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रूढ़िवादी दलों (conservative parties) को सभी लोकतंत्रों (democracies) में आर्थिक अभिजात वर्ग और व्यापक जनता की प्रतिस्पर्धी मांगों के बीच संतुलन बनाना एक कठिन कार्य रहा है. राजनीतिक विज्ञानियों द्वारा इसे 'रूढ़िवादी दुविधा' (‘Conservative Dilemma’) बताया गया है. वहीं इतिहास दर्शाता है कि रूढ़िवादी राजनीतिक दल जिस तरह से इस दुविधा का जवाब देते हैं, उससे यह निर्धारित होता है कि किसी देश में लोकतंत्र बना रहता है या नहीं. जिस तरह से भारत में आर्थिक असमानता (Wealth Inequality) बढ़ रही है उसके साथ ही भारतीय जनता पार्टी (BJP) एक समान मुद्दे का सामना कर रही है. बीजेपी किस तरह से इस मुद्दे का सामना करेगी उसका भारतीय लोकतंत्र पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा.
हाल ही में जारी हुई 'आर्थिक असमानता रिपोर्ट, 2022' (‘Wealth Inequality Report, 2022’) के अनुसार, भारत दुनिया के सबसे असमान देशों में से एक है. रिपोर्ट के मुताबिक, जहां राष्ट्रीय आय में सबसे अमीर 1% भारतीयों की हिस्सेदारी बढ़कर 22 प्रतिशत हो गई है, वहीं सबसे गरीब 50% का हिस्सा घटकर मात्र 13 प्रतिशत रह गया है. इसमें यह भी उल्लेख किया गया है कि कैसे COVID-19 महामारी ने विसंगति को और भी अधिक बढ़ा दिया है. आर्थिक असमानता के इस स्तर के दूरगामी आर्थिक और सामाजिक प्रभाव होंगे. वहीं इसके राजनीतिक हित भी हो सकते हैं, क्योंकि यह हमारी चुनावी प्रणाली, राजनीतिक पार्टी और लोकतंत्र की दिशा को मौलिक तौर पर फिर से निर्धारित करेगा.
ऐतिहासिक रूप से देखे तो किसी भी लोकतंत्र में आर्थिक असमानता के खिलाफ संघर्ष में वामपंथी दल और सिविल सोसायटी हमेशा से ही सबसे आगे रहे हैं. लेकिन इतिहास हमें यह भी दिखाता है कि किसी भी लोकतंत्र को आर्थिक असमानता से निपटने के लिए सबसे महत्वपूर्ण सहयोगियों में से अगर कोई एक रहा है तो वह उस देश का रूढ़िवादी राजनीतिक दल रहा है. ऐसे में स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि आर्थिक असमानता के खिलाफ किसी भी समाज की लड़ाई में रूढ़िवादी दलों की अहम जिम्मेदारी क्यों है?
'दक्षिणपंथी' और 'वामपंथी' राजनीतिक दर्शन की उत्पत्ति फ्रांसीसी क्रांति के दौरान राजनीतिक शब्दकोष में प्रवेश कर गई, यह इतिहास के जानकारों के बीच एक सर्वमान्य तथ्य है. जब फ्रांस में नेशनल असेंबली के सदस्यों से राजशाही और पुरानी शासन व्यवस्था के बारे उनके विचारों के बारे में पूछा गया तब जो लोग राजा के बाईं ओर बैठे थे, वे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने राजशाही शासन को समाप्त करने का समर्थन किया था. वहीं पर जो लोग दाईं ओर बैठे थे वे यथास्थिति के समर्थक थे. उसी समय से 'दक्षिणपंथी' और 'रूढ़िवाद' के लेबल या ठप्पे को आम तौर पर उन राजनीतिक दलों और समूहों के साथ जोड़ा गया है, जो उस समय के पारंपरिक राजनीतिक और आर्थिक अभिजात वर्ग के साथ गठबंधन करने वाली विचारधाराओं को स्वीकार करते थे.
राजनीतिक वैज्ञानिक डेनियल जिब्लैट ने अपनी पुस्तक कंजर्वेटिव पार्टीज एंड द बर्थ ऑफ डेमोक्रेसी में इस सवाल के जवाब को अच्छी तरह से बताया कि यूरोप भर में विभिन्न रूढ़िवादी दलों ने इस दुविधा का जवाब कैसे दिया? उन्होंने ब्रिटेन और जर्मनी में रूढ़िवादी दलों की अलग-अलग प्रतिक्रियाओं का विश्लेषण किया, जिसके परिणामस्वरूप यूनाइटेड किंगडम में एक स्थिर केंद्र-दक्षिण गठबंधन और जर्मनी ने नाजी सरकार का गठन किया था.
जिब्लैट के मुताबिक, जब रूढ़िवादी राजनीतिक दलों को इस दुविधा का सामना करना पड़ता है तब उनके पास दो विकल्प होते हैं. पहला और ज्यादा वांछनीय दृष्टिकोण यह होगा कि आर्थिक अभिजात्य वर्ग को कुछ रियायतें देने के लिए कहा जाए. साथ ही साथ उन्हें आश्वस्त किया जाए कि उनके मौलिक हितों की रक्षा की जाएगी.
यूरोप के राजनीतिक इतिहास से पता चलता है कि जहां एक ओर ब्रिटेन द्वारा पहला कदम उठाया गया था वहीं जर्मनी की रूढ़िवादी पार्टियां दूसरा कदम उठाने में व्यस्त थीं.
