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1991 के भारत के आर्थिक सुधारों के पीछे एकमात्र ताकत के तौर पर पीवी नरसिम्हा राव, वित्त और वाणिज्य मंत्रालयों में उनके साथियों के साथ-साथ भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) को देखा जाता है. इन सब के बीच बड़े पैमाने पर एक मंत्री पंडित सुख राम (1927-2022) का योगदान भुला दिया गया, जो कि उस समय संचार मंत्री थे. उन्हें पूरे आदर और प्रेम से भारत में दूरसंचार क्रांति के पिता के तौर पर केवल उनके गृह राज्य में (छोटे से हिमाचल प्रदेश में) याद किया जाता है.
तथ्य यह है कि वित्त और वाणिज्य मंत्रालयों के बाहर कुछ लोग ही ऐसे थे जिन्होंने आर्थिक सुधारों का समर्थन किया था. सुधारों की असमान गति का यह प्रमुख कारण था. प्रतियोगिता, निजी क्षेत्र और मुनाफा जैसे शब्द अधिकांश राजनेताओं और नौकरशाहों के लिए 'गंदे' बने रहे. लेकिन मोंटेक सिंह अहलूवालिया (जिन्हें मनमोहन सिंह द्वारा एक गुप्त मिशन पर भेजा गया था) की बातचीत से प्रभावित होकर सुख राम की धारणा बदल (वे पीएसयू यानी सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम के सहायक बन गए थे) गई थी.
तब और अब आर्थिक सुधारों को दो तरह से लागू किया जाता है : पहला, हवा में और दूसरा जमीनी स्तर पर. व्यापार, मौद्रिक और राजकोषीय नीतियां पूर्व के उत्कृष्ट और सफलता के चमकदार उदाहरण हैं. सुधारों के सभी चैंपियनों (वित्तीय जादूगरों) ने हवा में अपनी अच्छी-खासी वाहवाही अर्जित की है. पंडित सुख राम सुधारों के शुरुआती दिनों में जमीनी स्तर (जहां वास्तविक संघर्ष और गतिविधि हुई थी) पर एकमात्र सफल व्यक्ति थे. आज भी नीति बनाना एक अलग बात है, उसे जमीनी स्तर पर लागू करना बिलकुल दूसरी बात है. बाद के लिए सुख राम अच्छे और बुरे दोनों कारणों से ध्यान देने योग्य हैं.
सुख राम के आलोचक उनकी सफलता के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं. आर्थिक सुधारों की सफलता के लिए सक्रिय पीएमओ जरूरी है, लेकिन इसके लिए वह पर्याप्त कारक नहीं है. पीवी नरसिम्हा राव निर्विवाद प्रचारक थे, लेकिन जमीन स्तर पर काम करने वाले के बिना कुछ भी नहीं होता. इस बात को दो उदाहरण स्पष्ट करते हैं. 1991 में सुधार प्रक्रिया के तीन जमीनी स्तंभों के तौर पर बैंकिंग, बिजली और दूरसंचार को निर्धारित किया गया था. एएन वर्मा द्वारा तमाम ताकत लगाने के बावजूद बिजली मंत्रालय को पीएमओ हिला नहीं पाया. आर्थिक उदारीकरण के वास्तुकारों को प्रधान मंत्री द्वारा समर्थन प्राप्त था और उन्हें नॉर्थ ब्लॉक (सुधारों के गढ़) से मार्गदर्शित किया जा रहा था इसके बावजूद भी यूनियनों ने करीब एक दशक तक बैंकिंग सुधारों का विरोध किया. नरसिम्हा राव के कार्यकाल में केवल दूरसंचार की प्रगति शानदार थी.
इस प्रक्रिया में बिना किसी कारण के सुख राम ने अपने हाथों और प्रतिष्ठा को मिट्टी में मिलाया.
केवल सुख राम ही इसलिए दागी हो गए, क्योंकि उन्होंने खुद अकेले अपने कंधों पर रखकर बंदूक चलाई थी. यह स्पष्टीकरण के योग्य है. यह बात किसी से नहीं छिपी है कि संचार भवन ने दूरसंचार की शुरूआत के खिलाफ जोरदार लड़ाई लड़ी थी. यह महसूस करते हुए कि यह लड़ाई एक दीवार के खिलाफ थी, पीएमओ ने दो रणनीतिक बदलाव किए. पहला, राजेश पायलट को संचार भवन जहां उनके पास संचार विभाग का स्वतंत्र प्रभार था से हटाकर राज्य मंत्री के तौर पर गृह मंत्रालय में भेज दिया गया था. उनका स्वतंत्र प्रभार छिन गया थाा. उनकी जगह सुख राम को लाया गया. यह कोई ऐसे ही उठाया गया कदम नहीं था.
