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9 अगस्त को World Indigenous Day यानी विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता है. आदिवासी शब्द का शाब्दिक अर्थ है 'मूल निवासी'. जनजातियों को आदिवासी भी कहा जाता है. इस दिवस का उद्देश्य दुनिया की आदिवासी आबादी के अधिकारों को बढ़ावा देना और उनकी रक्षा करना है तथा उनके योगदान को स्वीकार करना है. जनजातियों ने अपनी स्वतंत्रता को हमेशा से बरकरार रखा है और अपनी अलग संस्कृति को बनाए रखने के लिए वे आमतौर पर जंगलों, पहाड़ियों, रेगिस्तानों और मुश्किल स्थानों में रहते थे. आदिवासी लोगों ने समृद्ध रीति-रिवाजों और मौखिक परंपराओं को संरक्षित रखा है. संयुक्त राष्ट्र ने इस दिवस को मान्यता दी है. कुछ समय पहले ही हमारे देश को पहला आदिवासी राष्ट्रपति मिला है, लेकिन सर्वोच्च पद तक पहुंचने के बाद भी इस समुदाय के सामने कई चुनौतियां हैं. आइए जानते हैं आदिवासियों से जुड़ी कुछ अहम जानकारी...
संयुक्त राष्ट्र संघ ने 23 दिसम्बर, 1994 को संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा में एक प्रस्ताव पारित किया था जिसमें आदिवासियों के मानवीय अधिकारों के संरक्षण के लिए, आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन पर अधिकार को स्थायी रूप से दिए जाने, आदिवासियों की विशेष पहचान, संस्कृति, अस्तित्व, अस्मिता और आत्मसम्मान हमेशा दिये जाने जैसे मुद्दों पर चर्च की गई थी. उसी प्रस्ताव के अनुसार 9 अगस्त, 1995 को पहला विश्व आदिवासी दिवस मनाया गया और तब से हर साल यह पूरे विश्व में आदिवासी दिवस के तौर पर मनाया जाने लगा.
संयुक्त राष्ट्र द्वारा इस साल की थीम "पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण और प्रसारण में आदिवासी महिलाओं की भूमिका" निर्धारित की गई है.
आदिवासी महिलाएं अपने समाज और समुदाय की रीढ़ हैं, ये पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण और प्रसारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. वे कमाती हैं, घर-परिवार की देखभाल करती हैं और समुदाय में महत्वपूर्ण भी हैं लेकिन इसके बावजूद भी उन्हें अक्सर लिंग, वर्ग, जातीयता और सामाजिक आर्थिक स्थिति के आधार पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है.
संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर के 90 देशों में 476 मिलियन से अधिक आदिवासी रहते हैं, जो कुल वैश्विक आबादी का 6.2 फीसदी हिस्सा हैं.
इंटरनेशनल वर्क ग्रुप फॉर इंडीजिनस अफेयर्स द्वारा रिपोर्ट के अनुसार कुल आबादी की तुलना में वहां रहने वाले आदिवासियों की संख्या के अनुसार शीर्ष देश इस प्रकार है :
ग्रीनलैंड : 88.0%
फ्रेंच पॉलिनेशिया : 80.0%
बोलिविया : 48.0%
ग्वाटेमाला : 43.8%
नेपाल : 36.0%
अल्जीरिया : 33.0%
मोरक्को : 28.0%
केन्या : 25.0%
इंडोनेशिया : 24.0%
मैक्सिको : 21.5%
भारत की बात करें तो यहां कुल आबादी में आदिवासियों की संख्या 8.6 फीसदी है.
वर्ष 2011 में हुई जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या का 8.6 फीसदी हिस्सा जनजातीय समुदाय से मिलकर बना है.
