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भारत के दो सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यकों, मुसलमानों और ईसाइयों पर हाल के दक्षिणपंथी हमलों के साथ-साथ गृह मंत्रालय के मिशनरीज ऑफ चैरिटी के विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम (FCRA) रजिस्ट्रेशन को रिन्यू न करने से संकेत मिलता है कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और इसका समर्थन करने वाला इको सिस्टम पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के बारे में काफी चिंतित है.
आक्रामक शब्दों और अपनमानजनक कृत्यों पर सरकार और पार्टी के भीतर राजनीतिक नेतृत्व की चुप्पी और निष्क्रियता इस बात की तरफ इशारा करती है कि समाज में विभाजन रणनीतिक रूप से फायदेमंद होगी.
हालांकि आग लगाने वाले बयानों और हिंसक कृत्यों पर ध्यान देना और उनके खिलाफ कार्रवाई शुरू करना संवैधानिक रूप से आवश्यक है, उनकी अनदेखी करना एक राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति करता है. यह पहली बार नहीं है जब यह नेतृत्व अपनी जिम्मेदारियों में विफल रहा है ऐसे में दूसरा रास्ता देखना यानी चुप्पी साध लेना चुनावी रूप से फायदेमंद है.
कट्टर हिंदुत्व समूहों ने मुख्य रूप से 2014 से मुसलमानों को निशाना बनाया है, लेकिन अब ईसाइयों, उनके संगठनों और पूजा स्थलों को भी निशाना बनाया जा रहा है.
यह संघ परिवार के उस अभियान का हिस्सा है, जिसमें धर्मांतरण के माध्यम से हिंदुओं को अल्पसंख्यक बनाने की 'साजिश' का आरोप लगाया जाता है. गुजरात सरकार ने इसी महीने वडोदरा शहर के एक स्कूल में लड़कियों को ईसाई धर्म अपनाने के लिए लालच दिए जाने का आरोप मिशनरीज ऑफ चैरिटी पर लगाया है. ऐसे में गृह मंत्रालय के हालिया फैसले को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए.
धर्म संसदों की हालिया श्रृंखला (ऐसे और आयोजन करने की योजना है) ने मुसलमानों के खिलाफ नरसंहार के आह्वान के लिए एक मंच प्रदान करने का काम करती हैं. चर्चों में तोड़फोड़ करने वाले समूहों के अलावा, संघ परिवार के किसी भी सहयोगी के साथ इनका कोई औपचारिक संबंध नहीं है, लेकिन फिर भी इन घिनौनी हरकतों से भगवा बिरादरी को दूर करने के लिए कोई स्पष्टीकरण जारी नहीं किया गया है.
इसका आधार यह है कि मुसलमानों और ईसाइयों पर हमले से सांप्रदायिक स्तर पर मतदाताओं का ध्रुवीकरण होगा, साथ ही साथ उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और गोवा में बीजेपी सरकारों के खिलाफ सत्ता-विरोधी भावना भी कम होगी.
बीजेपी गोवा में भी ईसाई विरोधी भावनाओं को भड़काकर वहां लाभ उठाना चाहती है.
दूसरी ओर, नफरत की ये रणनीति पार्टी को वापस उन क्षेत्रों और राज्यों में वापस ले जाने की क्षमता रखती है, जहां से उसने अपना अभियान शुरू किया था.
गौरतलब है कि जहां बीजेपी की पकड़ बनी हुई है, वहां पार्टी के मौजूदा बीजेपी-युक्त गढ़ में कांग्रेस-मुक्त भारत की बातें अब उतनी महत्व की नहीं रह गई हैं.
बीजेपी अध्यक्ष के रूप में अपनी पिछली भूमिका में, अमित शाह ने जून 2016 में प्रोजेक्ट कोरोमंडल की शुरुआत की, जिसका लक्ष्य पूर्वी तटीय (कोरोमंडल) राज्यों बंगाल के अलावा केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा और तमिलनाडु में पार्टी का विस्तार करना था. आंध्र प्रदेश को छोड़कर, बीजेपी ने सेकंड पोजिशन पर स्वीकार कर लिया है.
