मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019अयोध्या, करतारपुर के बाद भी दोराहे पर हिंदू-मुसलमान,भारत-पाकिस्तान

अयोध्या, करतारपुर के बाद भी दोराहे पर हिंदू-मुसलमान,भारत-पाकिस्तान

सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले पर फैसले के लिए कोई दूसरा दिन क्यों नहीं चुना?

सुधींद्र कुलकर्णी
नजरिया
Updated:
सुप्रीम कोर्ट ने फैसले के लिए 9 नवंबर की जगह कोई दूसरा दिन क्यों नहीं चुना?
i
सुप्रीम कोर्ट ने फैसले के लिए 9 नवंबर की जगह कोई दूसरा दिन क्यों नहीं चुना?
(फोटो: क्‍विंट हिंदी)

advertisement

जैसे ही मैंने सुना कि सुप्रीम कोर्ट इसी आज के दिन अयोध्या मसले पर अपना फैसला सुनाने जा रहा है, तो पहला सवाल मेरे जेहन में कौंधा– आज के दिन ही क्यों? कोर्ट ने फैसले के लिए कोई दूसरा दिन क्यों नहीं चुना?

9 नवम्बर की तारीख पूरी तरह करतारपुर साहिब कॉरिडोर के नाम करनी चाहिए थी. 1947 के बाद ये दिन खास है, जब दोनों मुल्कों में रहने वाले सिख, हिन्दू और मुस्लिम समुदाय को अमन बहाली के पहल का अहसास हो रहा है. गुरु नानक देवजी के 550 जन्मशती के मौके पर सामूहिक हर्षोल्लास का माहौल तैयार हुआ है.

किसी और संत की ऐसी वाणी है क्या, जो तीनों मजहब के आध्यात्मिक भाईचारे की इतनी मजबूती से याद दिलाए? साथ ही भारत और पाकिस्तान के बीच एक अटूट गठबंधन का प्रतीक बन जाए?

ज्यादातर लोगों को मालूम ही नहीं कि सिख धर्म के संस्थापक एक राम भक्त भी थे.

करतारपुर और अयोध्या के बीच क्या समानता है?

ये सिर्फ एक इत्तेफाक नहीं कि दोनों ऐतिहासिक घटनाएं एक ही दिन हुईं. एक ओर करतारपुर कॉरिडोर की औपचारिक शुरुआत हुई. दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने अयोध्या में राम मंदिर बनाने का रास्ता साफ कर दिया. आखिर दोनों घटनाओं के बीच क्या समानता है? एक शब्द में बताया जाए, तो ये समानता है “मेल-मिलाप”.

पहला मामला भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्तों को पाटने की दिशा में एक कदम है. दूसरा मामला भारत में हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के बीच तनाव दूर करने की पहल है.

इसके अलावा एक और समानता है. और वो हैं खुद गुरु नानकदेव. कई लोगों को ये बात नहीं मालूम होगी कि जिस शख्स ने सिख धर्म की स्थापना की, वो खुद एक अटूट रामभक्त थे. श्री गुरुग्रन्थ साहिब में उन्होंने जिस भगवान का सबसे ज्यादा जिक्र किया, वो हैं – राम, राजाराम, रघुनाथ इत्यादि. गिनती के लिहाज से देखें, तो 2000 बार से भी ज्यादा. निश्चित रूप से कम से कम इस सच्चाई ने सुप्रीम कोर्ट जजों के एकमत से दिये गए फैसले को प्रभावित किया होगा कि राम नाम की आस्था सदियों से भारत के रग-रग में समाई हुई है.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले में नवम्बर 1510 में गुरु नानक के रामजन्मभूमि जाने का जिक्र है. बाबर ने 1524 में भारत पर हमला किया था. लिहाजा गुरु नानक देव की यात्रा उसके आने से पहले रामजन्मभूमि के वजूद का अहम सबूत था. (तस्वीर: अनूप मिश्रा/द क्विंट)

जब जजों ने कहा, “अदालत को निश्चित रूप से श्रद्धालुओं की आस्था स्वीकार करनी चाहिए और अयोध्या की विवादास्पद जमीन राम मंदिर बनाने के लिए देना चाहिए,” तो ये कथन राम भक्तों की भावनाओं का सम्मान सुनिश्चित करता है.

दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने 1524 में बाबर के आक्रमण से काफी पहले, यानी नवम्बर 1510 में गुरु नानक की राम जन्मभूमि यात्रा का उल्लेख एक सबूत के तौर पर किया.

हिन्दू और मुस्लिम समुदाय की आस्था पर आधारित दावों में असमानता

ये बात बिलकुल स्पष्ट है कि अयोध्या विवाद कभी जमीन के एक टुकड़े पर अलग-अलग दावों का कानूनी मसला नहीं था. ये दो समुदायों की आस्था पर आधारित मामला था. हिन्दू समुदाय को भरोसा था कि जिस जगह भगवान राम का जन्म हुआ था, वही राम जन्मभूमि है. उस जगह पर बनी बाबरी मस्जिद को मुस्लिम समुदाय ने कभी उतनी धार्मिक श्रद्धा के साथ नहीं देखा.

