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नीतीश कुमार (Nitish Kumar), सीबीआई-ईडी, तेजस्वी, लालू, राबड़ी. किरदार वही, बिहार (Bihar) वही. सियासी पटकथा वही. बस साल बदला. तब 2017 था आज 2023 है. अब सवाल ये है कि क्या साल बदलने के साथ एक बार फिर नीतीश कुमार की चाल भी बदलेगी?
लालू एंड फैमली पर सीबीआई-ईडी के कसते शिकंजे के बाद नीतीश कुमार अगला कदम क्या उठाएंगे इस पर पुख्ता तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है. एक तरफ नीतीश कुमार कह रहे हैं कि जिसके साथ हुआ है, वो जवाब दे ही रहें, हम क्या बोलेंगे? दूसरी तरफ वो गठबंधन का धर्म निभाते हुए भी दिख रहे हैं और कह रहे हैं कि महागठबंधन की सरकार बनते ही रेड शुरू हो गए हैं. लेकिन नीतीश खुलकर कुछ भी कहने से कतरा रहे हैं.
अब जरा आपको फ्लैशबैक में लेकर चलते हैं. साल था 2015. विधानसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार ने RJD के साथ मिलकर सरकार बनाई थी. लेकिन 2017 में नीतीश कुमार महागठबंधन से अलग हो गए थे. तब भी तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे. नीतीश चाहते थे कि तेजस्वी मंत्री पद से इस्तीफा दे दें लेकिन वो ऐसा करने को तैयार नहीं थे. लालू यादव ने ये साफ कहा था कि तेजस्वी यादव के इस्तीफे का सवाल ही नहीं उठता. खुद तेजस्वी ने भी साफ कहा था कि इस्तीफा नहीं दूंगा.
हालांकि अब सियासी हालात बहुत बदल चुके हैं. अमित शाह ने खुद ऐलान कर दिया है कि नीतीश कुमार के लिए बीजेपी के सभी दरबाजे बंद हो चुके हैं. लालू भी कसमें खा रहे हैं कि वो बीजेपी और आरएसएस के सामने घुटने नहीं टेकेंगे.
जब बीजेपी नीतीश के साथ जाने के लिए तैयार नहीं है. RJD झुकने को तैयार नहीं है. फिर ऐसा क्यों लग रहा है कि बीजेपी साल 2017 की सियासी स्क्रिप्ट की रिमेक बनाने में जुटी है? स्वाभाविक लड़ाई यह होती कि बीजेपी महागठबंधन के खिलाफ मोदी, विकास के नाम पर और अपने कोर वोटर्स के दम पर चुनाव में उतरती. लेकिन राजनीतिक जानकारों की माने तो बीजेपी को कहीं न कहीं डर है कि वो सिर्फ विकास और मोदी के नाम पर जेडीयू और RJD को टक्कर नहीं दे सकती है. जाति फैक्टर भी महागठबंधन के फेवर में है.
ये तो साफ है कि बिहार में बीजेपी जेडीयू की कीमत पर बढ़ेगी. जो 2022 में टूट की वजह भी बनी. लेकिन सियासत में समीकरण बदलते रहते हैं. दोस्त-दुश्मन बदलते रहते हैं.
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