दूसरा, सचिव दूरसंचार का पद भारतीय दूरसंचार सेवा से हटा दिया गया था और प्रसिद्ध एन विट्ठल को IAS को दूरसंचार आयोग के पहले बाहरी सचिव और अध्यक्ष के तौर पर लाया गया था. जैसा कि अंदरूनी सूत्रों को पता है, दूरसंचार आयोग की बैठकों के साथ-साथ मंत्री की ब्रीफिंग में भी विट्ठल इस तरह से शामिल होते थे जैसे उन्हें कुछ पता ही नहीं. उन्हें दूरसंचार आयोग के अध्यक्ष के पद से हटाते समय प्रलोभन के तौर पर सचिव बना दिया गया था. उनकी रैंक में बढ़ोत्तरी आयोग के पूर्णकालिक टेक्नोक्रेट सदस्यों की ताकत के कारण हुई थी, इसके लिए उनका धन्यवाद. जैसे ही विट्ठल अपना मुंह खोलते, वैसे ही उनके चारों ओर से फायरिंग शुरु हो जाती थी. हर बैठक के बाद विट्ठल पीएमो को चकमा देते थे जिससे सुख राम बहुत चिढ़ते थे.
दुर्भाग्य से, एएन वर्मा उन बैठकों की अध्यक्षता नहीं कर सके, जिनसे विट्ठल भयभीत थे और किसी भी मामले में सुख राम उन्हें दूरस्थ स्थान से फैसले लेने की अनुमति नहीं देते थे. असंगत नोटों और एक असहाय सचिव से तंग आकर सुख राम ने महसूस किया कि उन्हें अपना खुद का परामर्शदाता बनना होगा. यह उनके पतन की वजह बना, लेकिन यह बहुत बाद की बात है.
नीति बनाने की प्रक्रिया से इतना हंगामा हुआ कि मंत्री द्वारा फाइल पर लिए गए निर्णय भी दूरसंचार आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों द्वारा पुनर्विचार के लिए वापस भेज दिए जाते थे. एक असाधारण अड़ियल अधिकारी जिसने "लाइसेंस राज अनुभव" का हवाला दिया था उससे सुख राम ने सख्ती से कहा था कि "इधर देखिए, आप लोग जितने समय से सरकार में नहीं हैं उससे ज्यादा समय से मैं मंत्री रहा हूं और अब से मेरे फैसले के नीचे कोई विरोधाभासी टिप्पणी नहीं होगी."
यहां पर यह बताना महत्वपूर्ण है कि सुख राम ने अपनी फाइलों में छेड़छाड़ नहीं करने दी, अधिकारियों को वह लिखने की अनुमति दी जो वे महसूस करते थे और रिकॉर्ड पर उन्हें खारिज कर दिया. बाद में वह जिन मामलों की वजह से मुश्किलों में फंसे उस अंतिम निर्णय में उनका हाथ ही पाया गया था. भले निर्णय व्यक्तिपरक थे लेकिन उनका तर्क हमेशा दिया गया था. निर्णय लेने में जो अधिकारी शामिल थे उनमें से कोई भी मुश्किलों में नहीं पड़ा. केवल वहीं फंसे जिनका निर्णय लेने में कोई लेना-देना नहीं था.
इस तरह भारत के दूरसंचार उद्योग को प्रतिस्पर्धा और निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया. देश को मोबाइल टेलीफोनी से परिचित कराया गया, एक प्रमुख सरकारी विभाग का कॉर्पोरेटीकरण (निगमीकरण) किया गया और तीन साल से कम समय में नई लैंडलाइन स्थापित करने की इसकी क्षमता जो 6 लाख से कम थी वह बढ़कर प्रति वर्ष 24 लाख से अधिक के आंकड़े पर पहुंच गई. सीडीओटी (Centre for Development of Telematics) ने भारत में निर्मित 10k डिजिटल एक्सचेंज का उत्पादन किया, भारतीय टेलीफोन उद्योग (ITI) ने दुनिया के अग्रणी स्विच-निर्माताओं के साथ काम किया, दूरसंचार कंसल्टेंट्स इंडिया लिमिटेड (TCIL) मध्य पूर्व से आगे बढ़ते हुए अफ्रीका तक पहुंच गया, वीएसएनएल ने देश का पहला जीडीआर (ग्लोबल डिपॉजिटरी रिसीट्स) जारी किया और भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (TRAI) का जन्म हुआ.
