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असम में बाल विवाह रोकने के लिए 'मुस्लिम विवाह कानून' को खत्म करना सचमुच जरूरी है?

मुस्लिम शादियों को अब जिले के विवाह पंजीकरण अधिकारी के पास पंजीकृत कराना होगा, जो हो सकता है कि इस्लामी रीति-रिवाजों और प्रथाओं से परिचित न हो.

अभिषेक साहा
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>क्या असम के मुख्यमंत्री को बाल विवाह पर रोक लगाने के लिए सचमुच मुस्लिम विवाह कानून को खत्म करने की जरूरत थी?</p></div>
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क्या असम के मुख्यमंत्री को बाल विवाह पर रोक लगाने के लिए सचमुच मुस्लिम विवाह कानून को खत्म करने की जरूरत थी?

फोटो- Altered By Quint Hindi

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बीते हफ्ते राज्य विधानसभा के बजट सत्र के अंतिम दिन जब विपक्षी विधायकों ने असम मुस्लिम विवाह और तलाक रजिस्ट्रेशन कानून, 1935 (Assam Muslim Marriage and Divorce Registration Act, 1935) को रद्द करने के असम कैबिनेट के फैसले पर चर्चा की मांग की, तो मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा उन पर बरस पड़े. सरमा ने कहा कि वह पांच या छह साल के बच्चों की शादी की मंजूरी नहीं देंगे.

फिर विधानसभा में, जहां आमतौर पर कार्यवाही असमिया भाषा में होती है, अचानक हिंदी बोलते हुए बहुत गुस्से में दिख रहे सरमा ने कहा, “आप लोग सुन लीजिए… असम में चाइल्ड मैरिज नहीं होने दूंगा, जब तक मैं जिंदा हूं.”

उंगली दिखाते हुए और बारी-बारी से असमिया और हिंदी बोलते हुए सरमा ने विपक्ष को फटकार लगाते हुए कहा कि वह उन्हें “मुस्लिम समाज के बच्चों का कारोबार करने” की इजाजत नहीं देंगे और वह 2026 से पहले इस “दुकान” को बंद कर देंगे.

यह कदम कई तरह के शक क्यों पैदा करता है?

असम सरकार के मुताबिक उसने दो वजहों से इस कानून को खत्म करने का फैसला लिया है. सबसे पहली बात, राज्य में समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) लागू करने की दिशा में आगे बढ़ना. दूसरी, और बेहद जरूरी बात, असम में बाल विवाह के खतरे को रोकने की दिशा में एक “असरदार कदम” उठाना– सरमा ने विधानसभा में इन्हीं शब्दों में दलील रखी थी.

ध्यान देने वाली बात यह है कि कानून को खत्म करने का फैसला पिछले साल बाल विवाह पर उनकी सरकार की लोगों को सजा देने और पहले हुई शादियों पर कठोर कार्रवाई के बाद आया है, जिसमें हजारों लोगों की गिरफ्तारी हुई थी.

UCC के फायदे और नुकसान पर सवाल बने हुए हैं, और इसके साथ ही इस दावे पर भी सवाल उठ रहे हैं कि इस कानून को खत्म करने से राज्य में बाल विवाह रोकने में मदद मिलेगी.

कानून में मुख्य रूप से मुस्लिम शादी और तलाक के पंजीकरण के बारे में बताया गया है. कानून के तहत सरकार द्वारा अधिकृत मुस्लिम रजिस्ट्रारों को मुसलमानों की शादी और तलाक को पंजीकृत करने का अधिकार था.

इस समय राज्य में ऐसे 94 रजिस्ट्रार काम कर रहे थे. इस कानून के खत्म होने के बाद अब सभी मुस्लिम शादियों को विशेष विवाह कानून, 1954 के तहत पंजीकृत कराना होगा.

कानून को खत्म करने के अपने फैसले को सही ठहराने के लिए असम सरकार ने कानून की धारा 8(1) का हवाला दिया है जो नाबालिगों से जुड़ी शादियों के पंजीकरण की इजाजत देती है, बशर्ते कि इसके लिए उनके अभिभावक उनकी ओर से आवेदन करें.

