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(एडिटर- आशुतोष भारद्वाज)
जिंदगी क्या किसी मुफलिस की कबा है जिसमें,
हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं.
भारत देश के लाखों कामगारों की बेबसी फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब के इस शे’र से बयां होती है. ये मजदूर महानगरों की चमचमाती गाड़ी के वो पहिए हैं जिनकी किस्मत में भले ही सड़क पर घिसना लिखा हो पर गाड़ी उनके बिना चल नहीं सकती. लेकिन जब कोरोना महामारी के दौर में इनकी घर वापसी का सवाल आया तो हमारे सिस्टम ने इन्हें शरीर के किसी सड़े हुए अंग की तरह अलग-थलग कर दिया.
प्रवासी मजदूरों को वापस उनके घर को भेजने का सरकार का फैसला अचकचाहट और हड़बड़ी से भरा है.
30 अप्रैल को केंद्र सरकार ने एलान किया कि मजदूरों की घर वापसी के लिए स्पेशल ट्रेन चलेंगी. महज 24 घंटे पहले इन्हीं मजदूरों को घर भेजने की घोषणा करते वक्त सरकार ने कहा था कि ट्रेन नहीं चलेंगी. जाहिर तौर पर ये अफरा-तफरी की बुनियाद पर लिया गया अजीब फैसला था.
ताजा फैसले में कहा गया कि-
हैरानी की बात है कि 4 मार्च को सरकार ने लोकसभा मे बताया था कि कोरोना संकट के दौरान चीन में फंसे 647 भारतीयों को लाने के लिए दो स्पेशल फ्लाइट चलाईं गईं जिस पर करीब 6 करोड़ रूपये का खर्च आया जो एयर इंडिया ने खुद उठाया.
खैर.. सोशल मीडिया से लेकर विपक्षी के सियासी खेमे तक में शोर मचा तो सरकार ने मजदूरों के लिए फ्री टिकट की घोषणा कर दी. लेकिन मजदूरों की दिक्कतें कम नहीं हुई हैं.
शायद यही वजहें हैं कि ये कामगार घर वापसी के लिए ऊलजलूल तरीके अपना रहे हैं.
आपने किसी जादूगर के हैट से कबूतर और खरगोश निकलते कई बार देखे होंगे लेकिन सीमेंट मिक्सर से निकलते जीते-जागते इंसानों की ये दर्दनाक तस्वीरें शायद पहली बार आपकी नजर से गुजरी होंगी. आप इस स्थिति का अंदाजा लगाइये जब अपनी जान बचाने के लिए किसी इंसान ने अपनी जान को ही दांव पर लगा दिया.
क्वारंटीन सेंटर नाम का शब्द खबरों में किसी ‘उपचार गृह’ सरीखा सुनाई देता होगा लेकिन असलियत मध्य प्रदेश के गुना इलाके के इस परिवार से पूछिए जिन्हें क्वारंटीन करने के नाम पर एक शौचालय में बंद कर दिया गया.
लॉकडाउन से पहले हो सकता है कि आप भी मॉर्निंग वॉक पर जाते हों.. लेकिन वॉक का असल मतलब इस मां से पूछिए तो अपनी मासूम बच्ची को गोद में उठाए सूरत से इलाहाबाद की वॉक पर निकली है. हैरान मत होइये- ये वॉक सिर्फ 1300 किलोमीटर की है.
अगर आप ये सोच रहे हैं कि हमारे देश में भोजन का अधिकार एक कानून है तो अपना भ्रम तोड़ने के लिए आपका इन मजदूरों से मिलना जरूरी है. पिछले 40 दिनों में काम करने की जगहों से लेकर सरकारी कैंप्स तक, ना इन लोगों के रहने का सही इंतजाम हुआ ना खाने-पीने का.
इन्हें सुरक्षित घर पहुंचने के लिए सिर्फ ट्रेन और मुफ्त का सफर नहीं चाहिए, उसके साथ थोड़ी इज्जत भी चाहिए जो इस देश का नागरिक होने के नाते उनका अधिकार है.
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