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क्या मुसलमानों को हिंदू धर्म के हिसाब से अपनी संपत्ति का बंटवारा करना होगा, क्या उन्हें हिंदुओं की तरह एक शादी की इजाजत होगी. और क्या तलाक के लिए भी वैसे ही नियम कायदे होंगे? क्या भारत में अलग-अलग मजहब के पर्सनल लॉ नहीं होंगे. क्या है समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड (Uniform Civil Code)?
अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की बात हो या फिर कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा खत्म करने को लेकर आर्टिकल 370 हटाना. बीजेपी के चुनावी वादे की लिस्ट में इन दोनों के अलावा यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करना भी शामिल रहा है. 1989 के लोकसभा चुनाव में पहली बार भारतीय जनता पार्टी ने अपने घोषणापत्र में समान नागरिक संहिता की बात कही थी. और अब फिर से इस पर चर्चा शुरू है. आप के मन में भी सवाल होगा कि ये यूनिफॉर्म सिविल कोड आखिर है क्या, इससे आपके जिंदगी पर क्या असर पड़ेगा? चलिए तो एक-एककर इसे समझते हैं.
यूनिफॉर्म सिविल कोड क्या है?
यूनिफॉर्म सिविल कोड का सीधा-सा मतलब है, सभी नागरिकों के लिए समान कानून. मतलब चाहे हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई या कोई भी हो सबके लिए एक कानून. इसे आसान भाषा में ऐसे समझिए कि यूनिफॉर्म सिविल कोड में शादी-तलाक से लेकर, संपत्ति के बंटवारे, बच्चा गोद लेने जैसे मामलों में अलग-अलग धर्मों के मानने या किसी भी धर्म को न मानने वालों के लिए सभी नियम-कानून एक समान होंगे.
पर्सनल लॉ क्या है?
इसे ऐसे समझिए कि भारत में अभी शादी-तलाक, गोद लेना, संपत्ति बंटवारा-विरासत, उत्तराधिकार, गार्डियनशिप को लेकर अलग-अलग धर्म, आस्था और विश्वास के आधार पर उस धर्म के मानने वालों के लिए कानून बने हुए हैं. हिंदुओं के लिए अलग एक्ट, मुसलमानों के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ हैं.
अब यहां पर सवाल आता है कि भारत जैसे देश में जहां अलग-अलग धर्म के मानने वाले रहते हैं, अलग-अलग आस्थाएं हैं, मान्यताएं हैं, वहां किसके कानून को माना जाएगा?
समान कानून कैसे कारगार साबित होगा?
इस सवाल के जवाब से पहले थोड़ा पुराने पन्नों को पलटना होगा जाना जरूरी है और उस किताब को देखना होगा जिससे देश चलता है. यानी कि संविधान.
ऐसे तो आजादी से पहले अंग्रेजी हुकूमत के जमाने से ही पर्सनल लॉ और कॉमन लॉ के बीच बहस शुरू हो गई थी. लेकिन हम यहां आपको भारत के संविधान सभा की कहानी बताते हैं. साल 1948 में संविधान सभा में समान नागरिक संहिता को मौलिक अधिकार के रूप में संविधान में रखने के मुद्दे पर विवाद हुआ था, जो वोटिंग के बाद ही खत्म हो सका. 5:4 के बहुमत से सरदार वल्लभभाई पटेल की अध्यक्षता वाली मौलिक अधिकार उप-समिति ने माना कि यह प्रावधान मौलिक अधिकारों के दायरे से बाहर रखा जाएगा. मतलब ये fundamental rights में नहीं होगा.
अब एक मुद्दा हमेशा उठाया जाता है कि मुसलमानों के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ है, उनके अपने कानून हैं, ऐसा क्यों है? हिंदुओं या दूसरे और धर्मों के लिए ऐसे कानून क्यों नहीं हैं?
क्या सच में हिंदुओं के लिए कोई पर्सनल लॉ नहीं हैं?
जवाब है- हिंदुओं के लिए भी मुसलमानों की तरह पर्सनल लॉ हैं.
