बहुजन समाज पार्टी (BSP) के सम्मेलन में पहली बार "जय श्री राम" और "जय परशुराम" के नारे सुनाई दिए. अयोध्या में ये नारे बीएसपी के ब्राह्मण सम्मेलन में लगे हैं. दरअसल बीएसपी सुप्रीमो मायावती (Mayawati) आगामी यूपी विधानसभा चुनाव को लेकर ब्राह्मणों का वोट बैंक तलाश रही हैं. लेकिन वहीं दूसरी ओर पार्टी अपनी ही पिछड़ी और दलित जातियों को छोड़ रही है ऐसे में क्या पार्टी दोनों को साध पाएगी?
कांशीराम का बहुजन वाद
कांशीराम ने शुरुआती दौर में बामसेफ नामक फेडरेशन बनायी, जिसकी शुरुआत महाराष्ट्र में हुई थी और उसके बाद यह संगठन उत्तर भारत में पंजाब, हरियाणा और उत्तरप्रदेश में फैल गया. इस संगठन में जितनी दलित जातियां जुड़ी लगभग उतनी ही पिछड़ी भी साथ आईं इसके साथ ही इसको अल्पसंख्यक वर्ग का भी अच्छा ख़ासा साथ मिला था.
पहली लोकसभा की सीट बिजनौर से निकली जहां पर मुसलमानों ने बढ़-चढ़कर के साथ दिया और उसके बाद कुर्मी बाहुल्य क्षेत्र रीवा, मध्यप्रदेश से बुद्धसेन पटेल जीत कर आये.
कांशीराम जब बी पी सिंह के खिलाफ इलाहबाद से चुनाव में उतरे थे तो उनका मुख्य सारथी कुर्मी समाज से ही था. इस तरह से शुरू में जैसा नाम वैसा काम दिखने लगा था.
उन दिनों एक नारा बहुत चर्चित था, पंद्रह प्रतिशत का राज यानी बहुजन पचासी प्रतिशत हैं और उनपर 15 प्रतिशत का राज है. पार्टी का विस्तार यूपी और पंजाब में इसी सोच के साथ हुआ था. इसी के प्रभाव की वजह से 1993 में समाजवादी पार्टी से यूपी में समझौता हो सका था.
1994 में जब मायावती पहली बार मुख्यमंत्री बनीं तो बहुजनवाद में संकीर्णता प्रवेश करने लगी. उस समय लोग राजनीतिक रूप से कम और सामाजिक रूप से ज्यादा जुड़े थे. इसलिए उपेक्षित होते हुए भी वे साथ में लगे रहे. क्योंकि समाज ने यह भी महसूस किया कि अपना मारेगा तो छाँव में मारेगा जो भी हो मरना-जीना यहीं है.
और इस तरह जाति में तब्दील हो गया बहुजनवाद
जैसे-जैसे सत्ता का नशा चढ़ता गया, बहुजनवाद जाति में तब्दील होता चला गया. जाति के आधार पर बड़े-बड़े सम्मेलन होने लगे और जो जातियां सत्ता के लाभ से वंचित थी, वो बहुत तेजी से जुड़ती चली गईं. राजभर, कुशवाहा, मौर्या, कुर्मी, पासी, नोनिया, पाल, कोली सैनी, चौहान आदि इसके प्रमुख उदाहरण हैं.
जैसे-जैसे इन जातियों में जागृति पैदा हुई वैसे-वैसे इनसे नेतृत्व भी उभरा. जिसकी जितनी भारी संख्या होती थी, उसकी उतनी बड़ी भागीदारी की बात होने लगी. ऐसे में सबको मान-सम्मान और साझीदारी का वायदा किया गया.अबतक नेतृत्व मायावती के हाथ में आ गया था और इन्हें इस बात का अहसास हो गया कि लोग जाएंगे कहां? या लोगों को जिस तरह से चाहे उस तरह हांका जा सकता है.
मंच पर मायावती और कांशीराम की कुर्सी लगने लगी. सांसद-विधायक भी जमीन पर बैठाने लगे. लेकिन बहुत दिनों तक लोग भावनाओं के मकड़जाल में नहीं रह सकते. उनमें छटपटाहट का होना लाजिमी था. यह ठीक वैसा ही प्रतीत हो रहा था जैसे दावत का निमंत्रण दे दिया गया हो, लेकिन थाली में कुछ डाला नहीं गया.
इसके बाद दलित-पिछड़ों की जो तमाम उप-जातियां इसमें जुड़ी थीं अब वो इस बात की तलाश में लग गईं कि उनको मान-सम्मान या भागीदारी कहां मिल सकती है. जाहिर है कि सबने अपनी जाति के आधार पर संगठन खड़ा किया और इस तरह से दर्जनों पार्टियां बन गईं और जहां भी सौदेबाजी का मौका मिला वहां तालमेल बैठाना शुरू कर दिया जाता. इस तरह से बहुजन आंदोलन जाति तक सीमित हो गया.
