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गृह मंत्री अमित शाह के ‘गायब रहने’ को लेकर हो रही फुसफुसाहट जैसे अफवाह और गपबाजी से आगे बढ़ने लगी, अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए उन्होंने अपना पसंदीदा सियासी अखाड़ा चुना और अपने चिर-प्रतिद्वंदी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर हमला बोल दिया.
और जैसे कि राजनीति में कई बार अजीबोगरीब दोस्ती देखने को मिल जाती है, अमित शाह ने लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी के उठाए मुद्दे का सहारा लिया. अधीर ने शाह से शिकायत की थी कि बंगाल की राजनीति की तूफानी नेता रास्ते में फंसे हुए मरीजों, छात्रों और प्रवासी मजदूरों की घर वापसी के लिए तैयार नहीं है.
एक चिट्ठी लिखकर, जो कि ममता तक पहुंचने से पहले ही जगजाहिर हो गई, शाह ने आरोप लगाया कि ‘उल्टा प्रवास’के दूसरे दौर में अपने गृह राज्य लौटने को तैयार पश्चिम बंगाल के प्रवासी मजदूरों के लिए वो कोई इंतजाम नहीं कर रही हैं.
जहां सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर अपने घर जाने की कोशिश में लोग अपनी जान गंवाते रहे और सरकार संवेदनहीन बनी रही, वहां बीजेपी नेता का ममता बनर्जी को हृदयहीन कहना वास्तव में विडंबना ही है.
और बीजेपी आईटी सेल के संयोजक अमित मालवीय के एक ट्वीट, जिसमें कि वो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री पर आरोप लगा रहे थे कि उन्होंने कई दिनों से प्रेस कांफ्रेंस आयोजित नहीं कि है, के कुछ ही घंटों के अंदर ममता पर अमित शाह का हमला उनके घोर विरोधाभास को ही जाहिर करता है.
बीजेपी और उसके वरिष्ठ नेतृत्व में कई गुण हो सकते हैं लेकिन वो प्रेस कांफ्रेंस करना पसंद नहीं करते.
जैसा कि अनुमान था, तृणमूल कांग्रेस ने गृह मंत्री के आरोपों को खारिज कर दिया. मुख्यमंत्री के भतीजे और लोकसभा सदस्य, अभिषेक बनर्जी ने ना सिर्फ आरोपों का खंडन करते हुए शाह की चिट्ठी को ‘झूठ का पुलिंदा’ बताया, बल्कि शाह पर इस ‘संकट की घड़ी में अपने कर्तव्यों का पालन करने में नाकाम रहने’ का आरोप भी लगाया. उन्होंने शाह को चुनौती दी कि या तो वो अपने आरोपों को साबित करें या माफी मांगें.
हमेशा की तरह, जो सच है वो बीच में कहीं है. ये कोई मीडिया की जांच भी नहीं है. इसके बावजूद, मीडिया रिपोर्ट के हवाले से और ममता बनर्जी के बयानों से इस बात के साक्ष्य हैं कि हाल ही में राजस्थान और केरल से प्रवासी मजदूर बंगाल लौटे हैं और इससे पहले की शाह के आरोपों की धूल बैठ जाए, राज्य सरकार ने प्रवासी मजदूरों की आठ ट्रेनों को वापस आने की इजाजत दे दी है.
लेकिन भारतीय रेलवे ने खुलासा किया है कि 9 मई को चलने वाली 47 ट्रेनों में से कोई भी पश्चिम बंगाल नहीं जा रही थी. निश्चित रूप से, केन्द्र सरकार भी पश्चिम बंगाल सरकार से इस बारे में समन्वय बिठाने के लिए उत्सुक नहीं है और उसे हताश मजदूरों की कोई परवाह नहीं है. सत्ता के इस खेल में हमेशा गरीबों को मोहरा ही बनाया जाता है.
जहां तक कोविड-19 को लेकर पश्चिम बंगाल का सवाल है, कुछ बातें तो पूरी तरह साफ हो गई हैं. सबसे बड़ी बात, इसमें कोई शक नहीं है कि इस महामारी को लेकर किए गए इंतजामों में पश्चिम बंगाल सरकार का रवैया महिमामंडन करने लायक बिलकुल नहीं रहा है. ना सिर्फ सरकार इस संकट के दौरान लगातार एक के बाद एक गलतियां कर रही है बल्कि डाटा और जानकारियों को लेकर भी चीजें स्पष्ट नहीं रहीं हैं.
