मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019अयोध्या के बाद मथुरा, वाराणसी: बीजेपी के 'रामराज्य का काफिला' कहां रुकेगा?

अयोध्या के बाद मथुरा, वाराणसी: बीजेपी के 'रामराज्य का काफिला' कहां रुकेगा?

कुतुब मीनार और लखनऊ के तिले वाली मस्जिद के मामले अभी अदालतों में चल रहे हैं.

नीलांजन मुखोपाध्याय
नजरिया
Updated:
<div class="paragraphs"><p>अयोध्या के बाद मथुरा, वाराणसी: बीजेपी के 'रामराज्य का काफिला' कहां रुकेगा?</p></div>
i

अयोध्या के बाद मथुरा, वाराणसी: बीजेपी के 'रामराज्य का काफिला' कहां रुकेगा?

(फोटो: द क्विंट)

advertisement

पिछले 30 सालों से एक परंपरा चली आ रही है. आधी रात होते ही बची खुची ऊर्जा के साथ, और अगले दिन के कामकाज के हिसाब से, मैं हर साल 6 दिसंबर को अकेला बैठकर सोचता-विचारता हूं. इस साल मेरे हाथ में एक कीबोर्ड भी था.

इस साल मैंने अपने अतीत के पन्ने पलटने शुरू किए. जब मैं बीसेक साल का था, तो पहली बार अयोध्या गया था. यह वह साल था जब यह धार्मिक शहर राष्ट्रीय खबरों में छाया हुआ था.

चूंकि बाबरी मसजिद का ताला खोला गया था और रामलला की मूर्ति के दर्शन के लिए हिंदू भक्तों को उसमें जाने की इजाजत मिली थी. इस फैसले से कुछ कस्बों और शहरों में सांप्रदायिक दंगों को हवा मिली थी. ऐसा ही एक दंगा मेरठ में भी हुआ था, जिसकी रिपोर्टिंग मैंने की थी. यह 1987 का साल था.

कैसे भारतीयों ने एक अलग ही राष्ट्र में आंखें खोली थीं

6 दिसंबर, 1992 किसी शांत रविवार जैसा नहीं था- यह एक अपशगुनी दिन था. जिस अखबार में मैं उस वक्त काम करता था, वह देश का प्रमुख बिजनेस पेपर था.

लेकिन उसका पॉलिटिकल सेक्शन भी काफी मजबूत था और मैं उसका हिस्सा था. उसी ग्रुप के जनरल न्यूजपेपर की तुलना में हमारा एडिशन जल्दी छूट जाता था.

लेकिन वह दिन बाकी दिनों जैसा नहीं था. अखबार के संपादक और मैंने तय किया था कि मैं दिल्ली में ही रहूंगा, अयोध्या नहीं जाऊंगा. यह काम दूसरे कलीग्स कर लेंगे. चूंकि बाबरी मसजिद के भविष्य को लेकर अनिश्चितता थी.

इसलिए अयोध्या और उससे संबंधित मामलों की अच्छी समझ वाले किसी व्यक्ति का यहां होना जरूरी था ताकि न्यूज डेस्क के कलीग्स के साथ काम किया जा सके और एक अच्छा एडिशन निकल जाए.

मैं राम जन्मभूमि आंदोलन की शुरुआत के समय से रिपोर्टिंग कर रहा था. कैसे यह मुद्दा 1991 के लोकसभा चुनावों का मुख्य मुद्दा बना था, कैसे इसके चलते उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की सरकार बनी. मैं आखिरी वक्त तक दफ्तर में बना रहा.

जब दिन खत्म करने के बाद हम दफ्तर से बाहर निकले तो हम उस दिन के बड़े बदलावों पर सोच-विचार कर रहे थे जिन्हें हमने अखबार के गुलाबी पन्नों में समेटा था.

छोटा सा संवाद हुआ. हममें से हरेक की अपनी व्यक्तिगत सोच थी, हालांकि हम दिन भर की घटनाओं को अब भी जज़्ब कर रहे थे.