दिलचस्प बात यह है कि सुख राम द्वारा सबसे अधिक बोली लगाने वाले नए खिलाड़ियों को लाइसेंस दिया गया था. बाद में फिक्स्ड लाइसेंस फीस को रेवेन्यू शेयर मॉडल में परिवर्तित कर दिया गया था.
अपवाद के बिना, नामांकन पद्धति के माध्यम से प्रवेश करने की इच्छुक पार्टियों ने अंतर्राष्ट्रीय परामर्शों (international consultations) पर कब्जा कर लिया था.
अब की तरह ही तब भी नौकरशाही सरकार के लाइसेंस राज को जाने देने का निर्णय लेने को लेकर सतर्क थी. मीडिया अभी की तरह ही घोटालों की तलाश में था. हर कोई सुधारों के विफल होने का इंतजार कर रहा था. कोई भी परीक्षण और गलती के लिए छूट देने के लिए तैयार नहीं था.
जहां फरिश्ते चलने से डरते हैं, वहीं मूर्ख जल्दी करने के लिए जाने जाते हैं. सुख राम ने भी यही किया और किसी प्रलोभन के बिना. अपने गुरु पीवी नरसिम्हा राव की तरह उन्होंने भी अपनी उंगलियां जला लीं. लेकिन फिर, जब हम उनके गुरु की मूर्खता को नजरअंदाज करने के लिए तैयार हैं, तो सुख राम को एक अग्रणी सुधार के श्रेय से वंचित क्यों किया जाए?
ऐसा नहीं है कि समकालीन पर्यवेक्षक पंडित सुख राम की सुधारवादी साख और जमीनी उपलब्धियों से अनजान हैं. परिस्थितियों ने उन्हें चुप करा दिया है. वे जमीनी स्तर के राजनेता थे और बहुत विनम्र बैकग्राउंड से आए थे. वह अभिजात्य दिल्ली के तौर-तरीकों में पारंगत नहीं थे. अंग्रेजी मीडिया ने उन्हें कभी भी पसंद नहीं किया था. वह उद्योग या बहुराष्ट्रीय कॉर्पाेरेशन्स के बड़े लोगों के साथ सहज नहीं थे. नीलामी के पहले दौर के विजेता में घरेलू या अंतर्राष्ट्रीय बड़ा नाम कोई भी नहीं था. सबसे सफल अज्ञात भारती एयरटेल था!
राजनीतिक वर्ग को अभी तक दूरसंचार की शक्ति का एहसास नहीं हुआ था. जब इसकी ताकत का अहसास हुआ तब सुख राम सबकी ईर्ष्या के पात्र बन गए. पीछे मुड़कर देखने पर, वह शायद जितना उठा सकते थे, उससे ज्यादा रिस्क उठाया. जब सुख राम इसकी जांच के दायरे में आए तो चार सांसदों वाला राज्य और कई छोटे जो उनके समय में बड़े बन गए थे, वे इस तूफान को नहीं झेल पाए.
नरसिम्हा राव के प्रधान सचिव के सामने कभी न झुकने वाले एक मात्र मंत्री सुख राम थे. एएन वर्मा इस बात से हमेशा नाराज रहते थे कि जब भी मंत्री उनका कॉल लेते थे तब उनका कॉल होल्ड पर डाल दिया जाता था.
परिवार के वफादार सीताराम केसरी ने एक बार सुख राम से प्रधानमंत्री से उनकी बढ़ती नजदीकियों को लेकर सवाल किया था. इस पर सुख राम ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि हाई कमांड से उनकी नजदीकी लाजमी है, इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि उस पद पर कौन बैठा है.
(लेखक पोस्टल सर्विसेज बोर्ड के पूर्व सदस्य हैं. वे @PalsAshok से ट्वीट करते हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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