चाहे वह वाराणसी में मोदी का भाषण हो और कच्छ गुरुद्वारे में वीडियो लिंक के माध्यम से उनका संबोधन, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में योगी आदित्यनाथ के भाषण हों, या यहां तक कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के विभिन्न जनसभाओं में बयान, इन सबमें पार्टी का प्राथमिक लक्ष्य लोगों को धार्मिक-सांस्कृतिक 'युद्ध' याद की दिलाना है, जो 2014 से चला आ रहा है.
एक के बाद जो भाषण दिए जा रहे हैं उसके जरिए जो संदेश देने का काम किया जा रहा है वह यह है कि भारत के इतिहास में यह एक civilisational moment’ है जिसमें हिंदुओं की लंबे समय से दबाई गई आकांक्षाओं को महसूस किया जा रहा है और अब उनको 'सही' स्थान दिया जा रहा है. लेकिन इस संदेश में एक छिपा हुआ संदेश यह है कि जब बहुसंख्यक समुदाय अपनी खोई हुई 'महिमा या आभा' को पुनः प्राप्त कर रहा है तो व्यक्तिगत जरूरतों या अवश्यकताओं को पीछे धकेल दिया जा सकता है या उनको रोक दिया जाना चाहिए.
2014 के बाद से, तथाकथित इक्का-दुक्का समूहों को उन टिप्पणियों के लिए दोषी ठहराने की प्रवृत्ति रही है जो हरिद्वार और रायपुर में सुनाई देने वालों लोगों को प्रतिबिंबित करती हैं. जैसा कि दशकों की विफलता से पता चलता है, 'कुछ लोग' और 'मुख्यधारा' के बीच एक रेखा खींचने के प्रयास हमेशा विफल रहे हैं.
वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर गलियारे का उद्घाटन करते हुए, मोदी ने भारत की 'सनातन' संस्कृति और रीति-रिवाजों की महिमा पर प्रकाश डाला. ऐसे में हिंदू पुजारियों द्वारा आयोजित धर्म संसद किस हद तक इसी वैचारिक व्यवस्था से अलग मानी जा सकती हैं?
अगर यह अलग है तो क्यों न इसकी कड़ी निंदा की जाए और कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जाए?
हाल के वर्षों में मोदी और मोहन भागवत से लेकर कॉलोनी स्तर के पार्टी पदाधिकारियों तक, संघ परिवार के नेताओं ने लगातार आलोचकों को राष्ट्र-द्रोही (देशद्रोही) का तमगा दिया है.
यह लाइन या शब्दावली (राष्ट्रद्रोही/देशद्रोही) 1980 के दशक के अंत और 1990 के दशक की शुरुआत में अयोध्या में चल रही अशांति से आया है. उसके बाद उग्रवादी कार्यकर्ताओं का दावा है कि भारत "राम भक्त और राम द्रोही" के बीच विभाजित था, लेकिन आरएसएस और बीजेपी लीडरशिप ने इसे चरम विचार या 'एक्सट्रीम व्यू' कहते हुए नकार दिया था. उन्होंने यह भी कहा था कि इसका समर्थन हम नहीं करते हैं और इस विचार से देश के सामाजिक ताने-बाने को कोई खतरा नहीं था.
दूसरी ओर, ध्रुवीकरण की राजनीति की अपनी सीमाएं हैं. आगामी राज्य चुनावों के दौरान उत्तर प्रदेश या अन्य राज्यों में संभावित लाभ निश्चित रूप से अन्य राज्यों में समर्थन की कीमत पर आएगा.
मदर टेरेसा की संस्था के खिलाफ कार्रवाई से कई राज्यों, खासकर पश्चिम बंगाल में बीजेपी की छवि खराब होगी. इसी तरह इस्लामोफोबिक हेट कैंपेन की भी अपनी सीमाएं हैं.
हमें यह याद रखना होगा कि गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने अपना व्यक्तित्व 2007 और 2012 के बीच 'हिंदू हृदय सम्राट' से 'विकास पुरुष' में बदल दिया. 2014 के अभियान के दौरान, उनके 2002 के अतीत को जानबूझकर कम करके आंका गया था. बल्कि, उन्हें काल्पनिक 'गुजरात मॉडल' के निर्माता के तौर पर प्रस्तुत किया गया था.
पिछले सात वर्षों में जब भी बीजेपी डगमगा जाती है या संघर्ष की स्थिति में आयी है तब उसने धार्मिक ध्रुवीकरण और अति-राष्ट्रवाद की अंधी धुन का सहारा लिया है. दूसरी ओर, चीन पाकिस्तान नहीं है. नतीजतन, भारत रक्षात्मक स्थिति में है और मतदाताओं को लुभाने के लिए बीजेपी चूंकि राष्ट्रवाद का इस्तेमाल नहीं कर सकती, ऐसे में पार्टी (बीजेपी) के पास वोटर्स को खींचने के लिए धार्मिक ध्रुवीकरण एकमात्र शक्तिशाली हथियार बचता है.
रणनीति की इन खामियों व सीमाओं से अवगत होने के बावजूद, मोदी इसके प्रति बहुत अधिक समर्पित हैं. फिर चाहे भले ही वे विकास के भ्रम प्रदान करने वाली विशाल योजनाओं के साथ मिश्रित ही क्यों न हों.
बीजेपी केवल यह उम्मीद कर सकती है कि अधिक से अधिक भारतीयों ने हिंदुत्व के विचार को स्वीकार कर लिया होगा और वे विकास के वादों को पूरा करने में चूक या देरी को नजरअंदाज करने के लिए तैयार होंगे. इसके साथ ही ऐसे बहुसंख्यक, जो समाज के हाशिए पर रहना जारी रखते हैं, वे अपने चुनावी फैसले को आजीविका संबंधी चिंताओं को दूर करने के लिए खराब ट्रैक रिकॉर्ड के बजाय अल्पसंख्यकों को 'छंटने' के आधार पर तय करेंगे.
यदि बीजेपी इस उद्देश्य या मिशन में विफल हो जाती है और लोग अपनी हालिया यादों और महामारी के दौरान उन्होंने जिन कठिनाइयों (जो कि सरकार की अक्षमता से बढ़ जाती है) का सामना किया उसके आधार पर मतदान करते हैं, तो ऐसे में बीजेपी की पकड़ केवल वहीं तक सिमट जाएगी जहां के निवार्चन क्षेत्र उसके मूल गढ़ हैं.
यह सरकार (बीजेपी सरकार) अपने प्रमुख हिंदुत्व एजेंडे को बढ़ावा देने के लिए अंतर्राष्ट्रीय निंदा का जोखिम उठाने को भी तैयार है, जैसा कि 2015 से स्पष्ट है जब पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने मोदी को धार्मिक स्वतंत्रता और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के महत्व की याद दिलाई थी.
जैसा कि हाल ही में हाल के दिनों में हुए अल्पसंख्यक विरोधी हमलों और पार्टी के चुनावी अभियान में उनकी सूक्ष्म अभिव्यक्ति से स्पष्ट है कि संघ परिवार का एक ही मुद्दा है.हालांकि, अन्य ढोंगों को छोड़ देने से मोदी और पार्टी के चुनावी जोखिम बढ़ गए हैं.
(लेखक, NCR में रहने वाले ऑथर और पत्रकार हैं. उनकी हालिया पुस्तक द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रिकॉन्फिगर इंडिया है. उनकी अन्य पुस्तकों में द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ द इंडियन राइट और नरेंद्र मोदी : द मैन, द टाइम्स शामिल हैं. वे @NilanjanUdwin पर ट्वीट करते हैं.)
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