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1990 के दशक में बिहार से बाहर जाना हम बिहारियों की लाचारी भी थी और दुर्भाग्य भी. लाचारी इसीलिए कि पढ़ने के मौके नहीं थे. दुर्भाग्य इसीलिए कि बिहारी होने का टैग बहुत बदनाम हो गया था. उसी समय पढ़ाई के लिए मुझे दिल्ली आना पड़ा, जहां कई अनोखे अनुभवों का सामना करना पड़ा.
डीटीसी के बसों में हर बदमाशी करने वालों के लिए सामूहिक सुर निकलता था, ''अबे बिहारी है क्या...?''
यूनिवर्सिटी में सहपाठियों से रोज का ताना, ''लेकिन तुम बिहारी जैसे नहीं लगते हो.'' किराए पर मकान लेने निकले, तो जवाब आता था, ''बिहारीज आर नॉट अलाउड.''
कुछ अवेयर सहपाठियों के सवाल कुछ इस तरह के होते थे:
सवालों की बौछार. इस एजंपशन के साथ कि तुम लोग किसी इनफीरियर रेस के एलियन हो, जिनका उनके सभ्य समाज में कोई जगह नहीं है. माहौल ऐसा कि लगता था कि राह से थोड़ा सा भटके, तो लिंचिंग हो जाएगी. गाली-गलौज, लप्पड़-थप्पड़ तो आम था.
लेकिन हर बहस में हम बिहारियों के पास कुछ ब्रह्मास्त्र हुआ करते थे, जिसे सुनकर सामने वाले थोड़ा-सा सोचने को मजबूर हो ही जाता था. बड़ी कोफ्त होती थी, तो हमारे मुंह से अनायास ही निकल जाता था कि आप हमें जितनी गाली देना हो दे सकते हैं, लेकिन आपको यह मानना होगा कि देश में लोकतंत्र बचाने में बिहारियों का बड़ा योगदान रहा है. याद कीजिए इमरजेंसी के काले दिन. एक बिहारी जयप्रकाश नारायण ने बिहार की भूमि से ही इमरजेंसी के खिलाफ टोटल रिवॉल्यूशन की शुरुआत की थी. और यह बहुत पुरानी बात नहीं है.
सबसे बड़ी बात- पूरे देश में सांप्रदायिक दंगों का माहौल है, बिहार में इस तरह की घटनाओं के बारे में सुना है क्या? पूरे देश से बलात्कार की घिनौनी खबरें आती हैं. बिहार में कुछ अपवादों को छोड़कर इस तरह की बातें नहीं होती हैं. बिहार में दूसरी बुराइयां हो सकती हैं, लेकिन उसने बलात्कार जैसी घिनौनी टेंडेंसी को कभी भी पनपने नहीं दिया. बिहारी महिला जब भी घर से बाहर निकली, किसी की मजाल नहीं कि छेड़खानी करने की जुर्रत करे.
समय बदला और बिहार में नीतीश कुमार का राज आया. पहली बार बिहार के टर्नअराउंड की खबरें पिंक अखबारों के फ्रंट पेजों पर छपने लगीं. प्रवासी बिहारियों का सम्मेलन होने लगा. राज्य की सड़कों की बात होने लगी. बिगड़े कानून-व्यवस्था को कैसे असरदार तरीके से फिक्स किया जाना चाहिए, इस पर बिहार से सबक लेने की बात होने लगी. और इन्हीं खबरों के बीच ब्रांड बिहार का टैग कब दूसरे ब्रांड्स के बराबर सम्मान पाने लगा, पता ही नहीं चला.
हमें लेक्चर मिलने बंद हो गए. हमारी मॉकिंग खत्म हो गई. और हां, 'मैं बिहारी हूं' कहने से झिझक बिल्कुल खत्म हो गई. बिहारी टैग नॉर्मल हो गया.
उस समय जब कोई उल्टी खबरें आती थीं, तो हमारा रिएक्शन होता था कि बदलाव जादू से तो हो नहीं सकता है, इसमें समय लगता है. हमें बताया जाता था कि रिकॉर्ड तोड़ 13-14 फीसदी सालाना विकास दर के बावजूद बिहार राज्यों की रैंकिंग में अब भी फिसड्डी ही है. निवेश के नाम पर चिल्लर भी नहीं आ रहे हैं. अगर तेजी से विकास हो रहा है, तो राज्य से लोगों का पलायन क्यों नहीं रुक रहा है. तब हमारा जवाब होता था- विकास वर्क इन प्रोग्रेस होता है.
हाल की कुछ बड़ी हेडलाइंस पर गौर कीजिए-
और मुजफ्फरपुर की घटनाओं से साफ होता है कि राज्य का प्रशासन अब भी उतना ही सड़ा हुआ है, जितना तब हुआ करता था, जब उसकी इस बात के लिए खासी बदनामी थी.
मुजफ्फरपुर की घटना बताती है कि बिहार में दबंगों की दबंगई कभी खत्म नहीं हुई. हो सकता है कि कुछ दबंगों को नए दबंगों ने रिप्लेस भर कर लिया है. 'रूल ऑफ लॉ' को ठेंगा दिखाने वाले अपना काम फिर भी चलाते रहे और वो भी सुशासन बाबू नीतीश कुमार के बावजूद. हां, ये बात और है कि भारी प्रचार-प्रसार के बीच घिनौनी वारदातों की खबरें थोड़ी दब-सी गई थीं. लेकिन 'रूल ऑफ लॉ' तो कभी आया नहीं.
मेरे जैसे नीतीश कुमार समर्थक के लिए यह इतना बड़ा झटका है कि मैं बता नहीं सकता. अब कोई मंत्री इस्तीफा दे या फिर बड़ी जांच हो, मेरा भरोसा हिल गया है. बिहार को टर्नअराउंड के सपने को अभी किसी और का इंतजार करना होगा.
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Published: 08 Aug 2018,08:28 PM IST