उस रात जब मैं प्रधानमंत्री निवास के सामने से अपने दोपहिया पर सवार होकर निकला, तो राजधानी कुछ घबराई हुई सी महसूस हो रही थी. प्रधानमंत्री निवास तब आज की तरह किलेनुमा नहीं था. उस रात नींद भी आसान नहीं थी और अगली सुबह, जब मैं ऑफिस जाने के लिए निकला तो बेशक, देश ने एक नए राष्ट्र में अपनी आंखें खोली थीं.

व्यक्तिगत मोर्चे पर फैसला लिया जा चुका था. जब तीसरे गुंबद के ढहने की खबरें आई तो मैं अपने पेपर के आर्ट डायरेक्टर के क्यूबिकल में गया और उनसे बोला,

“अपने दोस्त से मेरी बात कराइए जोकि हार्परकोलिन्स में संपादक हैं. मैं अयोध्या पर एक किताब लिखना चाहता हूं.”

एक पीढ़ी जो नफरत और पूर्वाग्रहों के साथ बड़ी हुई

14 महीने बाद, जनवरी 1994 में किताब के विमोचन पर बीजेपी के उस समय के महासचिव एनके गोविंदाचार्य ने बास्तील के पतन से बाबरी के ध्वंस की तुलना की. पैनल में कई लोगों ने उनकी बात पर ऐतराज जताया. उन लोगों में पीवी नरसिंह राव की सरकार में दिसंबर 1993 तक मंत्री रहे पीआर कुमारमंगलम भी शामिल थे जिन्होंने इसलिए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था क्योंकि प्रधानमंत्री सेक्युलर मूल्यों की हिफाजत करने में नाकामयाब रहे थे.

1998 में जब ‘रंगा’ (उन्हें यही बुलाया जाता था) अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री बने थे, तो यह इस बात की तरफ इशारा ही था कि भारत बेशक, बहुत बदल चुका है.

2021 में बाबरी मस्जिद को हिंदुओं के लिए खोलने के 35 साल पूरे हुए हैं. अगले साल उसके तोड़ने को 30 साल पूरे होंगे. आज के करीब 65 प्रतिशत लोग तब पैदा ही नहीं हुए होंगे जब फरवरी में फैजाबाद की स्थानीय अदालत ने ताला खोलने का एकाएक आदेश दिया था.

जिस भारत की कल्पना आजादी के वक्त की गई थी, इतने सालों में वह बहुत कठोरता से बदल गया है. बहुत से लोगों ने यह पूछना शुरू कर दिया है कि भारत ‘हिंदू पाकिस्तान’ क्यों नहीं बना- एक और ऐसा देश जो धर्म के आधार पर बनाया जाता. या मुसलमान बराबरी का हक क्यों मांग रहे हैं, जब हिंदुओं को सीमा पार ऐसी गारंटी नहीं दी जाती.

आज के 65 प्रतिशत भारतीय 1992 के उस दिन की स्मृतियों के साथ बड़े नहीं हुए. उनके पास वे यादें हैं ही नहीं. वे तो नफरत, गुस्से, पूर्वाग्रह और आधे अधूरे सच के साथ बड़े हुए हैं.

6 दिसंबर को एक सोशल मीडिया इंट्रैक्शन में एक नौजवान मुस्लिम महिला ने बताया कि उस समय वह एक नन्ही बच्ची थी और उस दिन टेलीविजन पर उसने कुछ तस्वीरें देखी थीं. उसके माता-पिता दहशत से भरे टेलीविजन देख रहे थे.

“मुझे लग रहा था कि वे कोई फिल्म देख रहे हैं, जैसे हम वीसीआर पर अक्सर देखा करते थे. उनमें बुरे लोग हमेशा हार जाते थे. जब मैं बड़ी हुई तो मुझे एहसास हुआ कि उन दिनों मैंने कोई फिल्में नहीं देखी थीं.”

