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तमाम कानूनी अड़चनों, सियासी अवरोधों के बावजूद आखिरकार बिहार (Bihar) सरकार ने जाति आधारित गणना रिपोर्ट (Caste Survey Report) जारी कर दी है. बिहार देश का पहला राज्य बन गया है, जिसने जाति आधारित गणना के आंकड़ों को सार्वजनिक किया है. अंग्रेजों के राज में अंतिम बार 1931 में जाति जनगणना रिपोर्ट जारी हुई थी. इसी रिपोर्ट के आधार पर अबतक सरकारें जनकल्याणकारी योजनाएं और नीतियां बनाती रही हैं.
नब्बे के दशक से देश में दो तरह की राजनीतिक और सामाजिक धाराएं बहती रही हैं - एक हिंदुत्व की और दूसरी सामाजिक न्याय की.
मंडल कमीशन लागू होने के बाद सामाजिक न्याय का स्वर मुखरित हुआ, जाति की राजनीति तेज हुई और दलित-पिछड़ी आबादी को शासन-प्रशासन में हिस्सेदारी बढ़ी. लेकिन जाति की सही संख्या पता नहीं होने के कारण आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी से ये वर्ग लंबे समय तक वंचित रहे.
इस रिपोर्ट के सार्वजनिक होने के साथ ही देश की राजनीति ‘धर्म बनाम जाति’ के दो धड़ों में बंट गयी है. अब राजनीतिक दल और आमलोग इस आकलन में जुट गए हैं कि इससे चुनावी फायदा किसे होगा, इंडिया गठबंधन को या फिर एनडीए को.
बिहार में आरक्षण और जाति का सवाल बड़ा ही संवेदनशील मुद्दा रहा है. यह इस बात से समझा जा सकता है कि 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में कैसे आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा किए जाने के एक बयान पर पूरी चुनावी फिजां ही बदल गई थी.
1990 के बाद राज्य में लगातार दलित-पिछड़ों की कही जानेवाली सरकारें ही बनती रही हैं.
बीच-बीच में सत्ता में बीजेपी भी आई, लेकिन जेडीयू से गठबंधन के साथ ही. आज भी अकेले अपने दम पर बीजेपी के सत्ता में आने की उम्मीदें क्षीण दिखती हैं.
कांग्रेस के कमजोर पड़ते ही सवर्ण और वैश्य वोटर बीजेपी के साथ चला गया, जिसे इस पार्टी का कोर वोटर कहा जाता है.
ओबीसी जातियों को भी बीजेपी तोड़ने में सफल रही. उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश सहनी, चिराग पासवान, नित्यानंद राय, रामकृपाल यादव, जीतनराम मांझी जैसे दलित-पिछड़ी जाति के नेताओं को पार्टी से जोड़कर बीजेपी ने कमजोर वर्गों के मतों में सेंधमारी की.
राजनीति के जानकार बताते हैं कि जिस भी सीट पर बीजेपी यादव को उतारती है वहां भी बीजेपी को यादवों का वोट वहीं मिलता है. बानगी के तौर पर औराई विधानसभा से यादव समाज से आनेवाले रामसूरत राय विधायक हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में लगभग 80-90 प्रतिशत यादवों का उन्हें वोट मिला था. आरजेडी का राजनीतिक आधार यादव-मुस्लिम समीकरण रहा है. शुरूआती दौर में ‘पंचफोरना’ कहा जानेवाला वर्ग ‘अत्यंत पिछड़ी जातियां’ और दलित समुदाय मजबूती के साथ लालू प्रसाद के साथ जुड़ा था, लेकिन इनमें से बहुत सारी जातियां खिसक कर बीजेपी के साथ चली गईं.
इसका एक बहुत बड़ा कारण यादव जाति के लोगों का दलित-पिछड़ी जातियों पर बढ़ता जातीय वर्चस्व रहा है. ‘लव-कुश’ यानी कुर्मी-कुशवाहा पर नीतीश कुमार का दावा मजबूत रहा है, लेकिन ये आरजेडी-जेडीयू के ये आधार खिसकते गए और बीजेपी मजबूत होती गई.
अब यह सवाल उठना लाजिमी है कि जाति गणना के आंकड़े आने के बाद क्या राजनीतिक समीकरण बदलेगा? लालूू-नीतीश की सोशल इंजीनियरिंग क्या रूप लेगी? इसे समझने के लिए जाति के नए आंकड़ों पर गौर करना होगा और उसी संदर्भ में आरजेडी-जेडीयू की बदली हुई राजनीतिक इच्छाशक्ति का आकलन करना उचित होगा.
उत्तर बिहार जागरण मोर्चा के अध्यक्ष डाॅ निशींद्र किंजल्क कहते हैं कि इसमें दो राय नहीं है कि नीतीश कुमार का यह ऐतिहासिक कदम था, जिसका आरजेडी-जेडीयू को इसका लाभ मिलेगा. लेकिन कितना मिलेगा, यह कहना अभी जल्दबाजी होगी. यह इस बात पर निर्भर करेगा कि ये दोनों पार्टियां जाति की संख्या के आधार पर पहले अपनी पार्टियों के भीतर क्या हिस्सेदारी देती है.
हालांकि वैशाली जिले के स्थानीय पत्रकार रत्नेश कुमार शर्मा का कहना है कि राजद प्रखंड कमेटियों से लेकर प्रदेश की कमेटियों तक में आरक्षण के हिसाब से पदाधिकारियों को नियुक्त करने का प्रयास पिछले कई दफे से किया है.
जैसे वैशाली जिला के आरजेडी अध्यक्ष वैद्यनाथ चंद्रवंशी अत्यंत पिछड़ी जाति से हैं. इसी तरह जन्दाहा प्रखंड को ही देखें, तो इसके अध्यक्ष राजेश कुमार ठाकुर भी हजाम जाति से हैं. आरजेडी कोटे से आने वाले बढ़ई समाज के मदन शर्मा को बिहार संस्कृत शिक्षा बोर्ड का सदस्य बनाया गया है.
लेकिन जेडीयू में सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व कम दिखता है. डाॅ किंजल्क यहां कहते हैं कि जेडीयू हो या आरजेडी, अबतक प्रदेश अध्यक्ष के पद पर एक-तिहाई आबादी वाली अत्यंत पिछड़ी जातियों से जेडीयू-आरजेडी ने अबतक एक भी प्रदेश अध्यक्ष नहीं बनाए हैं. जेडीयू ने उमेश कुशवाहा को छोड़कर अभी तक सिर्फ सवर्णों वशिष्ट नारायण सिंह, विजय कुमार चौधरी, ललन सिंह को प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठाया है. आरजेडी ने जरूर रमई राम, कमल पासवान, उदय नारायण चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर दलित समाज को पार्टी के भीतर प्रतिनिधित्व दिया था.
बीजेपी की बात करें, तो उसने धर्म की राजनीति के साथ ही भीतर-भीतर जाति की राजनीति करती रही है. वैश्य से डाॅ संजय जायसवाल, यादव से नित्यानंद राय, कुशवाहा समाज से सम्राट चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर बीजेपी ने पिछड़ी जातियों में पैठ बनाई है.
ताजी जाति आधारित गणना के मुताबिक, बिहार में कुल आबादी 13 करोड़ 7 लाख 25 हजार 310 और 215 जातियां हैं, जिसमें सबसे अधिक जनसंख्या यादव जाति की 14.26% है. अन्य जातियों की जनसंख्या दुसाध 5.31%, रविदास 5.25%, कुशवाहा 4.2%, ब्राह्मण 3.65%, राजपूत 3.45%, मुसहर 3.08%, कुर्मी 2.87%, भूमिहार 2.86%, मल्लाह 2.60%, वैश्य 2.31%, धानुक 2.13%, नोनिया 1.91%, चंद्रवंशी 1.64%, नाई 1.59%, बढ़ई 1.45%, कायस्थ 0.60% है.
यदि कैटेगरी के हिसाब से देखें, तो सबसे अधिक अत्यंत पिछड़ी जातियां 36.%, पिछड़ा वर्ग 27%, अनुसूचित जाति 19.6%, अनुसूचित जनजाति 1.6% और अनारक्षित वर्ग 15.5% है.
