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अटल जी का जाना भारतीय राजनीति में एक युग का जाना है. वो युग जो वैचारिक विरोध के बाद भी बातचीत का सिलसिला नहीं तोड़ता था. जो संसद और सड़क की तीखी नोंकझोंक में भी परस्पर वैमनस्यता को जगह नहीं देता था. जो राजनीति में मतभेदों को मनभेद में नहीं बदलता था. जहां मिलकर एक भारत के निर्माण का सपना था जहां रास्ते तो अलग थे पर लक्ष्य एक था. रास्तों की कद्र थी. सपनों का सम्मान था. जहां हर अर्जुन युद्धक्षेत्र में आकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता था कि सामने तो भाई बंधु हैं कैसे इन पर वार करूं.
आज युग बदल गया है. जीत ही सर्वोपरि है. विपक्षी को खत्म करना ही सबसे बड़ा नियम है और इस जंग में सब जायज है. नैतिक अनैतिक कुछ भी नहीं. वाजपेयी जी एक ऐसी विचारधारा में थे जिससे मेरा बुनियादी झगड़ा है. मेरा मानना है ये विचारधारा देश के लिए खतरनाक है देश को रसातल की तरफ ले जाएगी. पर इस वजह से मैं वाजपेयी जी से या विचारधारा के लोगों से नफरत नहीं कर सकता और न करना चाहिए वाजपेयी जी का मैं सम्मान करता हूं. उनकी इज्जत करता हूं और उनकी विचारधारा का विरोध.
वाजपेयी एक व्यक्ति के तौर पर मुलायम थे. उनकी मुलायमियत उनके अंदर के हिंदुत्व के लिए कवच थी. जिसमें विचारों के अवगुण छिप जाते थे. या वो उनको छिपा लेते थे. इस वजह से लोगों में गलतफहमी भी पैदा हो जाती थी कि कहीं वो सेकुलर तो नहीं हैं ? कहीं वो आरएसएस में होते हुए आरएसएस से अलग तो नहीं है ? वो हैं क्या ? ये सवाल उनके जीवन के अंत तक बना रहा. कभी कभी उनके अपने ही साथी उन पर शक करने लगते थे. ये आदमी विचारधारा से भटक तो नहीं गया है ? कहीं ये शत्रु पक्ष से मिल तो नहीं गया है? और तब अपने ही लोग उनपर तीखे हमले करने लगते.
एक बार जब वो प्रधानमंत्री थे. संसद में बहस के दौरान प्रमोद महाजन ने चंद्रशेखर की किसी बात से चिढ़ कर कह दिया. “चंद्रशेखर जी, मेरी भी आपकी चार महीने की सरकार के बारे में राय है. कहिये तो कह दूं. इस पर चंद्रशेखर जी तनमना कर रह गए. उन्हें बहुत बुरा लगा. अटल जी बात को भांप गए. वो जब अपने कमरे में गए तो उन्होंने प्रमोद महाजन को बुलाया और उनको झिड़का कि आप चंद्रशेखर जैसे वरिष्ठ सांसद और पूर्व प्रधानमंत्री पर कैसे फब्ती कस सकते हैं ? चंद्रशेखर जी से बाकायदा माफी मांगने को कहा.
चंद्रशेखर उनकी पार्टी में नहीं थे. लेकिन वो ये जानते थे कि संसदीय लोकतंत्र में विरोध के बावजूद परस्पर सम्मान को चोट पहुंचाने वाली बात नहीं होनी चाहिए. और वही बीजेपी आज किस तरह से विपक्ष का मजाक उड़ाती है और किसी पर भी व्यक्तिगत टिप्पणी करने से नहीं चूकती, उन सब के लिये ये एक बानगी है. एक सबक है. पर आज वाजपेयी जी इस संसद में नहीं है. और न ही संसदीय गरिमा का ख्याल पक्ष या विपक्ष, किसी को है. सब एक जैसे हैं.
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इन्हीं वाजपेयी जी की गरिमा का संघ ने ख्याल नहीं रखा. 2004 में जब वाजपेयी चुनाव हार गए. बीजेपी सत्ता से बेदखल हो गई तो दिल्ली में विश्व हिंदू परिषद की एक प्रेस कांफ्रेंस हुई. उसमें अशोक सिंघल और गिरिराज किशोर ने हार का सारा ठीकरा वाजपेयी और आडवाणी पर फोड़ दिया. न केवल फोड़ा बल्कि सारे पत्रकारों के सामने वाजपेयी और आडवाणी को चुनौती दे डाली कि वो अब मैदान छोड़ दें. नई पीढ़ी को आगे आने दें. वाजपेयी जी काफी आहत हुए थे. ये सिलसिला सरकार में रहते हुए भी काफी चला था.
