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वीडियो एडिटर: संदीप सुमन
ठंडा ठंडा कूल कूल
बांग्लाए एबार पद्म फूल!
23 मई से पहले बहुत लोग ये मानने को तैयार नहीं थे कि बंगाल की सड़कों पर किसी दिन ये नारा भी सुनाई देगा. लेकिन 18 सीट और 40% वोट शेयर हासिल कर बीजेपी सोनार बांग्ला को भगवा बंगाल बनाने की तरफ आगे बढ़ गई है. इसके बाद पार्टी का बंगाल में सिर्फ एक ही एजेंडा है-2021 का विधानसभा चुनाव.
2016 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस 292 में से 211 सीट जीतकर दूसरी बार सत्ता में आई थी लेकिन जमीन पर अब जो हालात हैं उससे यही लगता है कि अगला विधानसभा चुनाव उनके लिए इतना आसान नहीं होगा. बंगाल में कमल का कमाल रोकने के लिए ममता बनर्जी को आगे क्या करना होगा? समझा रही हैं कि पूरे पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव कवरेज कर लौटीं इशाद्रिता...
इस लोकसभा चुनाव में बीजेपी की बड़ी उपलब्धि ये थी कि उसने ग्रामीण बंगाल में शानदार प्रदर्शन किया. ये वही ग्रामीण बंगाल है, जहां के सपोर्ट के कारण ममता बनर्जी 2011 और 2016 में भी सत्ता में आई थीं. हैरानी की बात ये है कि राज्य सरकार की सारी ग्रामीण केंद्रित कल्याणकारी योजनाएं कन्याश्री और रूपाश्री बेहद लोकप्रिय रही हैं. तो फिर ग्रामीण बंगाल ने टीएमसी पर ममता क्यों नहीं दिखाई?
ऐसा लग रहा है कि बंगाल की ग्रामीण जनता को लोकल नेता और बाहुबलियों का खुलेआम हिंसा, भ्रष्टाचार करना और फिर पुलिस और प्रशासन का उससे नजर हटा लेना रास नहीं आया. इसका सबसे बड़ा उदाहरण है पंचायत चुनाव में 50 लोगों की हुई मौत. चुनाव में 34% सीट टीएमसी निर्विरोध ही जीत गई थी. लेफ्ट फ्रंट के जमाने में हिंसा से त्रस्त होकर ही लोगों ने उसे हराया था. अब जब यही तृणमूल के समय में हो रहा है, जो ममता बनर्जी के खिलाफ जाता दिख रहा है.
ममता काफी कोशिशों के बावजूद बंगाल के पहाड़ी इलाकों का भरोसा नहीं जीत पाईं हैं. गोरखालैंड के अंडरकरंट को सरकार नहीं दबा पाई. ‘सन ऑफ द सॉयल’ को सरकार में जगह देने की बात भी लोगों को ठीक नहीं लगी. ऊपर से बीजेपी का NRC (नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स ऑफ इंडिया) पर रुख और उनका ये कहना कि ममता घुसपैठियों को आश्रय दे रही हैं, कूच बिहार जैसे बॉर्डर जिलों में काम कर गए.
अगर जंगलमहल की बात करें तो टीएमसी की हार का एक बड़ा कारण है आरएसएस. आदिवासी इलाकों में बीजेपी और आरएसएस ने अपना विस्तार करने के लिए काफी काम किया है. आरएसएस ने इस इलाके में काफी सारे स्कूल खोले और सामाजिक काम किए हैं. चुनाव नतीजों से ये लग रहा है कि तृणमूल शायद आरएसएस की पहुंच का अनुमान नहीं लगा पाई.
टीएमसी कार्यकर्ताओं में फूट भी पार्टी को हुए नुकसान की वजह मानी जा रही है, खासकर आदिवासी इलाकों में. यहां कई कार्यकर्ता प्रचार तो टीएमसी के लिए कर रहे थे, लेकिन वोट बीजेपी को दिला रहे थे. रानाघाट और बालुरघाट जैसी सीटों पर सही उम्मीदवार न मिलने से खफा TMC कार्यकर्ताओं ने अपनी ही पार्टी के खिलाफ काम किया. ग्राउंड लेवल और टॉप मैनेजमेंट के बीच काम कर रहे लोगों ने पार्टी आलाकमान तक ये बात नहीं पहुंचाई. जब तक ये जानकारी ऊपर पहुंची, देर हो चुकी थी. अब ऐसे लोगों की पहचान कर एक्शन लेने की जरूरत है.
बंगाल में रामनवमी से किसको फर्क पड़ता है? पूछा था कोलकाता के भद्रलोक ने. रिजल्ट के बाद पता चल गया कि कोलकाता के बाहर सबको फर्क पड़ता है. इसका सबूत यही है कि हुगली, बैरकपुर, आसनसोल, बर्धमान, दुर्गापुर जैसे इलाकों में बीजेपी ने अपना झंडा गाड़ दिया.
बीजेपी ने जो ममता की हिंदू विरोधी, दुर्गा पूजा विरोधी, राम विरोधी छवि बनाई थी, इसने इन इलाकों के हिंदू वोटर्स पर काफी असर डाला और ममता ऐसी लड़ाई के लिए तैयार नहीं दिखीं. हालांकि रैलियों में मंत्र जाप करके उन्होंने हिंदू वोटर्स को लुभाने की भरपूर कोशिश की. दीदी को अभी पूरा फोकस हिंदू वोटर्स को अपनी तरफ खींचने पर करना होगा. मुस्लिम वोट बैंक को बचाए रखते हुए वो ये कैसे करेंगी ये देखना दिलचस्प होगा.
एक बात तय है कि लोकसभा चुनाव खत्म होने से बंगाल में सियासी दंगल खत्म नहीं, शुरू हुई है.
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