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क्या भारत सरकार एक बार में और हमेशा के लिए यह तय कर सकती है कि वो इतिहास के साथ क्या करना चाहती है? हालिया सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट ने एक बार फिर से इतिहास, उपनिवेश पर सलेक्टिव नजरिए की बहस शुरू कर दी है. हमने विस्टा प्रोजेक्ट के उद्घाटन पर एक जोरदार महोत्सव देखा. अगले दो साल में निश्चित तौर पर और भी बहुत कुछ होने वाला है. हम सबको अब कुछ-कुछ अंतराल के बाद इस तरह के बड़े भव्य समारोहों की आदत हो चुकी है, और यह हमारी रोजमर्रा की जो तकलीफें हैं, उससे हमारा ध्यान बंटा देती है.
मुझे अतीत के साथ यह सलेक्टिव जुनून थोड़ा परेशान करने वाला लगता है. हालांकि, दशकों के साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष के बाद 1947 में हमें उपनिवेशवाद से छुटकारा मिला. उपनिवेशवाद की ज्यादातर पहचानों को हटा दिया गया था और यह ठीक भी है.
लेकिन, मुझे कहना होगा कि महारानी एलिजाबेथ के निधन के संदर्भ में हमने आधिकारिक तौर पर 11 सितंबर को शोक दिवस के रूप में घोषित कर उपनिवेशवाद की पहचान में बदलाव के अपने जुनून को ही छोड़ दिया. हालांकि, हम यह भी जानते हैं कि रानी औपनिवेशिक अत्याचारों पर माफी की मांगों के प्रति हमेशा उदासीन रहीं. हम कई अफ्रीकी देशों से तकलीफ पहुंचाने वाली आवाजें सुनते हैं. वो औपनिवेशिक काल के दमन की बातों को अभी नजरअंदाज नहीं करना चाहते हैं.
हालांकि, हाल ही में सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट ने हमारे सलेक्टिव नजरिए की बात को फिर से उठा दिया है. राष्ट्रपति भवन से शुरू होने वाली प्रमुख सड़कों में से एक- राजपथ को औपनिवेशिक काल के दौरान किंग्सवे के रूप में जाना जाता था, जबकि क्वींसवे का नाम बदलकर जनपथ कर दिया गया. यहां, 'राज' शब्द का प्रयोग शासन के लिए किया गया था, क्योंकि सड़क राष्ट्रपति भवन से शुरू हुई थी, जो सचिवालय भवन के उत्तर और दक्षिण ब्लॉकों से घिरी हुई थी और वास्तव में ब्रिटिश राज की तरफ इशारा करने के लिए नहीं थी.
आजादी के बाद सड़कों का नाम बदलकर 'राजपथ' और 'जनपथ' करना जैसा कि हमारी पूर्व स्वास्थ्य सचिव सुजाता राव ने अपने ट्वीट के जरिए बताया कि यह राज्य और उन पर शासन करने वाले लोगों के बीच एक सामाजिक अनुबंध है. अब ‘कर्तव्य पथ’ बनाकर पूरी जवाबदेही का बोझ जनता के सिर डाल देते हैं और संस्थागत जवाबदेही रखने वाले अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं. इस तरह का विचार उन लोगों से आ रहे हैं, जो इतिहास से अर्थपूर्ण ढंग से जुड़ने में विश्वास करते हैं, न कि सिर्फ सियासी मकसद के लिए.
उदाहरण के लिए, 2016 में 'गुड़गांव' का नाम बदलकर 'गुरुग्राम' कर दिया गया, लेकिन मिलेनियल सिटी अभी भी विश्व स्तरीय टाउनशिप की बुनियादी आवश्यकताओं से बहुत दूर है. यह नामकरण हमें 'गुरु' को समर्पित शाश्वत गांव में वापस ले जा सकता है, लेकिन यह हमें लगातार बनी रहने वाली विकास के पिछड़ेपन की समस्याओं से छुटकारा नहीं दिलाता है और इन चीजों पर नीति निर्माताओं को तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है.
हमने 15 अगस्त 1947 को एक स्वतंत्र, लोकतांत्रिक और बहुलतावादी भारत की नींव रखी. औपनिवेशिक अतीत के साथ ज्यादातर रिश्ते खत्म कर लिए, लेकिन जिन्होंने दशकों तक आजादी की जंग लड़ी, नए भारत के निर्माण में डटे रहे, वो कभी भी इस तरह जुनूनी होकर अतीत से नफरत नहीं किए.