उन दिनों ये खबर भी प्रमुख थी कि वाजपेयी को हटा कर आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाना चाहिये क्योंकि पार्टी हिंदुत्व के मूल सिद्धांत से भटक रही है. आडवाणी जी के लिए उप प्रधानमंत्री कार्यालय तक बनाने की चर्चा चल निकली थी. माहिर पत्रकार और उन दिनों इंडिया टुडे में संपादक रहे स्वप्न दासगुप्ता ने यहां तक लिख दिया कि जिस नेता के लिए देश ने बरसों इंतजार किया, आज वो अब उनकी रुखसती की प्रतीक्षा कर रहा है.
सब जानते थे वाजपेयी जी की लोकप्रियता का तब देश में कोई सानी नहीं था. इस घटना के बाद फिर कभी वाजपेयी को हटाने की खुसपुस नहीं हुई. जानकार ये भी कहते हैं कि वो 2004 का चुनाव छह महीने पहले कराने के पक्ष में नहीं थे पर प्रमोद महाजन जैसे रणनीतिकारों का मानना था कि देश में हालात बेहतर हैं और अभी चुनाव होने पर बीजेपी की सरकार दोबारा आ जाएगी. हुआ उसका उलटा.
संघ के सिपाही होने के बाद भी वाजपेयी जी व्यावहारिक राजनीतिज्ञ थे. हवा की जगह जमीन पर पैर रखते थे. वो जमीन से कटे नहीं थे. पर पार्टी का सम्मान और उसकी गरिमा को वो किसी भी कीमत पर कम नहीं होने देना चाहते थे. क्या आज की बीजेपी इस तरह सोच सकती है ? आज नहीं तो कल इतिहास ये सवाल पूछेगा.
कारण कुछ भी रहा हो वाजपेयी ने हमेशा संसदीय मर्यादा का पालन किया, पार्टी को मां का दर्जा दिया, विचारधारा से जुदा नहीं हुए. इसका ये अर्थ कतई नहीं है कि वाजपेयी जी ने पार्टी की विचारधारा की कीमत पर कभी कोई समझौता किया. अंदरूनी और बाहरी हमलों के बावजूद वो अपनी धुन पर डटे रहे. डिगे नहीं. जो देशहित में था वो किया. विचारधारा से टकराव के बाद भी विचारधारा के साथ समन्वय बना कर रखना उनकी राजनीतिक क्षमता का प्रतीक था. पर न वो नेहरूवादी थे और न ही उन्होने कभी नेहरूवादी बनने की कोशिश की. लेकिन ये भी सच है कि अगर नेहरू जी उनकी प्रतिभा के कायल थे तो वाजपेयी जी भी उनसे अभिभूत थे. हैरानी की बात ये है कि वाजपेयी जी को देश का एक बौद्धिक तबका हमेशा सेकुलरवादी साबित करने पर तुला रहा. जो मेरी नजर में बौद्धिक अज्ञानता का प्रतीक है.
अगर आडवाणी ने राममंदिर आंदोलन की अगुवाई और रथयात्रा निकाल कर भारतीय राजनीति की वैचारिक दिशा को बदलने की मौलिक कोशिश की तो वाजपेयी ने अपने व्यक्तित्व के चमत्कार से उसे सम्मान दिलाया. हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि गांधी जी की हत्या में आरएसएस का नाम आने, संघ प्रमुख गोलवलकर की गिरफ्तारी और संघ पर प्रतिबंध लगने के बाद देश का माहौल संघ विरोधी हो गया. आक्षेप, हालांकि कभी साबित नहीं हुआ पर चिपक गया. उससे निकलना आसान नहीं था.
ये वो वक्त था जब कांग्रेस पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक दनदनाती फिरती थी. वामपंथ दुनिया के नक्शे पर चरम पर था, देश में समाजवाद एक फैशन बन चुका था ऐसे में संघ और बीजेपी के पूर्व अवतार, जनसंघ के लिये खड़े होना ही बड़ी बात थी. वो भी तब जब जनसंघ के सबसे बड़े नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी की असामयिक मौत ने शून्य पैदा कर दिया था. दीन दयाल उपाध्याय थे. पर वो भी समय से पहले चल बसे. उनका हत्या कर दी गई. वाजपेयी के सामने इस शून्य को भरने की जिम्मेदारी थी जिसे उन्होंने निभाया और बखूबी निभाया.
वाजपेयी के युग से आज बीजेपी काफी आगे निकल गई है. वो हर वो दायरा तोड़ रही है जो वाजपेयी ने अपने लिये निर्धारित किए थे. पर संघ को अगर हर हिंदुस्तानी का दिल जीतना है तो रास्ता वो नहीं है जो आज अपनाया जा रहा है. रास्ता तो वाजपेयी के रास्ते से ही निकलेगा. पर कहीं देर न हो जाए.
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Published: 16 Aug 2018,10:24 PM IST