भाजपा का सोचा-समझा वार
2017 में भाजपा ने इस बहुजनवाद के अंतर्विरोध को अच्छे ढंग से समझ लिया. जिसकी वजह से उन्होंने गैर-यादव, गैर–चमार जातियों को टिकट बांटे और उसमें उनको बड़ी कामयाबी भी मिली.
जब जातीय आधार पर सम्मेलन हुए थे तो इस तरह की चेतना का निर्माण होना स्वाभाविक था. चेतना के अनुसार अगर उनको समाहित नहीं किया जाता तो असंतुष्ट होना भी स्वाभाविक था. ऐसे जो उनको संतुष्ट कर सकता था, वे उनसे जुड़ गए.
इसका मतलब यह नहीं कि उनके जाति का कल्याण या उत्थान हुआ बल्कि कुछ व्यक्ति विशेष जो ब्लॉक प्रमुख, विधायक या मंत्री बन पाए उनकी जाति के लोगों को मनोवैज्ञानिक रूप से यह संतोष मिला कि हमारी जाति का व्यक्ति भी संसद-विधानसभा में पहुंच गया.
बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी का जनाधार 2017 के चुनाव में धीरे से खिसक गया. इसी वजह से भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी तो उन जातियों को मंत्री, विधायक या अन्य ऐसा सम्मानित पद मिला जिससे उनकी जातियां खुश हो गईं.
ये जातियां इतनी जागरुक या सक्षम नहीं हैं कि इस बात विश्लेषण कर सके कि उनकी पूरी जाति का भला हो रहा है या दो- चार व्यक्ति का. भारतीय समाज में जाति कि पहचान बहुत ही सतही है उन्हें लगता है कि जो सपा–बसपा नहीं दे सकी उससे ज्यादा भाजपा ने उन्हें दे दिया.
जब जातिगत भावना से चीजें देखी जाने लगती हैं तब शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और भागीदारी जैसे सवाल पीछे छूटते चले जाते हैं.
भाजपा ने इनको खुश भी कर दिया और धीरे से जो भी उपलब्धि या लाभ पहुंच रहा था उसे निजीकरण से समाप्त कर दिया.
बीते चार साल में 40842 डॉक्टर के प्रवेश के मामले में पिछड़ों की सीटों को ख़त्म कर दिया तो क्या इन्हें अहसास भी हुआ?
यूपी में हर अहम पद पर पंद्रह प्रतिशत वालों का कब्जा ज्यादा हुआ है. लेकिन इन पिछड़ों और दलितों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा.
ऐसे में यह कहा जा सकता है कि भाजपा ने कुछ व्यक्ति विशेष को सम्मानित जगह पर बिठा कर के उनके पूरे समाज को ही संतुष्ट कर दिया.
अब बारी आती है ब्राह्मण जोड़ो अभियान की
अयोध्या से बहुजन समाज पार्टी ने ब्राह्मण जोड़ो अभियान शुरू किया है. 2005 में ब्राम्हण सम्मेलन किया था और 2007 में बीएसपी अपने बल पर सरकार को बना पाई. कहा जाने लगा कि ब्राह्मणों के समर्थन से ही बीएसपी सरकार बनना संभव हुआ.
उस समय यह नारा दिया गया कि ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जायेगा. लेकिन सच्चाई यह है कि 2005 के ब्राह्मण सम्मेलन के पीछे और मध्य की जो भीड़ थी वह बहुजन समाज की थी ना कि ब्राह्मण समाज की. बीएसपी अगर विचारधारा के अनुसार चली होती तो आज वोट की तलाश में ब्राह्मण के पास पहुंचने की जरुरत न पड़ती.
बीएसपी ने यदि सभी दलित जातियों को संगठन से लेकर सत्ता में संख्या के अनुरूप भागीदारी दी होती तो आज जो यह ब्राह्मण के पीछे भागकर जनाधार की पूर्ति की कवायद हो रही है ऐसा उसको ना करना पड़ता.
इसी तरह से अन्य सभी जातियों को भी सत्ता या संगठन में भागीदार बनाया गया होता तो वोट की कमी को पूरा करने के लिए ब्राह्मण के पास जाने की जरुरत न भी पड़ती.
तीसरा विकल्प यह भी था कि मुस्लिम समाज को सत्ता एवं संगठन में आबादी के अनुपात में जगह मिलती तो ब्राह्मण वोट लेने के लिए इस तरह से भागना न पड़ता.
अब बहुत देर हो चुकी है. ऐसे में ब्राह्मण के पास जाना मजबूरी बन गई है. चुनाव अभी आने वाले हैं ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि ब्राम्हण मिलता है या नहीं.
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