advertisement
तारीख- 9 फरवरी 2012
जगह- हनुमान चौक, कुतुब विहार, छावला, दिल्ली
वक्त- रात के करीब 9 बजकर 18 मिनट
तब ही दिल्ली पुलिस के पास एक कॉल आती है. एक 19 साल की लड़की को कुछ लोगों ने अगवा कर लिया है.. वो 19 साल की लड़की गुरुग्राम में एक प्राइवेट कंपनी में काम करती थी और अपने घर को लौट रही थी.
लेकिन फिर वो कभी अपने घर नहीं लौटी. 14 फरवरी को दिल्ली से सटे हरियाणा के रेवाड़ी के रोढाई गांव से उसकी लाश मिलती है.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आरोपियों के खिलाफ पुख्ता सबूत नहीं मिले हैं. जांच में कई कमिया हैं. तो सवाल है कि इन कमियों का जिम्मेदार कौन है? फिर हाई कोर्ट ने किस आधार पर फांसी की सजा दी थी? फिर हत्यारा कौन है? सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने पुलिस की जांच, शासन-प्रशासन के काम, भारत का जस्टिस सिस्टम सबको कठघरे में खड़ा कर दिया है, इसलिए हम पूछ रहे हैं जनाब ऐसे कैसे?
उस मां के बारे में सोचिए, जिनकी 19 साल की बेटी का बलात्कार किया गया, शरीर को सिगरेट से दागा गया, चेहरे पर तेजाब डाला गया. गाड़ी में रखे गए औजार से गहरे घाव किये गये. और क्या बताऊं बस इतना समझ लीजिए कि सारी हदें पार कर दी गयी, उसकी जान ले ली गई. पुलिस ने उस वक्त रवि कुमार, राहुल और विनोद को आरोपी बनाया था और गिरफ्तार किया था. साल 2014 में दिल्ली की एक अदालत ने तीनों आरोपियों को फांसी की सजा सुनाई थी, बाद में 2014 में दिल्ली हाईकोर्ट ने भी फांसी की सजा को बरकरार रखा था.
तब हाई कोर्ट ने कहा था- ये वो हिंसक जानवर हैं, जो सड़कों पर शिकार ढूंढते हैं.
लेकिन अब छावला रेप केस में सुप्रीम कोर्ट ने तीनों आरोपियों को रिहाई देते हुए कहा,
सही बात है, बिना सबूत किसी को कैसे सजा हो सकती है. लेकिन उस 19 साल की लड़की के हत्यारे को तो सजा हो सकती थी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
पूर्व चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया यू यू ललित, जस्टिस एस रवींद्र भट और जस्टिस बेला एम त्रिवेदी की बेंच ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसलों की आलोचना की है. पुलिस के कामकाज पर सवाल उठाए हैं, सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि पुलिस ने ठीक से जांच नहीं की. लेकिन सवाल उठाने और कह देने से इंसाफ तो नहीं मिल जाता है न.
इस पूरे केस में क्या गलतियां हुई हैं वो भी जान लीजिए. इतने सेंसिटिव केस पर ऐसी लापरवाही कि हत्यारा आजादी से कहीं घूम रहा होगा.
अदालत कह रही है- पुलिस ने 49 गवाहों में से 10 का क्रॉस एग्जैमिनेशन भी नहीं करवाया.
अदालत के सामने जो सबूत रखे गए उससे पता चलता है कि 13 फरवरी, 2012 को जो कार बरामद की गई थी उसकी सीट पर खून के धब्बे और सीमेन पाए गए थे. उसे जांच के लिए लैब भेजा गया था. सुप्रीम कोर्ट ने खून के धब्बे और सीमेन को जांच के लिए भेजे जाने के ब्योरे को भरोसे लायक नहीं माना.
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की मदद के लिए नियुक्त की गईं वकील सोनिया माथुर ने डीएनए रिपोर्ट पर सवाल उठाए थे. माथुर का कहना था कि नमूनों की कलेक्शन प्रोसेस शक के घेरे में है. उनका कहना था कि फोरेंसिक एविडेंस न तो वैज्ञानिक और न ही कानूनी रूप से साबित होता है.
कोर्ट ने कहा कि इस बात का कोई साफ सबूत नहीं है कि जब्त किए जाने के बाद से जांच के लिए CFSL भेजे जाने तक कार किसके पास थी. यह भी साफ नहीं था कि इस दौरान कार को सील किया गया था या नहीं. मतलब हर मोड़ पर लापरवाही.
पुलिस की लापरवाही ही नहीं लोअर कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट में क्या हुआ ये भी देखिए. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट ने इस बात की जांच नहीं की कि डीएनए रिपोर्ट का आधार क्या था और इसके लिए सही तकनीक का इस्तेमाल किया गया था या नहीं.
सुप्रीम कोर्ट ने इतना कुछ कहा फिर भी ऐसे जघन्य अपराध में कठोर संदेश क्यों नहीं दिया?
अगर जांच अधिकारी, पुलिस, जांच एजेंसी, अदालत ने गलती की तो सुप्रीम कोर्ट ने एक्शन क्यों नहीं लिया? क्यों नहीं ऐसा नजीर पेश किया कि आगे से किसी के साथ नाइंसाफी न हो.
ये फैसला, पुलिस से लेकर ज्यूडीशियल रिफॉर्म की कितनी जरूरत है इस बात को चीख-चीख बता रहा है.
आखिर में बस यही कहूंगा, पीड़ित पक्ष सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती देगा, शायद अदालत अपने फैसले पर दोबारा सोचे, लेकिन सवाल वही है कि 10 साल बाद कितने, कैसे और कहां से सबूत मिलेंगे? और जुमला घिसा पिटा है लेकिन मौजूं है, देर से दिया गया इंसाफ, इंसाफ नहीं. इसलिए हम पूछ रहे हैं जनाब ऐसे कैसे?
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)