पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी नहीं रहे. बुधवार को 93 साल की उम्र में उनका निधन हो गया. पिछले दो महीने से वह गंभीर बीमारी की वजह से एम्स में भर्ती थे. बुधवार को शाम पांच बज कर पांच मिनट पर उन्होंने अंतिम सांस ली. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत तमाम नेताओं ने उनके निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया. पीएम मोदी ने कहा कि हम सबके श्रद्धेय अटल जी नहीं रहे.
अटल बिहारी वाजपेयी की पहचान सिर्फ भारत के 11वें प्रधानमंत्री के तौर पर ही नहीं है, वह भारतीय राजनीति में अजातशत्रु की तरह थे. एक ऐसा नेता जिसका कोई शत्रु नहीं, कोई दुश्मन नहीं. इतिहास में वह अपनी छाप एक प्रखर राजनेता, कूटनीतिज्ञ, पत्रकार, कवि और एक उदार जननायक के तौर पर छोड़ गए हैं.
करिश्माई नेता
अगर देश की मौजूदा राजनीति में आज बार-बार अटल बिहारी वाजपेयी जैसे सुलझे नेता की जरूरत बताई जा रही है, तो इसकी वजहें हैं. अटल बिहारी वाजपेयी हिंदुत्व की जमीन पर खड़े आरएसएस से मार्गदर्शन लेने वाली बीजेपी से आते थे. और इस पार्टी की भारतीयों के बीच स्वीकार्यता बढ़ाने में उनका बड़ा योगदान था. उनके शासन के दौरान बीजेपी हिंदूवादी पार्टी थी, लेकिन वह समावेशी थी. देश के एक बड़े वर्ग और अलग-अलग विचारों वाली पार्टियों को अपने साथ लेकर चलने का करिश्मा वाजपेयी ने ही किया था.
देश को नई ऊंचाई पर ले गए वाजपेयी
अटल बिहारी वाजपेयी 1957 में जनसंघ के टिकट पर चुने गए चार सांसदों में शामिल थे. और तब से लेकर बीजेपी को देश की राजनीति में सिरमौर ताकत बना कर पीएम बनने तक उन्होंने एक लंबा सफर तय किया था. नेहरू और इंदिरा के बाद अगर कोई करिश्माई पीएम हुआ, तो वे थे अटल बिहारी वाजपेयी. उन्होंने अपने नाम, उदार छवि और करिश्मे के बूते वो सरकार बनाई, जो अर्थव्यवस्था को एक नई ऊंचाई पर ले गई और भारत 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद पहली बार आर्थिक विकास दर की राह पर इतनी तेज दौड़ा.
वाजपेयी के पीएम रहते देश ने स्वर्णिम चतुर्भुज योजना को अंजाम दिया. भारत-पाकिस्तान रिश्तों की नई इबारत लिखी गई. देश की परमाणु ताकत बढ़ी और देश ने कारगिल जैसी लड़ाई में जीत हासिल की. सर्व शिक्षा अभियान शुरू हुआ, टेलीकॉम क्रांति हुई और राजकोषीय प्रबंधन को दुरुस्त किया गया.
पत्रकारिता से करियर की शुरुआत
एक स्कूल टीचर के घर वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर में हुआ था. निम्न मध्यवर्गीय परिवार में पैदा वाजपेयी की पढ़ाई-लिखाई ग्वालियर के ही विक्टोरिया (अब लक्ष्मीबाई) कॉलेज और कानपुर के डीएवी कॉलेज में हुई. पॉलिटिकल साइंस में एमए करने के बाद वाजपेयी ने पत्रकारिता से अपने करियर की शुरुआत की. उन्होंने राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन जैसे अखबारों का संपादन किया.
जनसंघ से पीएम तक का सफर
1951 में वह भारतीय जन संघ के संस्थापक सदस्य बने. 1968 से 1973 तक इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे और 1955 से पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए. दोबारा 1957 में यूपी के गोंडा जिले के बलरामपुर से जनसंघ के उम्मीदवार के तौर पर जीत कर लोकसभा में पहंचे. 1957 से 1977 तक वह लगातार जनसंघ का संसद में नेतृत्व करते रहे.
विपक्षी पार्टियों के अपने दूसरे साथियों की तरह उन्हें भी आपातकाल के दौरान जेल भेजा गया. मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार में वह 1977 से 1979 तक विदेश मंत्री रहे. इस दौरान संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण देकर उन्होंने अपार प्रशंसा बटोरी. वह इसे अपने जीवन का सबसे सुखद क्षण मानते थे.
1980 में इन्होंने भारतीय जनता पार्टी की स्थापना में मदद की. वाजपेयी 1997 में पीएम बने. 19 अप्रैल 1998 को दोबारा पीएम बने और उनके नेतृत्व में गठबंधन सरकार को पूरे पांच साल तक चलाई.
वाजपेयी नौ बार लोकसभा के लिए चुने गए. दूसरी लोकसभा से तेरहवीं लोकसभा तक. बीच में कुछ लोकसभाओं से उनकी अनुपस्थिति रही. खासतौर से 1984 में जब वो ग्वालियर में कांग्रेस के माधवराव सिंधिया के हाथों हार गए थे. 1962 से 1967 और 1986 में वो राज्यसभा के सदस्य भी रहे. 2004 में इंडिया शाइनिंग के नारे तले उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया और बीजेपी हार गई. पिछले कुछ साल से वह डिमेंशिया से पीड़ित थे.
वाजपेयी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के पहले प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने गैर कांग्रेस प्रधानमंत्री के पांच साल बगैर किसी समस्या के पूरे किए. उन्होंने 24 दलों के गठबंधन से सरकार बनाई थी, जिसमें 81 मंत्री थे. कभी किसी दल ने आनाकानी नहीं की. इससे उनकी नेतृत्व क्षमता और लचीलेपन का पता चलता है.
भावुक कवि और ओजस्वी वक्ता
वाजपेयी दिल से कवि थे और उनकी कविता की दुनिया राजनीति के उनके सफर से लेकर उनकी निजी अनूभूतियों का विस्तार लिए हुई थी. उनके ओजपूर्ण भाषणों का पूरा देश मुरीद था. संसद में जब वह बोलते थे, तो पक्ष और विपक्ष, दोनों ओर के सांसद ध्यान से उनकी बातें सुनते थे. राजनीतिक रैलियों और सभाओं में उन्हें सुनने के लिए अपार भीड़ जुटती थी. वाजपेयी के जाने के साथ राजनीति का एक उदार, समावेशी और वैभवपूर्ण अध्याय का अंत हो गया है.
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