इसके लिए भी थोड़ा फ्लैशबैक में जाना होगा. ब्रिटिश सरकार ने 1941 में हिंदू कानून को संहिताबद्ध करने के लिए बी एन राव कमिटी बनाई. इस हिंदू लॉ कमिटी का काम कॉमन हिंदू लॉ की आवश्यकता की जांच करना था.
दिसंबर 1949 में भी हिंदू कोड बिल पर बहस हुई. तब 28 में से 23 सदस्यों ने इसका विरोध किया. जिसके बाद हिंदू कोड बिल पारित नहीं हो सका, लेकिन 1952 में हिन्दुओं की शादी और दूसरे मामलों पर अलग-अलग कोड बनाए गए.
जैसे कि-
हिंदू मैरिज एक्ट, 1955
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956
हिंदू अडॉप्टेशन और रखरखाव अधिनियम, 1956
उत्तराधिकार कानून में बेटियों को हिंदू संयुक्त परिवार की संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया गया. लेकिन साल 2005 में कानून में एक संशोधन किया गया जिसके बाद मौजूदा Hindu Personal Law में बेटियों को पूर्वजों की संपत्ति में बेटों के बराबर हक दिया गया.
हिन्दुओं के लिए बनाए गए कोड के दायरे में सिखों, बौद्ध और जैन धर्म के मानने वालों को भी लाया गया.
यूनिफॉर्म सिविल कोड से फायदा क्या है?
इसके समर्थन में तर्क ये दिया जाता है कि ये भारत के सभी नागरिकों को समान दर्जा देगा चाहे वे किसी भी समुदाय का क्यों न हो.
तर्क दिया जाता है कि अलग-अलग धर्मों के पर्सनल लॉ में अलग-अलग नियम कायदे हैं. शादी से लेकर उत्तराधिकार और गोद लेने जैसे मुद्दे में नियम अलग-अलग हैं, जिससे संविधान के आर्टिकल 14 यानी कि equality before the law टकराव होता है.
दूसरा उदाहरण देखिए, 2005 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (Hindu Succession Act) में संशोधन के बाद भी, शादी के बाद भी महिलाओं को उनके पति के परिवार का हिस्सा माना जाता है. इसलिए, अगर कोई हिंदू विधवा बिना किसी उत्तराधिकारी या वसीयत के मर जाती है, तो उसकी संपत्ति खुद ब खुद ही उसके पति के परिवार में चली जाएगी.
इसलिए कहा जाता है कि UCC आने से जेंडर इक्वालिटी भी होगी. अब आते हैं उस तर्क पर जिसमें कहा जाता है कि UCC सही नहीं है और इसे नहीं लागू किया जाना चाहिए.
समान नागरिक संहिता के विरोध में तर्क क्या हैं?
भले ही UCC में समानता की बात हो रही हो लेकिन यूसीसी का विचार धर्म की स्वतंत्रता (freedom of religion) के अधिकार जोकि संविधान के आर्टिकल 25 में दिया है उससे टकराता है.
अलग पर्सनल लॉ लोगों को उनके धर्म के नियमों को मानने का अधिकार देता है.
UCC को नहीं लागू करने के पीछे एक अहम तर्क ये भी है कि जब भारत में कई सारे धर्म और मान्यताएं हैं ऐसे में अगर समान नागरिक संहिता लागू होता है तो शादी-तलाक, सपंत्ति बंटवारे जैसे मामले पर किस धर्म की बात मानी जाएगी? कहीं बहुसंख्यक सोच को अल्पसंख्यकों पर थोपा तो नहीं जाएगा?
साथ ही सवाल है कि भारत में सिर्फ पर्सनल लॉ ही नहीं हैं जिसके हिसाब से शादी-तलाक होते हैं. बल्कि और भी 'सेक्यूलर' कानून हैं, जो पूरी तरह से धर्म से अलग हैं, जैसे कि special marriage act, जिसके तहत कोई भी शादी कर सकता है, खास तौर पर Inter-religion marriages होते हैं. भारत में बच्चा गोद लेने के लिए पहले से ही एक धर्मनिरपेक्ष 'जुवेनाइल जस्टिस' लॉ है जो नागरिकों को धर्म के बंदिशों से अलग गोद लेने का रास्ता बनाता है, तो फिर कॉमन सिविल कोड में नया क्या होगा?
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