राजनीति का मतलब है जनता के बीच अपनी छवि तैयार करना, जो इस लड़ाई में पीछे रह गया, समझो उसका खेल खत्म हो गया. ममता बनर्जी ने अपने गुस्से को अपना व्यक्तित्व बना लिया है, इससे उनकी बात-बात पर हंगामा खड़ा करने वाले नेता की छवि बन गई, जबकि कई बार हालात ऐसे होते नहीं कि हंगामा किया जाए. ममता की इस इमेज को दो दूसरे मुख्यमंत्रियों के विपरीत रख कर देखते हैं जिनका बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अक्सर विवाद होता रहा है – वो हैं पिनाराई विजयन और उद्धव ठाकरे.
मिसाल के तौर पर, 8 मई को केरल के मुख्यमंत्री ने कहा कि हालांकि उनके राज्य ने कोरोना का पहला केस सामने आने के 100 दिनों के अंदर इसके विस्तार को रोकने में कामयाबी हासिल कर ली है, वो वायरस की तीसरी संभावित लहर से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार हैं.
इससे ठीक उलट, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री का रवैया अदूरदर्शिता से भरा रहा और अपनी ऐसी छवि बनाई जैसे वो कुछ छिपा रही हों. इनकार के इस रवैये से उन्हें कुछ भी हासिल नहीं हुआ और ना चाहते हुए भी वो बीजेपी और मोदी के बिछाए जाल में फंस गईं. जैसे केन्द्र ने संकट की इस घड़ी में लोगों को जागरूक करने के बजाए उन्हें सिर्फ डराने की कोशिश की, ममता भी लोगों को यह बताने की बड़ी भूल कर गईं कि नोवल कोरोना वायरस का संक्रमण आफत से कम कुछ नहीं है. इसलिए वो लगातार ये दिखाने की कोशिश करती रहीं कि पश्चिम बंगाल एक ऐसा राज्य है जो इस महामारी के ‘प्रकोप’ से बच गया.
ममता बनर्जी ने दावा किया कि केन्द्र सरकार के इस कदम से संघीय ढांचे का हनन हुआ. केन्द्र सरकार ने केरल में भी टीम भेजी थी लेकिन उसे विजयन सरकार ने ठीक तरीके से संभाल लिया. 1980 के दशक के बीच जब से देश की राजनीति में ममता बनर्जी का आगमन हुआ, उनकी पहचान एक जुझारू नेता की रही है. बतौर मुख्यमंत्री उन्हें अपने क्रोध का त्याग कर अपने कामकाज की समीक्षा लोगों पर छोड़ देनी चाहिए. जहां एक जमाने में उनके दोस्त रहे अरविंद केजरीवाल ने पिछले कुछ सालों में ये तरकीब सीख ली, दीदी, जैसा कि उन्हें लोग बुलाते हैं, लगातार किसी मुहावरानुमा ‘दादा’ की तरह दिमाग से कम और ताकत से ज्यादा काम ले रहीं हैं.
यह सच है कि पश्चिम बंगाल के सामाजिक ढांचे को देखते हुए बीजेपी के लिए अगले साल होने वाला पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव आसान नहीं होगा. लेकिन तृणमूल कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव और महामारी के शुरू होने से पहले जनता में जो जगह बनाई थी वो उसके हाथ से निकल गई है. जहां बीजेपी ममता की मुश्किलें बढ़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ती और उन पर हमले जारी रखती है, वक्त आ गया है कि ममता बनर्जी ये समझ लें कि आगे उन्हें बड़ी प्रशासनिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना करना है. उनका राजनीतिक भविष्य अब इस पर निर्भर करता है कि वो इन संकटों का कैसे सामना करती हैं. ममता इस बात को जितना जल्दी समझ लेंगी उनके लिए उतना ही बेहतर होगा.
(नीलांजन मुखोपाध्याय दिल्ली स्थित एक लेखक और पत्रकार हैं. उन्होंने ‘द डिमॉलिशन:इंडिया ऐट क्रॉसरोड्स’ और ‘नरेंद्र मोदी:द मैन, द टाइम्स’ नाम की किताबें लिखी हैं. उनसे @NilanjanUdwin पर संपर्क किया जा सकता है. ये एक व्यक्तिगत विचार वाला लेख है. इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इनका समर्थन करता है और न ही इन विचारों की जिम्मेदारी लेता है.)
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