रामराज्य का कभी न खत्म होने वाला प्रोजेक्ट

रामजन्मभूमि मामले को राजनीति की मुख्यधारा में जरूर खड़ा कर दिया गया है लेकिन असल में अयोध्या पर शायद ही कोई ‘निष्पक्ष’ सच्चाई मौजूद है. उसके सिर्फ ‘वर्जन्स’ मिलते हैं- ‘जीत’ या ‘हार’ के. वह महिला इस वेबसाइट जैसे प्लेटफॉर्म्स और उन प्लेटफॉर्म्स को खंगालती रहती है जिस पर मैं इंटरैक्ट कर रहा था- उसे उम्मीद है कि वह सच्चाई तक पहुंच पाएगी. उसे सिर्फ धार्मिक पहचान के आधार पर किसी एक सोच के साथ बंधना नहीं पड़ेगा. वह कहती है, “मैं इस बात पर खुश होती हूं कि संवैधानिक मूल्यों और एक समान चिंताएं हम सबको एक साथ जोड़ती हैं.”

इस साल भी 6 दिसंबर को ट्विटर की ट्रेंडिंग लिस्ट की टॉप पर ‘शौर्य दिवस’ रहा. एक ट्वीट में किसी ने लिखा,

“आज मैं शौर्य दिवस मना रहा हूं- यह हिंदू सभ्यता के जागरण का दिन है.” दूसरे ने लिखा, “इस्लामी आतंकवादियों के शासन में की गई गलतियों को सुधारो और हमारे मंदिर हमें वापस दे दो.” ये लिखने वाला खुद को ‘प्राउड हिंदू’ लिखता है और कहता है कि वह “भारतीय राजनीति और बीजेपी के युवा मोर्चा में काम करता है.”
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

इसके अलावा कई समर्थकों का कहना है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के दिन सदियों से पीड़ित हिंदुओं की आत्माओं को मुक्ति मिली. जैसा कि ट्विटर का यह लड़ाका कहता है, उसके कई हिमायतियों का मानना है कि “राम मंदिर के पूरा होने के बाद भारत रामराज्य की तरफ बढ़ जाएगा.”

कोई उनसे नहीं पूछता कि वे घड़ी की सुइयों को कितना पीछे ले जाना चाहते हैं. क्या 1991 में पूजा स्थल (पीओडब्ल्यू) एक्ट लागू नहीं किया गया जिसमें यह सुनिश्चित किया गया था कि विवादित अयोध्या मंदिर को छोड़कर हर पूजा स्थल उसी स्थिति में रहेगा, जैसा कि 15 अगस्त, 1947 के समय था.

इसमें कोई शक नहीं है कि बीजेपी के बड़े नेताओं से लेकर स्थानीय कार्यकर्ताओं तक जिस काल्पनिक रामराज्य का बखान करते हैं, उसका रास्ता मथुरा और काशी (वाराणसी) से होकर ही निकल सकता है. नवंबर 2019 में जब सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले में अपना फैसला सुनाया था, तब यह बात साफ हो गई थी.

साधुओं की “एपेक्स बॉडी” ऑल इंडिया अखाड़ा परिषद ने अक्टूबर 2019 में ऐलान किया था कि मथुरा और वाराणसी की मस्जिदों को भी ढहाया जाएगा. इस परिषद की राजनीतिक संबद्धता है.

ऐसे बहुत सी संरचनाएं हैं जिन्हें “मुक्त” कराने की मंशा है

योजना 2020 में बना ली गई थी और वाराणसी में एक नई संस्था भी बन गई थी. सुब्रह्मण्यम स्वामी उसके अध्यक्ष हैं. मथुरा के लिए भी ऐसे ही कदम उठाए जाने थे लेकिन कोविड-19 ने इस योजना को आगे बढ़ा दिया.

लेकिन जैसे ही हालात कुछ सामान्य हुए, कैंपेन और अदालती मामले फिर शुरू हो गए. रामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने कदम तेज किए और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद इसके बड़े आयोजन में शिरकत की. यह वह कदम था जिसने राज्य और धर्म की आखिरी रुकावट भी तोड़ दी.

इस साल मुथरा में दक्षिणपंथी हिंदू संगठन ने शाही ईदगाह में मूर्तियां रखने की धमकी दी तो उसे देखकर मुझ जैसों की अयोध्या की यादें ताजा हो गईं. मथुरा के प्रसंग भी वैसे ही थे, जैसे अयोध्या में देखे गए थे. हम सामाजिक सौहाद्र के लिए बस यही उम्मीद कर सकते हैं कि भविष्य में वे घटनाएं फिर से न दोहराई जाएं.