6 दिसम्बर, 1992 को मस्जिद तोड़ने के घटना की कोर्ट ने एक 'गैरकानूनी हरकत' कहकर निन्दा की, जो बीजेपी और दूसरे संघ परिवार की अगुवाई में जन आन्दोलन के रूप में एक धब्बा था. लेकिन इससे हिन्दू समुदाय की राम जन्मभूमि के प्रति आस्था कभी कम नहीं हुई. हिन्दुओं की आस्था का पलड़ा भारी था, क्योंकि स्थानीय या राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम समुदाय में बाबर के नाम बने मस्जिद की अहमियत एक सामान्य मस्जिद से ज्यादा नहीं थी.

ये भी पढ़ें- आडवाणी से अशोक सिंघल तक: ये हैं अयोध्या विवाद के चर्चित चेहरे

कोर्ट में क्या दलीलें पेश की गईं?

इस बुनियादी सच्चाई के आलोक में हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले की विशेषताओं को गहराई से समझ सकते हैं.

  • हिन्दू समुदाय ने विवादास्पद स्थल के बाहर स्थित राम चबूतरा और धार्मिक महत्त्व के दूसरे सामानों की “लम्बे समय तक और लगातार पूजा-अर्चना” कर अपना मालिकाना हक मजबूत किया.
  • “मुस्लिम समुदाय के चश्मदीदों ने मस्जिद के भीतर और बाहर हिन्दू धार्मिक महत्त्व की निशानियों की मौजूदगी स्वीकार की.”
  • चबूतरे के भीतरी हिस्से में “1857 में अवध से जीतकर ब्रिटिश कब्जे में आने के पहले से हिन्दुओं के पूजा के सुबूत उपलब्ध हैं.”
  • मुस्लिम समुदाय “सोलहवीं सदी में निर्माण के बाद से 1857 से पहले तक भीतरी हिस्से पर अपने इकलौते स्वामित्व से जुड़ा कोई सुबूत पेश नहीं कर सका.”

फिर भी ये ऑब्जर्वेशन राम पर हिन्दू समुदाय की सदियों पुरानी आस्था और राम जन्मभूमि में भगवान राम के जन्म से जुड़े विश्वास को देखते हुए अपने आप में कम महत्त्वपूर्ण हैं. अदालत के फैसले के ऑपरेटिव हिस्से पर उनका असर नहीं है. लेकिन दोनों धार्मिक समुदायों के बीच असमानता के देखते हुए, जिसमें विवादास्पद स्थल से राम भक्तों की अटूट श्रद्धा और मस्जिद के प्रति मुस्लिम समुदाय की कमजोर आस्था (मस्जिद टूटने के पहले और बाद में भी) को देखते हुए ये स्पष्ट था कि कोर्ट सुबूतों का उपयोग मजबूत श्रद्धा के पक्ष में विवाद खत्म करने के लिए कर रहा है.

'तथ्यों' पर 'आस्था'? नहीं !

कोर्ट के फैसले की आलोचनाओं में अक्सर जोर दिया गया है कि ये “तथ्यों” पर “आस्था” की जीत है. लेकिन इस दलील में कोई दम नहीं. जैसा मैं पहले बता चुका हूं कि निश्चित रूप से दोनों पक्षों के बीच “आस्था” का फैक्टर काफी मायने रखता था, और कोर्ट ने एक पक्ष की आस्था को खुश करने के लिए दूसरे पक्ष के विरोध में अपना फैसला नहीं सुनाया है, बल्कि उपलब्ध सुबूतों की पड़ताल कर इस फैसले पर पहुंचा है कि सच्चाइयों पर आधारित एक पक्ष की आस्था का पलड़ा दूसरे पक्ष पर भारी है.

हमें आभारी होना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या में मंदिर-मस्जिद के सदियों पुराने विवाद को खत्म कर दिया. कुछ मुस्लिम नेताओं की शुरुआती टिप्पणियों से साफ है कि कोर्ट का फैसला उन्हें रास नहीं आया. फिर भी वो सुप्रीम कोर्ट के फैसले को स्वीकार करेंगे और उसका सम्मान करेंगे, क्योंकि ये हाल-फिलहाल में कई मुस्लिम नेताओं के बयानों के अनुरूप है.

फैसले को नकारने से मुस्लिम समुदाय को कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है. लेकिन फैसले के किसी हिस्से की वैधानिक आलोचना करते हुए फैसले को सम्पूर्ण रूप से स्वीकार करने पर हिन्दू-मुस्लिम समुदाय के बीच की खाई पाटने की प्रक्रिया मजबूत होगी.

AIMIM अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी की राय अलग दिखी (फाइल फोटो: IANS)
ईमानदारी से कहा जाए, तो खुद की आलोचना करने की जरूरत है. मुस्लिम समुदाय के कई नेताओं ने बाबरी एक्शन कमेटी के बैनर तले मंदिर विरोधी मुहिम चलाकर हिन्दू समुदाय से दूरी बना ली थी. इन नेताओं ने अगर 1980 और 1990 के दशकों में सहयोगी रुख दिखाया होता, तो भारत में हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के बीच विश्वास पर आधारित सौहार्द काफी पहले स्थापित हो चुका होता.
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

संघ परिवार को अपनी गलती क्यों स्वीकार करनी चाहिए?