रूढ़िवादी दलों को पहला वाला कदम उठाना खतरनाक या जोखिम भरा लग सकता है, क्योंकि आर्थिक मामलों में वामपंथी दलों द्वारा उन्हें पछाड़ा जा सकता है. नतीजतन, इस आर्थिक विचारधारा को राष्ट्रवाद, परंपरा और संस्कृति को आकर्षित करने वाली पारंपरिक रूढ़िवादी मान्यताओं के साथ मिलाकर संतुलित करने की आवश्यकता है. संतुलन बनाने वाला का यह एक मुश्किल कार्य है, यही वजह है कि अधिकांश रूढ़िवादी दल इसका विरोध करते हैं.
पहले कदम के उलट दूसरा कदम या विकल्प एक आसान रास्ता प्रतीत होता है. लेकिन ऐसा करने से देश की राजनीतिक व्यवस्था के लिए विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं, क्योंकि आबादी की आर्थिक शिकायतों से ध्यान हटाने के लिए रूढ़िवादी दलों को सरोगेट समूहों पर भरोसा करने की आवश्यकता होगी, जो देश में मौजूद सामाजिक विभाजन को भड़काने, शोषण करने और गहरा करने में माहिर हैं.
अगर वे मतदाता लामबंदी के लिए उन (आक्रोश पैदा करने वाले संगठन) पर भरोसा करते हैं तो इन आक्रोश पैदा करने वाले संगठनों द्वारा रूढ़िवादी दलों पर हावी होने का जोखिम रहेगा. जर्मनी में वीमर युग के दौरान ठीक यही हुआ था, जब चरम सीमांत समूहों ने आगे निकल कर अंततः ट्रेडिशनल रूढ़िवादी पार्टी की स्थापना पर हावी हो गए थे.
राजनीतिक वैज्ञानिक पॉल पियर्सन और जैकब हैकर अपनी पुस्तक 'लेट देम ईट ट्वीट्स' में यह बताया है कि इस दुविधा का सामना अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी भी कर रही है और उन्हें इसकी भी चिंता है कि रिपब्लिकन ने जर्मन रास्ता चुना होगा.
आम जनता के बीच दो बेहद अलोकप्रिय नीतियां होने के बावजूद आर्थिक अभिजात वर्ग को खुश करने के लिए, कॉर्पोरेट टैक्स में कटौती और सरकार के कल्याणकारी प्रावधानों को वापस लेना रिपब्लिकन पार्टी के मुख्य एजेंडा है.
इन अलोकप्रिय नीतियों से ध्यान हटाने के लिए, रिपब्लिकन पार्टी तेजी से सरोगेट समूहों जैसे नेशनल राइफल एसोसिएशन (एनआरए), रूढ़िवादी रेडियो होस्ट और फॉक्स न्यूज जैसे समाचार मीडिया आउटलेट की मदद ले रही है और लगातार इसमें शामिल होने का प्रयास कर रही है. इसे तथाकथित तौर पर कल्चर वार या संस्कृतिक युद्ध कहा जाता है. जैसे-जैसे राजनीतिक व्यवस्था में आर्थिक अभिजात वर्ग का प्रभाव बढ़ता है, वे देश को इन सांस्कृतिक बहसों में तेजी से उलझाने के लिए ऐसे संगठनों को सक्रिय रूप से समर्थन देंगे.
पत्रकार जेन मेयर ने अपनी पुस्तक डार्क मनी में इस बात की पड़ताल की है कि कैसे संयुक्त राज्य में रूढ़िवादी अरबपतियों का एक समूह इस तरह के संगठनों को इस सटीक उद्देश्य के लिए धन देता है. इसके बाद जैसे-जैसे अनुकूल नीतियों के कारण इन शक्तिशाली अरबपतियों का प्रभाव अर्थव्यवस्था में बढ़ता जाएगा, वे सक्रिय रूप से राजनीतिक व्यवस्था पर ज्यादा से ज्यादा अधिकार जमाने की कोशिश करेंगे. निश्चित तौर यह देश के लोकतांत्रिक ढांचे के लिए हानिकारक हो सकता है.
दो मूलभूत कारणों से भारत की स्थिति की तुलना पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों से नहीं की जा सकती है. सबसे पहले हमारी समाजवादी अतीत के कारण, हमेशा हमारे लोकतंत्र में सरकार ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इसलिए राज्य की कल्याणकारी नीतियों को उलटने के लिए रूढ़िवादी पार्टी चुनावों में काफी अलोकप्रिय होगी.
दूसरा, भारत की मुख्य रूढ़िवादी पार्टी बीजेपी के पास स्वदेशी जागरण मंच (एसजेएम), भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) और भारतीय किसान संघ (बीकेएस) जैसे प्रभावशाली आर्थिक लोकलुभावन और कॉर्पोरेट विरोधी विंग हैं. ये संगठन या तो आरएसएस से संबद्ध हैं या जुड़े हुए हैं.
यह अभी भी स्पष्ट नहीं है कि पेंडुलम किस दिशा में जाएगा. लेकिन हालिया 'आर्थिक असमानता रिपोर्ट, 2022' और सामान्य रुझान बताते हैं कि कॉरपोरेट क्षेत्र को आगे चलकर एक बड़ा फायदा हो सकता है.
(जयशंकर थायिल एक स्वतंत्र स्कॉलर हैं. इन्होंने आईआईटी गुवाहाटी से पोस्ट ग्रेजुएशन और TISS मुंबई से ग्रेजुएशन किया है. यह लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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