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बिहार (Bihar) में जातीय जनगणना (Caste Census) की शुरुआत हो चुकी है. 2 चरणों में करीब 500 करोड़ रुपए खर्च कर 5 महीन में पूरा करने का प्लान है. लेकिन इस प्रक्रिया के शुरू होते ही बिहार के अलावा यूपी की राजनीति में भी हलचल पैदा हो गई है. असर नेशनल पॉलिटिक्स पर भी पड़ सकता है. इसे समझेंगे, लेकिन पहले बताते हैं कि बिहार के लिए जातीय जनगणना के क्या मायने हैं?
बिहार में जातीय जनगणना की मांग पुरानी है. लालू यादव पहले भी ये मांग उठा चुके हैं. उनके बेटे तेजस्वी भी उनके सुर में सुर मिला चुके हैं. पहले वो विपक्ष में थे. अब सत्ता में हैं. और जातीय जनगणना की शुरुआत हो चुकी है.
सूबे के मुखिया नीतीश कुमार ने ट्वीट किया, "जाति आधारित गणना लोगों की तरक्की और उनके आर्थिक विकास के लिए जरूरी है. जाति आधारित गणना शुरू हो गई है. सभी जाति-धर्म के लोगों की स्थिति अच्छी होगी तभी राज्य आगे बढ़ेगा. सभी राज्य विकसित होंगे तभी देश विकसित होगा."
इसको लेकर सरकार का अपना तर्क है. लेकिन जानकार इसे राजनीति से जोड़ कर देख रहे हैं. वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी कहते हैं कि,
वहीं पटना कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल प्रो. नवल किशोर चौधरी कहते हैं कि,
बिहार के संदर्भ में वो इसको इस तरह से समझाते हैं. लालू यादव के 15 साल के शासन में मंडल पॉलिटिक्स exhaust हो गया था. इसके बाद नीतीश कुमार ने इसमें गुड गवर्नेंस और इकनॉमिक डेवलपमेंट को ऐड किया. अब ये दोनों भी exhaust हो चुका है. ऐसे में सत्ता में बने रहने के लिए इनके पास जातीय ध्रुवीकरण ही एक मात्र रास्ता है.
चलिए अब आपको बताते हैं कि बिहार सरकार ये जनगणना कैसे करवा रही है. बिहार में दो चरणों में जातीय जनगणना हो रही है. पहले चरण के तहत मकानों की गिनती की जा रही है. 21 जनवरी तक ये काम पूरा किया जाएगा. इसके बाद दूसरे चरण में जाति और आर्थिक गणना होगी. दूसरा चरण 1 अप्रैल से 30 अप्रैल तक चलेगा. इसमें लोगों के शिक्षा का स्तर, नौकरी, गाड़ी, मोबाइल, काम में दक्षता, आय के साधन, परिवार में कमाने लोग, एक व्यक्ति पर कितने आश्रित, जैसे सवाल पूछे जाएंगे.
बिहार में जैसे ही जाति आधारित जनगणना शुरू हुई, उत्तर प्रदेश में भी असर दिखा. आजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद ने समाजवादी पार्टी सुप्रीमो अखिलेश यादव से मुलाकात की. दोनों के बीच जातीय जनगणना के मुद्दे पर चर्चा हुई. उधर NCP प्रमुख शरद पवार ने नीतीश कुमार का समर्थन कर जातीय जनगणना की मांग को और हवा दे दी है. जिसके बाद माना जा रहा है कि महाराष्ट्र में बीजेपी सरकार पर दबाव बढ़ सकता है. हालांकि, केंद्र सरकार जातीय जनगणना करवाने के पक्ष में नहीं है.
इसका जवाब जानने से पहले आपको पहले इतिहास में लेकर चलते हैं. साल 1931 तक देश में जातिगत जनगणना होती थी. साल 1941 में जनगणना के समय जाति आधारित आंकड़ा जुटाया जरूर गया, लेकिन उसे प्रकाशित नहीं किया गया. साल 1951 से 2011 तक की जनगणना में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का डेटा दिया गया. लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों का नहीं. इससे OBC की सही आबादी का अनुमान लगाना मुश्किल है.
देश में फिलहाल ओबीसी आबादी कितनी है इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं है. मंडल आयोग ने 1931 की जनगणना के आधार पर देश में OBC की 52% आबादी का अनुमान लगाया था.
मौजूदा वक्त में देश में SC और ST वर्ग को जो आरक्षण मिलता है उसका आधार उनकी आबादी है. लेकिन OBC आरक्षण का कोई मौजूदा आधार नहीं है. अगर जातिगत जनगणना होती है तो इसका एक ठोस आधार होगा. ऐसे में अगर ओबीसी की आबादी बढ़ती है तो आरक्षण की 50% की सीमा टूट सकती है, जिसका फायदा उन्हें मिल सकता है. इस पर सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ हरियाणा में कार्यरत प्रो. राजीव सिंह कहते हैं कि,
जानकारों का मानना है कि जातिगत जनगणना के अभाव में ये पता लगाना मुश्किल है कि सरकार की नीति और योजनाओं का लाभ सही जाति तक ठीक से पहुंच भी रहा है या नहीं. इसको ध्यान में रखते हुए यूपीए सरकार ने 2011 में सामाजिक-आर्थिक सर्वे के साथ जातिगत जनगणना करवाई थी. चार हजार करोड़ से ज्यादा रुपए खर्च किए गए. साल 2016 में SECC के सभी आंकड़े प्रकाशित हुए. लेकिन जातिगत आंकड़े प्रकाशित नहीं हुए.
इसके बाद कर्नाटक में साल 2014 में तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने जाति आधारित जनगणना कराने का फैसला किया. 2017 में कंठराज समिति ने सरकार को रिपोर्ट सौंपी. लेकिन उसे भी जारी नहीं किया गया.
वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं कि,
बिहार में चल रही जातिगत जनगणना की टाइमिंग को लेकर भी चर्चा जोरों पर है. इस साल देश के 9 राज्यों में चुनाव होने हैं. वहीं अगले साल लोकसभा का चुनाव होगा. अगर ऐसे में इस मुद्दे को सही से हवा दी जाती है तो यह 2024 के चुनाव में एक बड़ा मुद्दा हो सकता है. क्योंकि उत्तर भारत की राजनीति ओबीसी वोटर्स के इर्द-गिर्द घुमती है.
कई राज्यों के निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण का मुद्दा उठ चुका है. ऐसे में सभी पार्टियों की नजर OBC वोटर्स पर है. अगर पिछले लोकसभा चुनावों के नतीजों पर नजर डालें तो बीजेपी की अप्रत्याशित जीत में OBC वोटर्स का भी हाथ रहा है. ऐसे में कोई पार्टी इन्हें छोड़ने की भूल नहीं करना चाहेगी. खास करके क्षेत्रीय पार्टियां.
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Published: 09 Jan 2023,04:49 PM IST