मथुरा में शाही ईदगाह और वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद, ये अकेली दो मस्जिद नहीं जिन्हें संघ परिवार से जुड़े दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों से खतरा है.

राम जन्मभूमि अभियान में, जोकि आजादी के बाद से सबसे असरदार आंदोलन रहा (जिसमें एक समुदाय दूसरे के कंधों पर चढ़कर मुक्त हो रहा था और उसे नीचे धकेल रहा था)- संघ परिवार के नेताओं ने सैकड़ों, यहां तक कि हजारों मंदिरों की फेहरिस्त बनाई थी जिन्हें ‘मुक्त किए जाने’ की जरूरत है.

पहले ही, कुतुब मीनार और लखनऊ की तिले वाली मस्जिद पर अदालती मामले चल रहे हैं. बाबरी मसजिद पर जैसी दलीलें दी गई थीं, इन पर भी ऐसे ही कुतर्क दिए जा रहे हैं. पहले अपनी दलील को ‘साबित’ करना, फिर ऐसा न हो पाने पर, दावा करना कि यह ‘आस्था का सवाल’ है और न्यायिक जांच का विषय नहीं हो सकता.

चुनावों के आस-पास मंदिर वाला अभियान तेज हो जाता है

भारत के पूर्व चीफ जस्टिस एसए बोबड़े ने अपने कार्यकाल के आखिरी में पीओडब्ल्यू एक्ट के खिलाफ याचिका को मंजूर कर दिया था. यह याचिका बीजेपी से जुड़े एक वकील ने फाइल की थी.

जैसा कि मथुरा के हाल के बयानों से पता चलता है, कहने को मकसद नए मंदिरों का निर्माण हो सकता है, लेकिन असल में इरादा मौजूदा मस्जिदों को ध्वस्त करना है. तीन दशकों के बाद भी बाबरी मस्जिद का भूत लोगों के जेहन में मौजूद है. उनके लिए यह ‘जीत’ का सबूत है. राम मंदिर उसी सबूत का मूर्त रूप है.

चुनावों के आस-पास दूसरी मस्जिदों पर कार्रवाई करने की मांग बढ़ जाती है. इन मांगों के पूरे होने, न होने से ही तय होता है कि हिंदुत्व के काफिले किस रफ्तारे से आगे बढ़ेंगे.

राम मंदिर के अभियान ने हिंदुओं की “प्रतिष्ठा को बरकरार” रखा या नहीं, या अतीत में “उनके अपमान का बदला” पूरा हुआ या नहीं, इसका आकलन सब अपनी अपनी तरह से करेंगे.

लेकिन इस आंदोलन ने बीजेपी को देश की एक प्रभुत्वशाली राजनीतिक ताकत बनाया. दूसरी, और इससे भी अधिक दुख की बात यह है कि इसने हमारे अपने लोगों को अलग-थलग कर दिया है.

सबसे अहम यह है कि सिर्फ धार्मिक पहचान के आधार पर लोगों को बदनाम नहीं किया जा रहा या उन्हें निशाना नहीं बनाया जा रहा. जैसे पहले जिस मुस्लिम महिला का जिक्र किया था. सिंहासन पर बिराजमान लोगों का उनसे भी छत्तीस का आंकड़ा है, जो उनकी हां में हां नहीं मिला रहे.

नई पीढ़ी के मुसलमानों से हमें उम्मीद है जिन्हें इस बात का एहसास है कि यह आंदोलन सिर्फ उनके समुदाय को निशाना नहीं बना रहा- हालांकि उन्हें सबसे ज्यादा बदनाम किया जा रहा है- निशाने पर हर वह समुदाय और व्यक्ति है जोकि भारत की बहुलतावादी सोच के खिलाफ हैं और सभी को साथ लेकर चलने के हिमायती हैं.

(लेखक दिल्ली स्थित एक लेखक और पत्रकार हैं. उनकी हाल की किताब है, द डेमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रॉजेक्ट टू रीकंफिगर इंडिया. इसके अलावा उन्होंने ‘द आरएसएस: आइकन्स ऑफ द इंडियन राइट’ और ‘नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स’ जैसी भी किताबें लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @NilanjanUdwin है. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 09 Dec 2021,08:01 AM IST

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT