मुजफ्फरपुर में रहने वाले किसी शख्स को अगर बातों से छेड़ना हो, तो पहले इसका एक आसान तरीका हुआ करता था. आपको बस उससे ये सवाल पूछना होता था कि क्या आप मुजफ्फरपुर में चतुर्भुज स्थान के आस-पास के ही रहने वाले हैं? बहुत मुमकिन है कि ऐसे सवालों से सामने वाला बुरी तरह उखड़ जाए या शर्मसार हो जाए.
दरअसल, उस शहर में भगवान चतुर्भुज (विष्णु ) का एक प्राचीन मंदिर है. उसके आसपास ही रेड लाइट एरिया है. इसकी जानकारी पुलिस-प्रशासन को भी है.
अब मुजफ्फरपुर के बालिका गृह में यौन उत्पीड़न कांड सामने आने के बाद से स्थिति थोड़ी बदल गई है.
पहले बिहार के सीएम ने कहा कि वे शर्मसार हैं. इसके बाद दिल्ली के रामलीला मैदान में बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष ने कहा कि उसका माथा भी शर्म से झुक गया है. इस पूरे घटनाक्रम के चंद घंटों बाद यूपी के देवरिया से भी शर्मसार करने वाली खबर आ गई. केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने आशंका जाहिर की कि पूरे देश में ऐसे और भी मामले हो सकते हैं, जिनकी जांच होनी चाहिए.
अब ये तय करना बेहद मुश्किल है कि यूपी-बिहार के ‘कथित’ शेल्टर होम की खुलती कलई से भला कौन शर्मसार नहीं है.
पब्लिक को शर्मसार करने के पीछे कौन?
सबसे पहले हमें ये देखना होगा कि आम लोगों को शर्मसार करने के पीछे किसका कसूर ज्यादा है? ये ठीक है कि अगर पुलिस-प्रशासन ने अपनी ड्यूटी ठीक से निभाई होती, तो कोई ब्रजेश ठाकुर किसी भी मासूम के आंसुओं की वजह न बन पाता. कोई शेल्टर होम यौन यातना गृह नहीं बन पाता. कोई सफेदपोश भूखी-प्यासी बच्चियों की तरफ अपनी देह की भूख मिटाने के लिए ललचाई नजरों से नहीं देख पाता.
लेकिन कोई क्या करे, जब सीएम खुद मान बैठे हों कि सिस्टम ही फेल है.
अपराधियों को टिकट कौन बांटता है?
दरअसल, जब राजनीतिक दल चुनाव में खुले हाथों से अपराधियों को टिकट बांटने में जुट जाते हैं, तो उसके आगे की स्क्रिप्ट खुद ब खुद पूरी होती चली जाती है. जाहिर है, इन अपराधियों में रेप के गंभीर आरोप वाले या रेप केस वाले नेता भी होते हैं. यूपी-बिहार की स्थिति इससे जुदा नहीं है.
बिहार विधानसभा चुनाव, 2015 में 3479 उम्मीदवारों में से 1043 उम्मीदवार (30 फीसदी) ऐसे थे, जिन पर क्रिमिनल केस चल रहे थे. आपको ये जानकर शायद हैरानी न हो कि विधानसभा में चुनकर आए 243 विधायकों में से 58 फीसदी पर क्रिमिनल केस हैं. 40 फीसदी तो ऐसे हैं, जिन पर गंभीर आपराधिक मामले हैं.
उत्तर प्रदेश की हालत भी कमोबेश ऐसी ही है. यूपी विधानसभा चुनाव, 2017 में कुल 4827 कैंडिडेट में से 18 फीसदी पर क्रिमिनल केस चल रहे थे. विधानसभा पहुंचने वाले 403 विधायकों में से 36 फीसदी पर क्रिमिनल केस हैं. 27 फीसदी ऐसे विधायक हैं, जिन पर गंभीर किस्म के आपराधिक केस दर्ज हैं.
पूरे देश का हाल जानने के लिए अब जरा लोकसभा की ओर देखिए. 2014 में लोकसभा पहुंचने वाले सांसदों में करीब 34 फीसदी ऐसे थे, जिन्होंने हलफनामा देकर खुद ये बताया था कि उन पर क्रिमिनल केस चल रहे हैं.
मतलब, हम जिनसे अपने घर की हिफाजत की उम्मीद लगाए बैठे होते हैं, हम जिनसे क्राइम पर कंट्रोल की उम्मीद लगाए हैं, दरअसल उनमें से करीब एक-तिहाई खुद अपराध में लिप्त होते हैं. ऐसे में शर्मसार होना हमारी नियति बन जाती है.
क्या ऐसे अपराध में समाज का कोई रोल नहीं है?
संगठित तरीके से, बड़े स्केल पर होने वाले यौन उत्पीड़न या किसी अन्य अपराध की सारी जिम्मेदारी सत्ता पक्ष या पुलिस-प्रशासन पर डाल देना गलत होगा. ईवीएम पर अपराधियों के नाम के आगे का बटन दबाने का गुनाह तो पब्लिक करती ही रही है. लोगों के बीच सामाजिक जिम्मेदारी से मुंह चुराने की भावना से भी क्राइम फलता-फूलता है.
इधर कुछ दिनों या कुछ महीनों से जो खबरें सबके सामने आ रही हैं, क्या उस बात की जानकारी शेल्टर होम के पास-पड़ोस के लोगों को न रही होगी? समाज का जो कल्चर है, जो नेचर है, उसके हिसाब से तो हर शख्स को ये पता होता है कि उसके मोहल्ले के इर्द-गिर्द 50 घरों में किसका अफेयर किसके साथ चल रहा है. किसका किससे कब ब्रेकअप हुआ. किसकी बेटी की शादी होना अब बहुत जरूरी हो गया है... या किसके घर में आज मीट पका है.
महानगरों में न सही, पर कम से कम यूपी-बिहार के शहरों में तो ऐसा ही होता है.
अगर पास-पड़ोस के लोगों ने थाने को पूरी जानकारी दी थी, लेकिन पुलिस किसी नौकरशाह या सफेदपोश के रसूख की वजह से केस दर्ज नहीं कर रही थी, तब तो यही मानना ही पड़ेगा सिस्टम फेल है.
अगर सत्ता के शीर्ष पर बैठे चंद लोग, जिनके हाथों में सिस्टम टाइट करने का पूरा 'सिस्टम' है, वही ये रोना लेकर बैठ जाएं कि सिस्टम नाकाम है, तो फिर समझा जा सकता है कि मर्ज किस हद तक लाइलाज हो चला है.
मतलब, वैसे लोगों से हालात में सुधार की उम्मीद कैसे की जाए, जो आज अपना सिर शर्म से झुका बता रहे हैं, लेकिन कल आपके सामने वैसे उम्मीदवार पेश कर देंगे, जो 'छंटे हुए' 30 फीसदी में शामिल होते हैं.
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