2011 की जनगणना के अनुसार जनजातीय जनसंख्या वाले प्रमुख राज्य :
लक्षद्वीप (95%)
मिजोरम (94.4%)
नागालैंड (86.5)
मेघालय (86.1%)
अरुणाचल प्रदेश (68%)
दादर नगर हवेली (52%)
मणिपुर (40.9%)
सिक्किम (33.8%)
त्रिपुरा (31.8%)
छत्तीसगढ़ (30.6%)
संयुक्त राष्ट्र के भारत के संदर्भ में वर्किंग ग्रुप ऑन ह्यूमन राइट्स द्वारा वर्ष 2012 में जारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में आजादी के बाद से लगभग 6.5 करोड़ लोगों का विस्थापन हुआ है - जो दुनिया के किसी भी मुल्क में सबसे अधिक है. यह रिपोर्ट दर्शाती है कि कुल विस्थापितों में लगभग 40 फीसदी (2.6 करोड़) आदिवासी समुदाय है. अर्थात आदिवासियों की कुल आबादी का लगभग एक-चौथाई (25 फीसदी) अब तक विस्थापित हो चुका है.
डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट के अनुसार स्वास्थ्य पर काम करने वाले गैर लाभकारी संगठन रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर कंपेसनेट इकॉनोमिक्स के शोधकर्ताओं का प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल अकैडमी ऑफ साइंसेस (पीएनएएस) में प्रकाशित अध्ययन कहता है कि यदि आप भारत के अनुसूचित जनजाति (एसटी) परिवार में पैदा हुए हैं, तो आप उच्च जाति के हिंदू की तुलना में चार साल कम जिंदा रहने की संभावना रखते हैं.
कम जीवन प्रत्याशा के विभिन्न कारणों में एसटी और गैर एसटी जातियों के बीच स्वास्थ्य और पोषण संकेतकों, शिक्षा के स्तर और गरीबी के स्तर में अंतर को गिनाया गया था. साथ ही एसटी की पारंपरिक जीवनशैली, बस्तियों की दूरी और बिखरी हुई आबादी को भी कम जीवन प्रत्याशा का कारण माना गया था. अनुसूचित जनजाति समूहों की कम जीवन प्रत्याशा के विभिन्न कारणों में खानपान में परिवर्तन और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच न होना, प्रमुखता से शामिल हैं.
राष्ट्रीय पोषण संस्थान के तहत राष्ट्रीय पोषण निगरानी ब्यूरो (एनएनएमबी) की 2009 की एक रिपोर्ट, जिसमें नौ राज्यों को शामिल किया गया है, 1985-89 और 2007-08 के बीच जनजातीय क्षेत्रों में कुछ खाद्य पदार्थों की खपत में मामूली गिरावट की ओर इशारा करती है.
स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच के मामले में जनजातीय आबादी अब भी संघर्ष कर रही है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी 2019-20 के आंकड़ों से पता चलता है कि अधिक जनजातीय आबादी वाले पांच राज्य- महाराष्ट्र, तेलंगाना, झारखंड, मध्य प्रदेश और राजस्थान में तेलंगाना को छोड़कर सभी को उप-केंद्रों, सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी) की कमी का सामना करना पड़ रहा है.
संसद में दी गई जानकारी के अनुसार 2018 और 2020 के बीच आदिवासी लोगों के खिलाफ अपराध में 26 प्रतिशत की वृद्धि हुई.
2019 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की रिपोर्ट ट्राइबल हेल्थ ऑफ इंडिया में बताया गया था कि 2001 की जनगणना में जिन गांवों में 100 प्रतिशत आदिवासी थे, वहीं 2011 की जनगणना में इन आदिवासियों की संख्या 32 प्रतिशत कम हो गई. रिपोर्ट में कहा गया है, “आदिवासी जीवनयापन और शैक्षणिक अवसरों के लिए आदिवासी क्षेत्रों से लेकर गैर आदिवासी क्षेत्रों तक आंदोलन कर रहे हैं.” रिपोर्ट में आदिवासियों के पलायन के लिए मुख्य रूप से आजीविका के संकट को जिम्मेदार माना गया हैं
रिपोर्ट में कहा गया है कि विस्थापन और पलायन के कारण बड़ी संख्या में आदिवासी निर्माण क्षेत्र में ठेका मजदूर और शहरों में घरेलू नौकर बन रहे हैं. वर्तमान में हर दूसरा आदिवासी परिवार जीवनयापन के लिए मजदूरी पर निर्भर है.
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