लेकिन क्या समझौते की नाकामी के लिए सिर्फ मुस्लिम नेताओं को ही दोषी ठहराया जाना चाहिए? नहीं. मंदिर बनाने की मांग करने वालों की आक्रामक और अक्सर हिंसक गतिविधियां भी उस हद तक हालात बिगड़ने के लिए जिम्मेदार हैं कि विवाद को सुलझाने के लिए अदालत का सहारा लेना पड़ा.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में बाबरी मस्जिद गिराने पर “कानून का उल्लंघन करने” जैसे कमजोर लहजे का इस्‍तेमाल किया. दरअसल ये गंभीर अपराध था. हिन्दू नेता ये कहकर अपने जुर्म की गंभीरता कम नहीं कर सकते कि अतीत में मुस्लिम शासकों ने भी कई मंदिर गिराकर उनकी जगह मस्जिदों की निर्माण कराया था.

ऐसी धर्मांध गतिविधियां जरूर हुई हैं, जिनसे इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन बीजेपी या RSS नेता बाबरी मस्जिद गिराने जैसे गैर-कानूनी और संविधान-विरोधी कार्य के प्रति अपनी जिम्मेदारी से कैसे भाग सकते हैं?

इससे भी बुरी बात है कि अपने गुनाह के लिए माफी मांगने की बजाय वो मथुरा और काशी में मस्जिद अपने हवाले करने की मांग करते रहे हैं. इस प्रकार अपनी धर्मान्धता की बदौलत वो मुस्लिम समुदाय और उनके नेताओं को अलग-थलग करते गए हैं.

विवाद का राजनीतिकरण

इसके अलावा क्या हिन्दू (या हिन्दुत्व) नेता इस बात से इनकार कर सकते हैं कि उन्होंने अयोध्या मसले को अपने राजनीतिक और चुनावी फायदों के लिए नहीं भुनाया? 2014 के संसदीय चुनावों में भारी बहुमत से जीत हासिल करने के बाद उन्होंने जान-बूझकर अपने समर्थकों को मुस्लिम-विरोधी माहौल बनाने के लिए भड़काया, जिसमें पूरे भारतीय मुस्लिम समाज को देशद्रोही बताया गया. इस घिनौने काम के जरिये क्या उन्होंने भारत की राष्ट्रीय एकता और अखंडता के सामाजिक पहलू को तार-तार नहीं किया?

VHP नेता साध्वी प्राची भी विवादित बयान देती रही हैं(फोटो: फेसबुक/साध्वी प्राची)

लिहाजा, अगर वास्तव में हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द पैदा करना है, तो संघ परिवार के नेताओं को अपनी विचारधारा, राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों में कई बदलाव लाने पड़ेंगे. आत्म-सुधार के इस काम की सबसे बड़ी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर है, क्योंकि उन्होंने देश के सामने “सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास” की शपथ ली है.

आज की तारीख में भारतीय समाज एक चौराहे पर खड़ा है. एक ओर मेल-मिलाप का रास्ता है, जिसमें हिन्दू-मुस्लिम समुदायों के बीच मित्रता और भारत-पाकिस्तान के बीच बेहतर रिश्ते बनाने के मौके हैं, तो दूसरी ओर घरेलू मोर्चे पर और पड़ोसी के साथ घमासान की आशंका है.

पाकिस्तान भी इसी प्रकार की ज्यादा गंभीर परेशानी का सामना कर रहा है. अगर हमें पहले रास्ते पर चलना है, तो गुरु नानक जैसे संतों की बताई राह का अनुसरण करना होगा, मानवता के लिए जिनके उपदेशों में हिन्दू और इस्लाम धर्मों की सर्वश्रेष्ठ रीतियां शामिल हैं.

संक्षेप में कहें, तो ईश्वर और मानवता के एकरूपता की अनिवार्यता के लिए हमें भारत और पाकिस्तान के बीच आपसी समझ, भरोसा, सहयोग और सह-अस्तित्व के कई रास्ते तैयार करने होंगे.

(लेखक भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के करीबी सहयोगी थे. वो Music of the Spinning Wheel: Mahatma Gandhi’s Manifesto for the Internet Age के लेखक हैं. इसके अलावा वो ‘FORUM FOR A NEW SOUTH ASIA – Powered by India-Pakistan-China Cooperation’ के संस्थापक हैं. उन्हें @SudheenKulkarni पर ट्वीट और sudheenkulkarni.gmail.com पर मेल किया जा सकता है. आर्टिकल में लिखे गए विचार उनके निजी विचार हैं और द क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

ये भी पढ़ें- राम जन्मभूमि पर जजमेंट के आखिरी पन्‍नों को लेकर विवाद क्‍यों है?

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 10 Nov 2019,09:33 AM IST

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT