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BJP की मुश्किल- विपक्ष को 'संजीवनी', बिहार के जातीय गणना के आंकड़ों के पीछे की राजनीति

Bihar Caste Census Result: इससे पहले देश में 1931 में जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी हुए थे.

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बिहार की RJD और JDU सरकार ने राज्य में कराए जाति आधारित गणना का आंकड़ा जारी कर दिया है. ये आंकड़े प्रदेश की राजनीति के लिए बेहद अहम हैं. ये पहला मौका है जब किसी सरकार ने बिहार में जातीय आधार पर आंकड़े जारी किए हैं. राजनीतिक पंडितों का मानना है कि बिहार के जातीय आंकड़े सिर्फ प्रदेश की राजनीति को प्रभावित नहीं करेंगे बल्कि आने वाले दिनों में पूरे देश की राजनीति को प्रभावित कर सकते हैं. ऐसे में आइए इन आंकड़ों के जरिए बिहार की राजनीति को समझने की कोशिश करते हैं. लेकिन, उससे पहले आंकड़ों पर नजर डाल लेते हैं.

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बिहार सरकार द्वारा जारी धर्म आधारित आंकड़ों के अनुसार, हिंदू आबादी सबसे ज्यादा (81.99%) है. दूसरे नंबर पर मुस्लिम आबादी (17.70%) है. ईसाई (0.05%), सिख (0.01%), बौद्ध (0.08%), जैन (0.009%), अन्य धर्म (0.12%) और कोई धर्म नहीं मानने वाली की आबादी (0.0016%) है.

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ऐसे ही वर्ग के हिसाब से आंकड़ों की बात करें तो अति पिछड़ा वर्ग की आबादी सबसे ज्यादा (36.01%) है. दूसरे नंबर पर पिछड़ा वर्ग (27.12%), अनुसूचित जाति (19.65%), अनुसूचित जनजाति (1.68%) और सामान्य वर्ग की आबादी 15.52 फीसदी है.

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वहीं, बिहार में अगर जातीय आधार पर आबादी की बात करें तो यादव की आबादी सबसे ज्यादा (14.26%) है. रविदास (5.2%), कोइरी (4.2%), ब्राह्मण (3.65%), राजपूत (3.45%), मुसहर (3.08%), भूमिहार (2.86%), तेली (2.81%), कुर्मी (2.8%), मल्लाह (2.60%), बनिया (2.31%) और कायस्थ की आबादी (0.60%) है.

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क्षेत्रीय पार्टियों को क्या संदेश?

जातीय आंकड़ों ने बिहार की क्षेत्रीय पार्टियों को बहुत कुछ संकेत दे दिया है. ये आंकड़ें नीतीश कुमार को भी बहुत कुछ संकेत दे रहे हैं. नीतीश कुमार कुर्मी जाति से हैं. नए आंकड़ों के मुताबिक, कोइरी-कुर्मी की आबादी प्रदेश में करीब 7 फीसदी है. साल 2020 के विधानसभा चुनाव में JDU को 15.39 फीसदी वोट मिले थे. यानी नीतीश कुमार के साथ और भी जाति और धर्म के लोग हैं, जो नीतीश कुमार के नाम पर वोट देते हैं.

बिहार में सबसे ज्यादा आबादी यादवों की 14.26 फीसदी है. कहा जाता है कि RJD मुख्य रूप से 'MY' यानी यादव और मुस्लिम की राजनीति करती है. इस हिसाब से देखा जाए तो प्रदेश में सबसे ज्यादा वोट बैंक RJD का ही है. अगर यादव और मुस्लिम दोनों को मिला लिया जाए तो RJD के पास करीब 32 फीसदी वोट होते हैं. साल 2020 के विधानसभा चुनाव में RJD को सबसे ज्यादा 23.11 फीसदी वोट हासिल हुए थे. यानी कि उसके समीकरण से करीब 9 फीसदी कम.

अगर हम एक साधारण गणित लगाएं, जैसा कि माना जाता है कि RJD को मुस्लिम-यादव, और JDU को कोइरी-कुर्मी-राजपूत और मुस्लिम वोट देते हैं. इस हिसाब से इनका आंकड़ा 42.14 फीसदी होता है.

वैसे ही मुकेश सहनी मल्लाह जाति से आते हैं, जिसकी आबादी 2.6 फीसदी है. जीतन राम मांझी मुसहर जाति से आते हैं, जिसकी आबादी 3 फीसदी है. दुसाध जाति से आने वाले चिराग पासवान और पशुपति पारस की आबादी 5 फीसदी है.

राजनीतिक पंडितों का मानना है कि RJD-JDU ने जाति आधारित आंकड़े जारी करके बड़ा दांव खेला है. इस दांव से बीजेपी के हिंदू-मुस्लिम की राजनीति को बड़ा झटका लगेगा. इतना ही नहीं इनं आंकड़ो के जरिए RJD-JDU अन्य पिछड़ी जातियों और SC-ST को भी अपने पाले में करने की कोशिश करेंगी और इसमें कोई दो राय नहीं है कि इसका फायदा RJD-JDU को न मिले.

