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लोकसभा चुनाव से एक महीने से भी कम समय पहले दिल्ली प्रदेश कांग्रेस से अरविंदर सिंह लवली (Arvinder Singh Lovely) का जाना, सिर्फ एक व्यक्तिगत कदम नहीं है, बल्कि सबसे पुरानी पार्टी के भीतर गहरी समन्वय की कमी का संकेत है. लवली के जाने से "कांग्रेस-आप" गठबंधन में दरारें उजागर हो गई हैं, एक ऐसा गठबंधन जिसे राजधानी के सत्ता के गलियारों में भगवा लहर को चुनौती देनी थी.
मामले का मूल, इस्तीफा देने की कार्रवाई में नहीं है, बल्कि उन कारणों में है, जिनके कारण यह हुआ - दिग्गजों को दरकिनार करना, अनुभवी नेताओं का कथित अनादर, और दिल्ली की तीनों लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवारों का विवादास्पद चयन. अनादर का यह कृत्य कांग्रेस के दिल्ली इकाई के भीतर पनप रहे असंतोष का आईना और आलाकमान की रणनीति और जमीनी स्तर की भावना के बीच की खाई का असर है.
2013 की चुनावी गाथा एक ज्वलंत तस्वीर पेश करती है: AAP का उभार भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का पतन नहीं था. बीजेपी का वोट बैंक 30% के पार हमेशा बना हुआ रहा, जबकि AAP की बढ़त कांग्रेस के हिस्से को खत्म करती दिख रही थी, जिससे वह (कांग्रेस) बिखर गई.
कांग्रेस के पुराने नेता, अजय माकन और संदीप दीक्षित जैसे दिग्गज, AAP के साथ गठबंधन की किसी भी धारणा के खिलाफ मजबूती से खड़े थे. उनके विरोध की गूंज पार्टी की भावनाएं बनकर उभरी, जो राजधानी के राजनीतिक कोलिजीयम में आहत और पस्त हो गई थी.
केजरीवाल सहित आम आदमी पार्टी नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों को स्वीकार करना महत्वपूर्ण है. ये महज बीजेपी के तरकश से निकले हुए तीर नहीं थे, बल्कि कांग्रेस द्वारा भी छोड़े गए थे, जो बाहरी विरोधियों के साथ ही आंतरिक लड़ाई का संकेत दे रहे थे.
गठबंधन, जैसा कि आज है, कांग्रेस के कट्टर समर्थकों के लिए एक कड़वी गोली है. उन्होंने 2013 से बीजेपी के नहीं, बल्कि आम आदमी पार्टी के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है. यह मिलन पानी और तेल के मिश्रण के समान है; जो साथ में हैं लेकिन मिल नहीं सकते हैं. कांग्रेस के वफादारों को एक वास्तविकता से जूझना पड़ता है, जहां उनके प्रतिद्वंद्वी अब उनके पोस्टर शेयर कर रहे हैं.
2013 के बाद से, कांग्रेस में दिल्ली प्रदेश अध्यक्षों- अरविंदर सिंह लवली (2013-15 और 2023-24), अजय माकन, शीला दीक्षित, सुभाष चोपड़ा और अनिल चौधरी- की एक लंबी लाइन हैं, जो आम आदमी पार्टी के कट्टर विरोधी रहे हैं.
आंतरिक असंतोष के चरम पर, कांग्रेस ने लवली को वापस लाकर एक दांव खेला, जो कुछ समय के लिए बीजेपी में शामिल हो गए थे. पार्टी में उनकी वापसी धूमधाम से नहीं, बल्कि एक रणनीतिक गुणा और भाग के तहत हुई कि वह पार्टी लाइन का पालन करेंगे और पार्टी में दोबारा शामिल करने के लिए शीर्ष नेतृत्व के आभारी रहेंगे.
नेतृत्व का यह बदलता मन एक गहरी अस्वस्थता को दर्शाता है - एक पार्टी जो "आप" के प्रभाव के सामने अपनी पहचान और रणनीति से जूझ रही है.
पार्टी का दांव बहुत प्रभावशाली नहीं रहा. एकजुट और आकर्षक कैंपेन पेश करने में असफल होने के कारण पारंपरिक वोटर्स का झुकाव बीजेपी की तरफ हो सकता है, जिससे आम आदमी पार्टी को राजनीतिक तूफान से अकेले ही निपटना होगा. ऐसा परिदृश्य गठबंधन के लिए नुकसान का कारण बनेगा और टूटने के कगार पर पहुंच जाएगा.
यदि यह प्रवृत्ति जारी रहती है, तो आरोप-प्रत्यारोप तय हैं, और AAP सीधे तौर पर कांग्रेस पर उंगली उठा सकती है, जिससे भविष्य में किसी भी संभावित गठबंधन के दरवाजे बंद हो सकते हैं. यह एक नाजुक संतुलन कार्य है, जहां अगला कदम या तो खाई को पाट सकता है या पुलों को जला सकता है, जो कि एसपी-बीएसपी गठबंधन की कुछ समय की दोस्ती के समान है.
दिल्ली की तीन लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए तैयार सक्षम नेताओं की सूची होने के बावजूद, कांग्रेस ने हैरान करने वाले फैसले लिए हैं. दिग्गजों को दरकिनार करते हुए जेपी अग्रवाल और पार्टी के जमीनी स्तर से कमजोर संबंध रखने वाले नए लोग, जैसे उदित राज और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से कांग्रेस में शामिल पूर्व जेएनयू छात्र नेता कन्हैया कुमार, को टिकट दिया गया है.
लवली के इस्तीफे ने गठबंधन के भविष्य को और अस्थिर कर दिया है और पार्टी द्वारा अपने स्वयं के नेताओं की उपेक्षा ने न केवल दिल्ली में इसकी संभावनाओं को खतरे में डाल दिया है, बल्कि आंतरिक रूप से अविश्वास के बीज भी पैदा हुए हैं.
दिल्ली में हाल ही में 'इंडिया' गुट के भीतर एकजुटता का एक बेहतरीन प्रदर्शन देखा गया, जिसने एक घोर प्रतिद्वंद्वी के सामने एकता की तस्वीर पेश की. हालांकि, आंतरिक कलह ने गुट की संभावनाओं पर एक लंबी छाया डाली, जिससे इसकी राजनीतिक व्यवहार्यता पर सवाल खड़े हो गए.
करिश्माई नेतृत्व और रणनीतिक कौशल के संयोजन से संचालित बीजेपी का चुनावी रथ एक कठिन चुनौती है. ऐसे में विपक्ष की सफलता केवल इस बात पर निर्भर नहीं करती कि वे एकजुट हैं तो चुनाव जीत जाएंगे बल्कि उन्हें एक ऐसा वैकिल्पिक नैरेटिव पेश करना होगा, जो मतदाताओं को समझ आए.
(लेखक, एक स्तंभकार और रिसर्च स्कॉलर हैं, जो सेंट जेवियर्स कॉलेज (स्वायत्त), कोलकाता में पत्रकारिता पढ़ाते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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