट्स से बात की. डॉ लोक राज बरल जो भारत के नेपाल में पूर्व राजनायिक और भारत-नेपाल संबंधों के जानकार हैं वो स्वामी की बात को 'अफवाह' बताते हैं. उन्होंने कहा,
IDSA की एग्जीक्यूटिव काउंसिल के सदस्य और JNU में प्रोफेसर एसडी मुनि ने कहा कि, ये बात सही है कि राजा त्रिभुवन चाहते थे उनके भारत के साथ काफी करीबी संबंध हों, लेकिन नेहरू नेपाल को स्वतंत्र रखना चाहते थे. क्योंकि फिर ब्रिटिश और अमेरिकन हस्तक्षेप करते और समस्या खड़ी करते. उन्होंने आगे कहा,
“1950 की संधि भारत और नेपाल के बीच राजनीतिक-आर्थिक और रणनीतिक संबंधों को परिभाषित करती है. कई नेपालियों को लगता था कि भारत ने राणा के खिलाफ गुस्से का फायदा उठाया. लेकिन चीन में कम्युनिस्टों की जीत और उनके तिब्बत के खिलाफ बढ़ते कदमों ने हिमालयी क्षेत्र के समीकरणों के बदल दिया. ये जानकारी 'स्ट्रैटजिक हिमालयाज: रिपब्लिकन नेपाल एंड एक्सटर्नल पावर्स' किताब में दी हुई है.” प्रोफेसर एसडी मुनि ने बताया कि,
भारत में रहने वाली एक नेपाली पत्रकार आकांश्या शाह एक्सपर्ट का हवाला देते हुए बताती हैं कि हो सकता है कि राजा त्रिभुवन ने नेहरू से कहा हो कि नेपाल का डिफेंस संभाल लें. उन्होंने बताया,
नेपाल के एक्सपर्ट्स के बीच बात होती है कि शायद किंग त्रिभुवन ने बाद में नेहरू से देश के डिफेंस की जिम्मेदारी संभालने के लिए कहा होगा. लेकिन इस बात का कोई सबूत नहीं है. नेपाल बहुत लंबे समय से स्वतंत्र राष्ट्र रहा है. नेपाल में भी उस वक्त राजनीतिक उतार-चढ़ाव का दौर चल रहा था. निरंकुश राणा और राजा त्रिभुवन जिनके पास नेपाली कांग्रेस का समर्थन था. दोनों के बीच मतभेद चल रहा था. किंग त्रिभुवन की मदद से राणा को सत्ता से हटाया गया और त्रिभुवन फिर से 1951 में नेपाल के 'हेड ऑफ द स्टेट' बने.
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