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जातीय आंकड़े और बीजेपी की मुश्किल

दरअसल, बिहार में हमेशा से जाति आधारित राजनीति होती रही है. बिंदेश्वरी मंडल रहे हों या कर्पूरी ठाकुर सभी 'जिसकी संख्या जितनी भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी' की हिमायत करते रहे हैं.

उसके बाद से देश की दूसरी पीढ़ी के नेता लालू, मुलायम, शरद यादव और नीतीश कुमार ने भी इस हिस्सेदारी की बात करते रहे. राजनीतिक जानकारों के अनुसार, लालू जब तक प्रदेश का नेतृत्व करते रहे, तब तक प्रदेश में हिंदू-मुस्लिम राजनीति को प्रश्रय नहीं दिया. बाद में जब नीतीश कुमार ने सत्ता संभाली तो उन्होंने भी इस बात का ख्याल रखा, भले ही वह बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री रहे.

लेकिन अब जातीय गणना के आंकड़े जारी होने के बाद बीजेपी के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी हो सकती है. दरअसल, इन आंकड़ों के बाद क्षेत्रीय दलों को नौकरियों और अन्य क्षेत्रों में आबादी के हिसाब से आरक्षण की मांग का नया मुद्दा मिल गया है. आंकड़े जारी होते ही लालू प्रसाद यादव ने मांग की है कि जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी. अगर विपक्ष ने इस मुद्दे को लोकसभा में प्राथमिकता से उठाया तो मंडल 2.0 बनाम हिंदुत्व की राजनीति शुरू हो सकती है. यही कारण है कि हर बार बीजेपी जातीय गणना पर पीछे हटती दिखी है. यानी यह आंकड़े विपक्ष के लिए एक संजीवनी का काम कर सकते हैं.

अब सवाल उठता है कि क्या बीजेपी का ओबीसी वोटर पर पकड़ एकदम नहीं है जो जातीय आंकड़े जारी होने के बाद उनकी मुश्किल बढ़ सकती है. तो इसका जवाब है कि चुनाव दर चुनाव बीजेपी की लोकप्रियता ओबीसी वोटर के बीच बढ़ी है. उत्तर भारत के कई राज्यों में यादवों को छोड़ अन्य ओबीसी वोटर बीजेपी के साथ जाता दिखा है, लेकिन इनके बीच एक मजबूत पकड़ नहीं बन सकी है. ओबीसी के बीच बीजेपी का समर्थन उतना मजबूत नहीं है, जितना कि उच्च वर्ग और उच्च जातियों के बीच. ऐसे में अगर विपक्ष इसे मुद्दा बनाने में सफल होता है तो साल 2024 के लोकसभा चुनाव की तस्वीर कुछ बदल सकती है.

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बिहार का सर्वे, देश को क्या संदेश?

जानकारों का मानना है कि बिहार के जातीय आंकड़े आने वाले चुनावों में देश को प्रभावित करेंगे.

उधर, आंकड़े जारी होने के बाद तेजस्वी यादव ने कहा कि "हम जातीय सर्वे कराने का प्रस्ताव लेकर पीएम मोदी के पास गए थे, लेकिन उन्होंने इसे नकार दिया तो हम लोगों ने बिहार में कराने का निर्णय लिया."

कांग्रेस नेता राहुल गांधी खुद 'जिसकी जितनी भागीदारी उसकी उतनी हिस्सेदारी' का नारा बुलंद किए हुए हैं. महिला आरक्षण में OBC की हिस्सेदारी नहीं दिए जाने पर राहुल गांधी ने ये ऐलान किया था कि अगर केंद्र में कांग्रेस की सरकार आती है तो वह OBC महिलाओं को आरक्षण देने का काम करेंगे.

सोनिया गांधी ने संसद में खुद OBC महिलाओं को आरक्षण देने की वकालत की थी.

आरक्षण पर सवाल उठाने वाला RSS भी अब आरक्षण पर नरम रुख अपनाए हुए है. पिछले दिनों एक कार्यक्रम के दौरान मोहन भागवत ने एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण जारी रखने का समर्थन किया था. उन्होंने कहा था, "जब तक समाज में भेदभाव है, आरक्षण भी बरकरार रहना चाहिए. संविधान सम्मत जितना आरक्षण है, उसका संघ के लोग समर्थन करते हैं."

ऐसे में ये कहना अनुचित नहीं होगा कि बिहार में JDU-RJD ने जातीय आधारित आंकड़े जारी कर एक बार फिर से देश की राजनीति को हिंदू-मुस्लिम से अलग रूख दे दिया है, जो बीजेपी को एक नई रणनीति बनाने पर मजबूर करेगा.

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