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देश के नामचीन विश्वविद्यालयों में से एक और अपनी विशेष राजनीतिक-पद्यति के लिए जाने-जाने वाले दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) ने अपने छात्र-संघ (JNUSU- जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स यूनियन) के चुनाव की तारीख की घोषणा कर दी है. ये चुनाव 14 सितंबर, 2018 को होगा.
अन्य विश्विद्यालयों की अपेक्षा JNUSU चुनाव को लेकर हमेशा से ही मीडिया, बुद्धिजीवियों और नेताओं की उत्साह भरी निगाह बनी रहती है. 9 फरवरी 2016 को हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद से तो इस पर नजर और भी ज्यादा बढ़ गई है, जब यहां पर कथित रूप से देश-विरोधी नारे लगाए गए थे. इसको लेकर के पूरे देश में बवाल मचा था.
चुनावी बिगुल बजने के साथ ही कैंपस में सभी विचारधाराओं के संगठनों ने राजनीतिक गतिविधियां तेज कर दी हैं. ज्यादातर लोगों के मन में यह धारणा बनी हुई है कि जेएनयू छात्र-संघ चुनाव बस “डफली, कामरेड, लाल-सलाम, क्यूबा, सोवियत-संघ और झोला-कुर्ते” के ही बारे में होता है जहां पर सिर्फ वामपंथी संगठन ही मौजूद हैं. लेकिन जेएनयू चुनाव में इसके अलावा भी बहुत कुछ है, जो इसको अलग और विशेष बनता है.
यहां पर अगर बाल्टिक देशों की बात होती है, तो बाल्टी में आ रहे खराब पानी को भी मुद्दा बनाया जाता है और संगठनों द्वारा एक दूसरे को घेरा जाता है. आम छात्र-संघ चुनावों के मुकाबले JNUSU के चुनाव में आज भी न तो धन-बल का कोई प्रभाव है, और न ही बाहुबल का. इसी वजह से यहां कोई भी छात्र चुनाव लड़ सकता है, फिर चाहे वो छात्र किसी छात्र-संगठन से हो या स्वतंत्र हो.
जेएनयू में एक तरफ भाकपा-माले, माकपा आदि वामपंथी दलों की छात्र इकाई (AISA, SFI) हैं तो दूसरी दक्षिणपंथी विचारधारा वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (ABVP) भी मौजूद है.
जेएनयू में सन 2015 से अस्तित्व में आया अम्बेडकरवादी विचारधारा से ताल्लुक रखने वाला संगठन BAPSA (बिरसा अम्बेडकर फूले स्टूडेंट्स एसोसिएशन) और कांग्रेस की छात्र-इकाई NSUI (नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ इंडिया) भी मौजूद है. इन सब के बीच लालू प्रसाद की पार्टी राजद की छात्र-इकाई ‘छात्र राजद’ भी पहली बार जेएनयू के चुनावी मैदान में उतर रही है.
अन्य विश्वविद्यालयों से इतर जेएनयू में छात्र-संघ चुनाव प्रशासन द्वारा नहीं करवाए जाते, बल्कि जेएनयू छात्रों द्वारा चुने हुए चुनाव आयोग (इलेक्शन कमीशन, EC) को यह जिम्मेदारी दी जाती है, जो अपने में से ही मुख्य चुनाव अधिकारी का चयन करता है.
जिस तरह विश्वविद्यालयों के अंदर कॉलेज होते हैं, उसी तरह जेएनयू के अन्दर अलग अलग स्कूल हैं, जहां विभिन्न विषयों की पढ़ाई होती है. जैसे स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज (SSS), जहां सामाजिक विज्ञान पढ़ाया जाता है या फिर स्कूल ऑफ लैंग्वेज (SL), जिसमें भाषाओं (भारतीय एवं अंतरराष्ट्रीय) के ऊपर अध्ययन और शोध किया जाता है.
इस रिपोर्ट पर स्कूल के सभी छात्र अपने वक्तव्य के माध्यम से अपनी राय रखते हैं और आम छात्रों से इसको पास या खारिज करने की अपील करते हैं. एक तरफ सत्ताधारी संगठन का यह प्रयास होता है कि यह रिपोर्ट भारी मतों से पास हो जाए, जिससे उसे चुनावों में नैतिक बढ़त हासिल हो सके, दूसरी ओर विपक्षी संगठनों की यह कोशिश होती है कि किसी भी तरह रिपोर्ट को खारिज करवाया जाए, जिससे सत्ताधारी संगठन की वैधानिकता के ऊपर सवालिया निशान लगाया जा सके.
अनेक मुद्दों पर रात्रि-भोजन के बाद विश्वविद्यालय स्तर पर भी इसी तरह की जनरल बॉडी मीटिंग (GBM) का आयोजन किया जाता है, जो पूरी रात चलता है, यहां तक कि कई बार तो यह सुबह नाश्ते के वक्त जा कर समाप्त होता है.
जेएनयू में EVM मशीन के बजाए आज भी चुनाव बैलेट पेपर के माध्यम से होते हैं. छात्र-संघ चुनाव में सुधार के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2005 में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह की अध्यक्षता में बनाई गई छह सदस्यीय लिंगदोह कमेटी की सिफारिशें लागू होने के पहले से भी जेएनयू में चुनाव बेहद लोकतान्त्रिक, पारदर्शी और साफ-सुथरे ढंग से हुआ करते थे.
अलग-अलग विचारधाराओं को मानने वाले संगठन चुनाव में अपनी विचारधारा के दम पर चुनाव जीतने की कोशिश करते हैं और राष्ट्रीय राजनीति में मौजूद सभी विचारधाराएं कैंपस में भी हैं, जिससे कैंपस की राजनीति बेहद दिलचस्प हो जाती है. लेकिन कैंपस-राजनीति की सबसे बड़ी विशेषता है कि JNUSU के अध्यक्ष पद के विभिन्न संगठनों द्वारा खड़े किये गए प्रत्याशियों के बीच हर साल चुनाव के कुछ दिन पहले अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव के तर्ज पर एक खुली बहस का आयोजन किया जाता है, जिसे सुनने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं. सभी प्रत्याशियों से वहां मौजूद लोगों और प्रतिद्वंद्वियों द्वारा अलग-अलग विषयों पर सवाल पूछा जाता है.
इसी कारण काफी हद तक मतदाताओं का रुझान प्रत्याशियों के भाषण और उनसे पूछे हुए प्रश्नों के उत्तर पर निर्भर करता है. जेएनयू के छात्र संघ चुनाव की प्रक्रिया और कार्यशैली अपने आप में एक उदहारण प्रस्तुत करती है, जिसको देश के अन्य विश्विद्यालयों को अपनाना चाहिए, ताकि छात्र-राजनीति धनबल और बहुबल के बजाए छात्र-हित के मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमें. गरीब से गरीब छात्र भी सिर्फ मतदाता बन कर नहीं, बल्कि प्रत्याशी बन कर हिस्सा ले सके.
सरकार को भी चाहिए कि देश के सभी विश्वविद्यालयों में छात्र-संघ चुनाव बहाल करे, ताकि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को और मजबूत बनाया जा सके.
(ये आर्टिकल पवन चौरसिया ने लिखा है, जो इंटरनेशनल स्टडीज एसआईएस, जेएनयू के पीएचडी कैंडिडेट हैं. इस आर्टिकल में लिखे विचार उनके हैं. क्विंट का उनके विचार से सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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