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पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) पर केंद्र सरकार ने शिकंजा कसते हुए 5 साल का बैन लगा दिया है. गृह मंत्रालय ने PFI को 5 साल के लिए 'प्रतिबंधित संगठन' घोषित किया है. देश के कई राज्यों में PFI पर NIA की छापेमारी के बाद ये कार्रवाई हुई है. PFI के अलावा 8 सहयोगी संगठनों पर भी बैन लगाया गया है.
पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) पिछले कुछ सालों में कई बार सुर्खियों में आ चुका है. हाल में कानपुर हिंसा और पूरे भारत में सीएए-एनआरसी के खिलाफ हुए आंदोलन के दौरान भी इसका नाम सामने आया. इस दौरान इस पर प्रतिबंध लगाने की भी मांग उठाई गई थी. पीएफआई पर आरोप लगाया जाता है कि यह मुस्लिम युवाओं को कट्टरपंथी बनाता है.
आइए जानते हैं कि यह संगठन क्यों बनाया गया, इसका इतिहास क्या है?
साल 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद तीन मुस्लिम संगठनों- नेशनल डेवलमेंट फ्रंट (NDF), कर्नाटक फोरम फॉर डिग्निटी (KFD) और तमिलनाडु के मनीथा नीति पासारी के विलय के बाद 2006 के दौरान केरल में पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) शुरू किया गया था.
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक पीएफआई का दावा है कि देश के 22 राज्यों में उसकी यूनिट्स हैं. इस संगठन का हेडक्वार्टर पहले केरल के कोझीकोड में था, लेकिन विस्तार हो जाने के बाद इसे दिल्ली ट्रांसफर कर दिया गया.
पीएफआई ने खुद को एक ऐसे संगठन के रूप में पेश किया है, जो अल्पसंख्यकों, दलितों और हाशिए के समुदायों के अधिकारों के लिए लड़ता है. इसने कर्नाटक में कांग्रेस, बीजेपी और जेडी-एस की कथित जनविरोधी नीतियों को कई बार निशाने पर लिया है, जबकि इन पार्टियों ने एक दूसरे पर मुसलमानों का चुनावी समर्थन हासिल करने के लिए पीएफआई के साथ मिलीभगत का आरोप लगाया है.
पीएफआई ने खुद कभी चुनाव नहीं लड़ा है. यह मुसलमानों के बीच सामाजिक और इस्लामी धार्मिक कार्यों को करने का दावा करता है.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक पीएफआई, दक्षिणपंथी समूहों की तरह, अपने सदस्यों के रिकॉर्ड नहीं रखता है.
2009 में, सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (SDPI) नाम का एक राजनीतिक संगठन PFI से निकला, जिसका उद्देश्य मुसलमानों, दलितों और अन्य हाशिए पर खड़े समुदायों के राजनीतिक मुद्दों को उठाना था. एसडीपीआई का कहना है कि उसका टारगेट "मुसलमानों, दलितों, पिछड़े वर्गों और आदिवासियों सहित सभी नागरिकों का विकास" है और "सभी नागरिकों के बीच उचित रूप से सत्ता साझा करना" है.
साल 2012 में ओमन चांडी की अध्यक्षता वाली कांग्रेस की केरल सरकार ने हाईकोर्ट को बताया था कि पीएफआई प्रतिबंधित संगठन स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (SIMI) के जैसा ही एक ऑर्गनाइजेशन है. सरकारी हलफनामे में कहा गया है कि पीएफआई के कार्यकर्ता हत्या के 27 मामलों में शामिल थे.
इसके दो साल बाद केरल सरकार ने एक अन्य हलफनामे में हाईकोर्ट को बताया कि पीएफआई का एक गुप्त एजेंडा इस्लाम के लाभ के लिए धर्मांतरण, मुद्दों के सांप्रदायिकरण को बढ़ावा देकर समाज का इस्लामीकरण करना है.
हलफनामे में दोहराया गया कि राज्य में सांप्रदायिक रूप से प्रेरित हत्याओं के 27 मामलों में, हत्या के प्रयास के 86 मामलों और सांप्रदायिक प्रकृति के 106 मामलों में पीएफआई और नेशनल डेवलमेंट फ्रंट (NDF) के कार्यकर्ता शामिल थे.
इसके बाद केरल बीजेपी ने राज्य में एक अभियान शुरू करने का ऐलान किया, जिसका मुख्य टारगेट पीएफआई था.
इसी साल 15 अप्रैल को पीएफआई के एलापुल्ली (पलक्कड़ जिला) क्षेत्र के अध्यक्ष और एसडीपीआई के एक सदस्य ए सुबैर (44) की एक मस्जिद के बाहर हत्या कर दी गई. संगठन ने आरोप लगाया कि यह हत्या आरएसएस और बीजेपी के कार्याकर्ताओं ने की है.
पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) का असर मुख्य रूप से बड़ी मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों में है. एसडीपीआई ने तटीय दक्षिण कन्नड़ और उडुपी में अपना प्रभाव जमाया है, जहां वह गांव, कस्बों और नगर परिषदों के लिए स्थानीय चुनाव जीतने में कामयाब रही है. 2013 तक एसडीपीआई ने केवल स्थानीय चुनाव लड़ा था और राज्य के आसपास के 21 नागरिक निर्वाचन क्षेत्रों में सीटें जीती थीं.
2018 तक, उसने स्थानीय निकाय की 121 सीटें जीती थीं और 2021 में इसने उडुपी जिले में तीन स्थानीय परिषदों पर कब्जा कर लिया.
2013 के बाद से एसडीपीआई ने कर्नाटक विधानसभा और संसद के चुनावों में उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है. इसका सबसे विश्वसनीय प्रदर्शन 2013 के राज्य चुनावों में आया, जब यह नरसिम्हाराजा सीट पर दूसरे स्थान पर रहा, जो मैसूर लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है.
2016 के विधानसभा चुनाव में एसडीपीआई ने कई सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन राज्य में उसे एक फीसदी से भी कम वोट मिले थे.
2018 में एसडीपीआई नरसिम्हाराजा में कांग्रेस और बीजेपी के बाद तीसरे स्थान पर रही, जिसने 20 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल किए.
एसडीपीआई ने दक्षिण कन्नड़ सीट के लिए 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव भी लड़ा था लेकिन उसे 1 फीसदी और 3 फीसदी वोट ही मिले थे.
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