राज्य सरकार ने कोई तय संख्या बताए बिना दावा किया है कि कानून की इस धारा में दिए गए अधिकार का इस्तेमाल कर कई अनधिकृत काजी 21 साल से कम उम्र के लड़कों और 18 साल से कम उम्र की लड़कियों की शादियों का पंजीकरण कर रहे थे– आगे यह भी दलील दी गई इस कानून को खत्म करके मुसलमानों में कथित तौर पर बड़े पैमाने पर कम उम्र में होने वाली शादियों को रोका जा सकेगा.

हालांकि, असम में कई मुस्लिम वकीलों का कहना है कि अगर राज्य सरकार की इकलौती मंशा बाल विवाह पर रोक लगाना था तो कानून को पूरी तरह खत्म करने के बजाय कानून की उस धारा में बदलाव किया जा सकता था.

इसके अलावा यह भी दलील दी गई कि बाल विवाह निषेध कानून, 2006 के प्रावधान पहले ही कानून की उस धारा 8(1) को बेअसर कर देते हैं.

कबजोर तबके के स्थानीय मुसलमानों का इससे फायदा कम, नुकसान ज्यादा होगा

इस कानून को खत्म करने का मतलब है कि मुस्लिम शादियों को अब जिले के विवाह पंजीकरण अधिकारी के पास पंजीकृत कराना होगा, जो हो सकता है कि इस्लामी रीति-रिवाजों और प्रथाओं से परिचित न हो.

यह एक मुस्लिम रजिस्ट्रार के उलट स्थिति है, जो आमतौर पर इस्लामी कानून और रीति-रिवाजों से अच्छी तरह वाकिफ होता था और सरकार की तरफ से मुस्लिम शादियों को पंजीकृत करने के लिए अधिकृत होता था– मुस्लिम वकीलों और समुदाय के समाजसेवियों का कहना है कि यह निश्चित रूप से संतुलित स्थिति थी और आमतौर पर जवाबदेही तय करती थी, खासतौर से अशिक्षा और गरीबी से जूझ रहे देहाती मुस्लिम इलाकों में.

उनका कहना है कि ऐसे इलाकों में, परिचित, स्थानीय मुस्लिम रजिस्ट्रार के पास अपनी शादी को पंजीकृत नहीं कर पाने से शादियां बिना पंजीकरण कराए ही रह सकती है क्योंकि इन इलाकों में कमजोर तबके के लोगों को विशेष विवाह अधिनियम के तहत पंजीकरण के लिए भारी कागजी और नौकरशाही प्रक्रिया को पूरा के लिए जूझना पड़ता है.
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असम में, एक तिहाई से ज्यादा आबादी मुस्लिम है, जिसमें बड़ी संख्या बंगाली मूल के मुसलमानों की है. असमी मुसलमानों के उलट– जिसमें पांच उप-समूह शामिल हैं– जिन्हें सरमा की अगुवाई वाली राज्य सरकार द्वारा ‘स्थानीय’ (indigenous) का दर्जा दिया गया है, बंगाली मूल के मुसलमानों को राज्य के सामाजिक-राजनीतिक ताने-बाने में लगातार अपमानित किया जाता है.

यह समुदाय, जिसका आज के बांग्लादेश से माइग्रेशन का इतिहास एक सदी से ज्यादा पुराना है, आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक रूप से हाशिए पर है.

यह समुदाय हमेशा सरमा के राजनीतिक विमर्श में निशाने पर होता है.

2021 में सत्ता में आने के बाद से, असम सरकार ने 4,000 से ज्यादा परिवारों को निकाल दिया है, जिनमें से ज्यादातर बंगाली मूल के मुस्लिम समुदाय से हैं.

इसके अलावा, एक फ्लैगशिप स्कीम के तहत किसानों को जमीन सौंपने के मामले में सरमा ने कहा था कि बंगाली मूल के मुसलमान इस योजना के तहत जमीन के लिए आवेदन नहीं कर सकते क्योंकि वे ‘स्थानीय' नहीं हैं.

इसके अलावा असम सरकार ने 1,200 से ज्यादा मदरसों को नियमित स्कूलों में बदल दिया है.