नेताजी सुभाष चंद्र बोस हम सबके लिए एक नायक रहे हैं. इसलिए उनकी प्रतिमूर्ति वहां लगाए जाने का स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन इस मूर्ति को वहां लगाए जाने से नेताजी को मान्यता मिलने का दावा करना ऐतिहासिक रूप से गलत और बचकानी बातें हैं. वो हमेशा से ही महान राष्ट्रवादी क्रांतिकारी रहे हैं और उनको हमेशा बहुत सम्मान के साथ सभी सियासी लोग देखते रहे हैं.
मेरे लिए, उनका योगदान अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ ‘भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) के बनाए जाने से शुरू नहीं होता है. बल्कि उससे काफी पहले 1920 और 30 के दशक के दौरान उनके क्रांतिकारी कदमों से ही है. वे समाजवादी, बहुलवादी और साम्प्रदायिक विरोधी भारत के दृष्टिकोण के पक्षधर थे, जिसे 1938 में अपने हरिपुरा कांग्रेस अध्यक्षीय भाषण में विस्तार से उन्होंने बताया था.
उन्होंने कहा था, "मैं जानता हूं कि ऐसे दोस्त हैं जो सोचते हैं कि आजादी के बाद, लक्ष्य हासिल होने के बाद कांग्रेस पार्टी को खत्म कर दिया जाना चाहिए, ऐसी धारणा पूरी तरह से गलत है. जो पार्टी भारत के लिए स्वतंत्रता जीतती है, उस पार्टी को बने रहना चाहिए... जो युद्ध के बाद के पुनर्निर्माण के पूरे कार्यक्रम को लागू करे. सत्ता जीतने वाले ही इसे ठीक से संभाल सकते हैं. यदि अन्य लोगों को सत्ता की गद्दी पर बिठाया जाता है, तो उनके पास उस ताकत, आत्मविश्वास और आदर्शवाद की कमी होगी जो क्रांतिकारी पुनर्निर्माण के लिए जरूरी है."
कांग्रेस को खत्म किए जाने को लेकर जो सवाल अक्सर उठते हैं, नेताजी के इस बयान में उन सबको एक जवाब मिल जाता है.
एक और सर्वकालिक पसंदीदा बहस महात्मा के साथ नेताजी के संबंधों के बारे में है. अक्सर उन बातों को हमें उनके रिश्ते में एक काल्पनिक कड़वाहट की याद दिलाने के लिए प्रयोग किया जाता है. वे निश्चित रूप से कई मुद्दों पर एक दूसरे से असहमत होते थे, जैसा कि अक्सर दो विचारवान व्यक्तियों के बीच होना चाहिए, लेकिन एक-दूसरे के प्रति उनमें जरा भी नफरत नहीं था.
यह इस संबोधन से फिर से साफ हो जाता है कि जहां नेताजी ने अपनी बात यह कहते हुए खत्म की थी कि "भारत बहुत उम्मीद करता है और प्रार्थना करता है कि महात्मा गांधी आने वाले कई, कई वर्षों तक हमारे देश में हमारे बीच रहें. भारत उन्हें खोने का जोखिम नहीं उठा सकता और निश्चित रूप से इस समय नहीं. हमें अपने संघर्ष को कटुता और घृणा से मुक्त रखने के लिए उनकी जरूरत है और मानवता को बचाने के लिए उन्हें बचाए रखना चाहिए."
मैं इस संक्षिप्त बात को इस अपील के साथ समाप्त करूंगा कि इतिहास का उपयोग अपना स्कोर तय करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए. हमारा इतिहास इस कदर बारीक और कई स्तरों वाला है कि हम सब शायद इसे समझ भी नहीं सकें. हमें अपने नायकों का सिर्फ सम्मान ही नहीं करना चाहिए, ब्लकि उनके विचारों और दृष्टि से भी जुड़ना चाहिए जो उन्होंने हमारे लिए छोड़े हैं.
(एस इरफान हबीब एक इतिहासकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @irfhabib है. ये एक ओपिनियन पीस है. ये लेखक के खुद के विचार हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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