advertisement
उत्तर प्रदेश के बाद अब महाराष्ट्र ही वो अहम राज्य है, जो 2019 में एनडीए और यूपीए गठबंधन की हार-जीत का फैसला करेगा. यही वजह है कि बीजेपी किसी भी कीमत पर शिवसेना के लिए मैदान छोड़ने को तैयार नहीं है.
पालघर में बीजेपी और गोंदिया-भंडारा में एनसीपी की जीत ने महाराष्ट्र की राजनीतिक तस्वीर को काफी बदल दिया है. इन उपचुनावों में सबसे ज्यादा नुकसान में रही है शिवसेना. पालघर लोकसभा सीट पर बीजेपी की जीत ने एनडीए से अलग होने के शिवसेना के तेवरों की हवा निकाल दी है.
पालघर में जिस तरह महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने अपने सहयोगी की नाराजगी को अनदेखा कर जीत हासिल की है, उसके बाद शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे के पास 2019 में बीजेपी के साथ ही रहने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है.
बीजेपी और शिवसेना के वोटों को मिलाकर देखें तो पिछले कई चुनावों में कांग्रेस-एनसीपी से उसे ज्यादा वोट मिले हैं. महाराष्ट्र में लोकसभा की 48 सीटें हैं. पिछली बार दोनों ने मिलकर 42 सीटें जीती थीं. अगर दोनों पार्टियां अलग-अलग लड़ेंगी तो कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को इससे फायदा होगा.
पालघर लोकसभा सीट पर कई दशक बाद दोनों पार्टियां अलग-अलग लड़ीं. इस सीट के परिणाम ने शिवसेना को परेशान कर दिया होगा.
इसके अलावा वसई, नालासोपारा जैसे शहरी इलाकों में भी बीजेपी 6 से 10 हजार वोटों से आगे है. शिवसेना के लिए सबसे परेशान करने वाली बात ये है कि इन शहरी सीटों में शिवसेना से ज्यादा वोट बहुजन विकास अघाड़ी (बीवीए) को मिले हैं. सिर्फ बोइसर ही ऐसी सीट है, जहां बीजेपी को शिवसेना ने पीछे छोड़ा है.
महाराष्ट्र और केंद्र में सत्ता में रहने के बावजूद शिवसेना विपक्षियों की तरह पेश आ रही थी. लेकिन बदले हुए हालात ने पार्टी को आटे-दाल का भाव याद दिला दिया होगा. शायद यही वजह है कि सहयोगी से ही चुनाव हारने के बाद भी उद्धव ठाकरे अंतिम फैसला करने के मूड में नहीं हैं.
महाराष्ट्र की राजनीति को करीब से जानने वालों के मुताबिक, शिवसेना की रणनीति बीजेपी पर दबाव बनाने की है. ये सही है कि 2019 में दोनों को एक दूसरे के साथ की जरूरत है, इसलिए वो कुछ मोलभाव करने के बाद बीजेपी से गठबंधन को तैयार हो जाएगी. दोनों पार्टियों के पास विकल्प नहीं हैं और शिवसेना को अकेले लड़ने में ज्यादा नुकसान है.
ये भी पढे़ं- नीतीश के लिए चेतावनी जैसा है जोकीहाट का नतीजा,2019 में क्या होगा?
शिवसेना अब यही दबाव बनाएगी कि बीजेपी पुराने फॉर्मूले पर ही गठबंधन के लिए तैयार हो जाए. दोनों पार्टियों के बीच दो दशकों से भी ज्यादा से गठबंधन दो बंबुओं पर टिका था.
पिक्चर की कहानी पालघर इंटरवल के बाद बदल गई लगती है. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और मुख्यमंत्री फडणवीस भी शिवसेना के बारे में कड़वे बोल नहीं बोल रहे हैं जो संकेत देता है कि 2019 में शिवसेना-बीजेपी का ‘तलाक’ होने के आसार नहीं है.
बाल ठाकरे के वक्त से शिवसेना की राजनीति को करीब से जानने वाले मिडडे के वरिष्ठ पत्रकार धर्मेंद्र जोरे कहते हैं-
कुछ ऐसे ही विचार लोकमत के वरिष्ठ पत्रकार यदु जोशी के भी हैं. उनके मुताबिक, अकेले चुनाव लड़ने के बारे में शिवसेना को सोचना भी नहीं चाहिए क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनाव में शिवसेना के 18 सांसद चुनकर आये इसमें मोदी लहर का भी बड़ा योगदान था.
लेकिन यदु जोशी कहते हैं कि अकेले चुनाव मैदान में उतरने की उद्धव ठाकरे की इच्छा लंबी अवधि में शिवसेना के लिए बहुत फायदेमंद है. इससे पार्टी कैडर मजबूत होगा और भरोसा बढ़ेगा. लेकिन ये तय है कि फिलहाल अकेले दम पर चुनाव लड़ने पर बीजेपी से ज्यादा नुकसान शिवसेना को होगा '
ये भी पढे़ं- महाराष्ट्र उपचुनाव: अपने गढ़ में ही BJP की हार, बजी खतरे की घंटी
साल 2014 में सीटों के बंटवारे को लेकर शुरू हुई शिवसेना-बीजेपी की तनातनी, विधानसभा चुनाव से ठीक पहले इतनी बढ़ी की हिंदुत्व के आधार पर बना 25 साल पुराना गठबंधन टूट गया. विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियों अलग-अलग उतरीं. नतीजा बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनी. बीजेपी के साथ सरकार में शामिल होने के अगले ही साल शिवसेना ने कल्याण डोम्बिवली और कोल्हापुर महापालिका चुनाव एक दूसरे के खिलाफ लड़ा, इसमें भी फायदा बीजेपी को ही हुआ.
2019 में कांग्रेस और एनसीपी ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ लड़ने का फैसला किया है. इसके बाद शिवसेना के पास बीजेपी के साथ मिलकर लड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है. दोनों पार्टियों का मालूम हैं साथ रहेंगे तो ही जीतेंगे वरना दोनों को नुकसान है.
ये भी पढ़ें- कैराना ने BJP का भ्रम तोड़ा, 2019 चुनाव के लिए भी मुश्किल बढ़ी
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: 02 Jun 2018,10:13 AM IST