इन आंकड़ों का यदि विश्लेषण करें, तो सबसे अधिक 36 फीसदी अत्यंत पिछड़ी जातियों की आबादी है, जिनमें लगभग 100 से अधिक जातियां आती हैं. इनमें से बहुत सारी जातियां हैं, जिनका न तो किसी पार्टी के संगठनों में और न विधानसभा या विधान परिषद में प्रतिनिधित्व है.
सबसे पहले तो जाति गणना कराने वाली पार्टियों के सामने ही लोकसभा चुनाव लिटमस टेस्ट की तरह होगा, जिसमें देखना होगा कि क्या ये पार्टियां टिकट बंटवारे के दौरान कोटि और जातियों का कितना ध्यान रखती हैं.
बिहार में 40 लोकसभा सीटें हैं. अत्यंत पिछड़ी जातियां 36 फीसदी है. 40 का 36 फीसदी करीब 14 होता है. तो क्या इंडिया गठबंधन लोकसभा चुनाव में अत्यंत पिछड़ी जातियों को 14 सीटें देंगी?
इसी तरह यादव की 14 फीसदी जनसंख्या है. 40 लोकसभा सीटों पर उसकी दावेदारी सिर्फ 5-6 सीटों की बनती है.
ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत व कायस्थ की कुल आबादी 10.56 फीसदी होती है. 40 लोकसभा सीटों पर सवर्णों की दावेदारी सिर्फ चार सीटों की बनती है, यानी चार सवर्णों को ही लोकसभा का टिकट मिल सकेगा.
इस ऐतिहासिक कदम की तरह ही संगठनात्मक ढांचे और टिकट के बंटवारे में यदि आरजेडी-जेडीयू ने कठोर फैसले नहीं लिए, तो उसे नफे की जगह नुकसान भी उठाना पड़ सकता है.
निसंदेह इस जाति आधारित गणना के आंकड़ों से बीजेपी बैकफुट पर नजर आती है. राजनीतिक रूप से भी उसे नुकसान उठाना पड़ सकता है, बशर्तें कि इंडिया गठबंधन कदम फूंक-फूंक कर चले. आरजेडी-जेडीयू ने यदि सांगठनिक ढांचों के साथ ही टिकट बंटवारे में जनसंख्या के आधार पर टिकट बंटवारे में सफल रही, तो उसे इसका चुनावी लाभ मिल सकता है. लेकिन उसे जाति के दबंग नेताओं के दबाव से और पार्टी के भीतर के कलह से मुक्त होना होगा.
हाल के दिनों में बिहार में भी पार्टी नेताओं की कार्यशैली, नफरत की राजनीति, जनहित के मुद्दों से भटकाव और बढ़ती महंगाई-बेरोजगारी के कारण बीजेपी की मोदी सरकार का ग्राफ गिरा है.
त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण, शिक्षक और पुलिस की बहाली में 35 फीसदी से लेकर 50 फीसदी तक आरक्षण, जीविका समूूह की आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ी महिलाओं को लघुवित्त से जोड़कर रोजगार मुहैया कराना, ये कुछ ऐसे फैसले हैं, जो सीधे तौर पर नीतीश कुमार के वोट बैंक को मजबूत करते हैं.
जबकि बीजेपी के पास कोई ऐसे ठोस मुद्दे नहीं हैं, जो एक बड़ी आबादी की रोजी-रोटी से जुड़ते हों, सिवाय नफरत की राजनीति, हिंदुत्व और राष्टवाद के. आवास और शौचालय योजना की हकीकत, उज्जवला योजना के बेजान पड़े सिलिंडर, किसान सम्मान योजना में गड़बड़ी आदि ऐसे मुद्दे हैं, जो लोगों को मुंह चिढ़ाते हैं. यह जरूर है कि मुफ्त अनाज योजना के लाभ लेने वालों के एक बड़े हिस्से में अब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का क्रेज बचा है. इस रिपोर्ट के बाद लाभ लेने वालों का मिजाज बदलता है कि नहीं, यह देखना अभी बाकी है.
बहरहाल, हिंदुत्व और सामाजिक न्याय की इस लड़ाई के बीच जाति आधारित गणना रिपोर्ट क्या असर दिखाएगी, अभी यह कहना जल्दबाजी होगी. क्योंकि लालू-नीतीश के सामने ये आंकड़े दोधारी तलवार की तरह सामने होंगे और बीजेपी उस तलवार की धार को और तेज करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी.
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