यहां तक कि असम में हालिया डीलिमिटेशन की कवायद पर भी विवाद है. इसे सरमा ने ‘स्थानीय’ असमिया लोगों के हितों के लिए एक सुरक्षात्मक कदम बताया था जबकि विपक्ष ने उसके कथित तौर पर “सांप्रदायिक” होने और मुस्लिम नुमाइंदगी कम करने के लिए आलोचना की है.

बाल विवाह पर सख्त कार्रवाई में क्या सामने आया?

हिमंता बिस्व सरमा यकीनन देश के पूर्वोत्तर इलाके के सबसे महत्वपूर्ण राजनेता हैं और उनका असर इस इलाके के बाहर भी लगातार बढ़ रहा है.

कट्टर हिंदू रुख को बढ़ावा देने वाले मुख्यमंत्री के मीडिया को दिए इंटरव्यू हमेशा देश भर में सुर्खियां बटोरते हैं.

ऐसे राजनीतिक हालात में असम सरकार के कथित प्रगतिशील कदम, जैसे कि 1935 के कानून को खत्म करना, बाल विवाह पर सख्ती या बहुविवाह पर पाबंदी लगाने का प्रस्ताव, उनकी इसके पीछे की असल मंशा पर सवाल उठाता है: क्या ये फैसले मुस्लिम महिलाओं और बच्चों को सशक्त बनाने के लिए हैं, या क्या ये महज राजनीतिक पैंतरेबाजी हैं जिनका मकसद मुसलमानों को खलनायक बनाकर पेश करना और परेशान करना है?

जरा इस आंकड़ों पर गौर करें: बाल विवाह पर असम सरकार की कार्रवाई के पहले दौर में गिरफ्तार किए गए लगभग 3,000 लोगों में से 62 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम थे, जैसा कि द इंडियन एक्सप्रेस के एक डेटा विश्लेषण में सामने आया है.

राज्य सरकार ने असम में ऊंची किशोर गर्भावस्था और मातृ मृत्यु दर को बढ़ाने में मददगार कम उम्र में शादी के खराब नतीजों से निपटने के लिए इस कार्रवाई को जरूरी बताया.

लेकिन इन गिरफ्तारियों ने परिवारों को उजाड़ दिया है. सैकड़ों महिलाओं और बच्चों ने अपने पतियों और रिश्तेदारों की गिरफ्तारी पर पुलिस स्टेशनों के बाहर विरोध प्रदर्शन किया.

महिला अध्ययन शोधकर्ता मैरी ई जॉन ने लिखा है कि असम में बाल विवाह के खिलाफ कार्रवाई महिलाओं के लिए सचमुच की चिंता के बजाय राजनीतिक हित से प्रेरित है.

असम में कम उम्र में शादी की दर राष्ट्रीय औसत (26.4 फीसद के मुकाबले 45.8 प्रतिशत) से बहुत ज्यादा है, और मैरी ई जॉन इस फर्क के पीछे गरीबी को बुनियादी वजह बताती हैं.

उनका कहना है कि सिर्फ सजा देने से कम उम्र की शादियां नहीं रुक जाएंगी या महिलाओं को सशक्तिकरण नहीं हो जाएगा, बल्कि इससे पहले से कमजोर तबके की महिलाओं का जोखिम बढ़ जाएगा.

बाल विवाह पर रोक लगाने के प्रति असम सरकार का नजरिया सवाल खड़े करता है कि क्या 1935 के कानून के खात्मे से पैदा होने वाले नौकरशाही के बदलाव या बहुविवाह पर पाबंदी के बाद की कानूनी कार्रवाइयां मुसलमानों को परेशान करने का एक और जरिया बन सकती हैं.

उस दिन विधानसभा में हिमंता बिस्व सरमा का नाटकीय गुस्सैल तेवर भले ही उनकी राजनीतिक पैंतरेबाजी के लिए फायदेमंद रहा हो, लेकिन इससे डर को दूर करने या बुनियादी समस्याओं के सही तरीके से ठीक करने की संभावना नहीं है.

(अभिषेक साहा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में डॉक्टरेट रिसर्चर हैं. वह ‘No Land’s People: The Untold Story of Assam’s NRC Crisis’ के लेखक भी हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यह लेखक के अपने विचार हैं. क्विंट हिंदी का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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