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ओडिशा के कालाहांडी के एक गांव से ताल्लुक रखने वाले 29 वर्षीय जितेंद्र सुना अभी जिस मुकाम पर हैं, वहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने एक लंबा और शानदार सफर तय किया है. दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (JNU) में पीएचडी कर रहे दलित छात्र जितेंद्र इस साल छात्रसंघ चुनाव में अध्यक्ष पद के उम्मीदवार हैं. वे बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन (BAPSA) का प्रतिनिधित्व कर रहे है.
एक खेतिहर मजदूर के तौर पर काम करने और कम उम्र में जातिगत भेदभाव का सामना करने के बाद, सुना का मानना है कि उनका संगठन (जिसके वे एक संस्थापक सदस्य भी हैं) एक तरह के 'उत्पीड़ितों की एकता' का प्रतिनिधित्व करता है.
उन्होंने छत्र संघ चुनाव से पहले द क्विंट के साथ हुई एक बातचीत के दौरान बताया, "BAPSA एक वास्तविक संघर्ष है, जो यहां वास्तविक आवाज का प्रतिनिधित्व करता है और जो छात्रों के अधिकारों और उनकी बेहतरी के लिए लड़ता है. BAPSA 'उत्पीड़ित एकता' के बारे में बात कर रहा है. इसलिए जो छात्र उत्पीड़ित वर्गों से आते हैं - चाहे वे असम से हों. 'गोरखालैंड', जम्मू-कश्मीर, सिक्किम या चाहे वे मुस्लिम हों, दलित हों, आदिवासी हों और ओबीसी हों - हम उन सभी के बारे में बात कर रहे हैं.''
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भेदभाव के अपने अनुभवों को बयां करते हुए सुना ने बताया कि कैसे भारतीय शिक्षा प्रणाली इस मुद्दे पर जागरूकता बढ़ाने के लिए तैयार नहीं हुई है.
यहां तक कि जेएनयू में भी, जिसे अक्सर एक ऐसी संस्था के रूप में माना जाता है जहां सामाजिक समावेश के सिद्धांत का कठोरता से पालन किया जाता है, सुना कहते हैं कि यहां जातिगत भेदभाव परोक्ष और प्रकट दोनों रूपों में जारी है.
वो बताते हैं, "उदाहरण के लिए, ये स्थिति यहां इंटरव्यू के दौरान देखी जा सकती है, जब लोग आपकी पहचान जानने के लिए आपके उपनाम का पता लगाने की कोशिश करते हैं और उसी के अनुसार आपका आकलन करते हैं. अगर आप BAPSA के भाषण देखते हैं, तो आप देखेंगे कि यह JNU का महिमामंडन नहीं करता है. इसका कारण यह है कि जेएनयू देश के बाहर नहीं है, यह देश का ही हिस्सा है."
जेएनयू में छात्रसंघ चुनावों के लिए 6 सितंबर को मतदान होगा, जिसके नतीजे 8 सितंबर तक आने की उम्मीद है.
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