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कांग्रेस की आंतरिक कलह पर बहस के बीच क्विंट ने दो सीनियर पॉलिटिकल जर्नलिस्ट्स को इस विषय पर लेख लिखने के लिए आमंत्रित किया है. यह आर्टिकल इस सीरिज की दूसरी कड़ी है. सीनियर जर्नलिस्ट आरती जयरथ का पहला आर्टिकल यहां पढ़ा जा सकता है.
कांग्रेस पार्टी ने फिलहाल उस चुनौती को टाल दिया है जो गांधी परिवार के नेतृत्व पर सवाल खड़े कर रही थी. उसने इसे अनुशासन, मर्यादा और नापसंदगी का सवाल बना दिया है. दूसरी तरफ उन लोगों ने भी कांग्रेस वर्किंग कमिटी (सीडब्लूसी) के हमले के आगे घुटने टेक दिए हैं जिन्होंने ‘सामूहिक नेतृत्व’ की मांग वाली चिट्ठी पर दस्तखत किए थे.
हालांकि यह कथित उथल पुथल शांत हो गई है, लेकिन पार्टी इस स्थिति में बिल्कुल नहीं है कि वह इसकी अगुवाई करने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई करे. न ही बदलाव की मांग करने वालों में इतनी ताकत है कि वे पार्टी के दो फाड़ कर सकें, जैसे पहले कई बार हो चुका है. हालांकि राहुल गांधी पहले से ज्यादा मजबूत स्थिति में हैं लेकिन संगठन के तौर पर पार्टी जैसे बेहाल और बेसुध हो गई है.
कांग्रेस के 23 नेताओं की सामूहिक चिट्ठी में तीन महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए गए थे. एक था, फुल टाइम और प्रभावशाली नेतृत्व की कमी, दूसरा, संगठन का कायाकल्प और तीसरा, भारतीय जनता पार्टी के ‘मिस गवर्नेंस’ के प्रति पार्टी का रवैया.
फुल टाइम प्रेजिडेंट को लेकर जो बात कही गई थी वह सोनिया गांधी की तरफ इशारा करती थी. वह खराब सेहत के चलते प्रेज़िडेंट के तौर पर पार्टी को पूरा समय नहीं दे पाईं, खास तौर से जब राहुल गांधी भी पूरी तरह उदासीन बने हुए थे. तो, चिट्ठी में उन दोनों पर सीधा हमला किया गया था. मां सोनिया, जोकि अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं कर पाईं और बेटा राहुल, जिसे 2019 के आम चुनावों में हार के लिए जिम्मेदार ठहराया गया.
चिट्ठी में इस बात का कोई जिक्र नहीं था कि पार्टी भाजपा सरकार को किसी मुद्दे पर नहीं घेर पाई- भले ही वह कोविड-19 की रोकथाम में नाकामी का मुद्दा हो या देश की खराब आर्थिक स्थिति, नौकरियों खत्म होने, बढ़ती गरीबी का. भारत की सुरक्षा और चीन की बढ़त जैसे मसले पर भी पार्टी ने कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं दी. न ही कोई बहस छेड़ी. लोकतांत्रिक तरीके से पार्टी की कायापलट की जानी चाहिए, खासकर राज्यों में इस मसले से भी पूरी तरह पल्ला झाड़ लिया गया.
सीडब्ल्यूसी ने कहा कि पार्टी को जो ‘सामूहिक नेतृत्व’ मंजूर है, वह सोनिया गांधी और राहुल गांधी का संयुक्त नेतृत्व है. सीडब्ल्यूसी के प्रस्ताव से यही बात निकलकर आई.
प्रस्ताव में कहा गया कि भारत पर अचानक संकट मंडरा रहा है और जिन दो लोगों ने ‘सरकार की अपर्याप्त प्रतिक्रियाओं, विभाजनकारी राजनीति और ओछे प्रचार को बेनकाब करने का सबसे अधिक काम किया’, वह सोनिया और राहुल ही थे. एक तरफ सोनिया गांधी की दखल ने ‘सरकार के उच्च पदों पर काबिज लोगों को शर्मिन्दा किया, उन्हें झुंझलाहट से भरा’, दूसरी तरफ राहुल गांधी ने ‘सामने से सरकार के खिलाफ मोर्चा संभाला.’
कांग्रेस के आम कार्यकर्ताओं के बीच सोनिया गांधी कितनी लोकप्रिय हैं, इस एक बात से राहुल गांधी को संभावित आरोपों से बचा लिया गया. नेतृत्व पर बहुवचन में बयान दिया गया- ‘हमारे दो नेता’ और ‘उनका नेतृत्व’. जुलाई 2019 में आम चुनावों में हार के बाद सीडब्ल्यूसी की बैठक में राहुल गांधी ने पार्टी नेतृत्व में बदलाव की पहल की थी. इस बैठक ने स्थिति पहले जैसी कर दी है.
हालांकि उनकी ताजपोशी सिर्फ अगली ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी (एआईसीसी) के अधिवेशन में हो सकती है. लेकिन क्या उनकी मां यानी सोनिया गांधी को उससे पहले पद से इस्तीफा दे देना चाहिए ताकि वे औपचारिक घोषणा से पहले उनकी जगह ले सकें. सीडब्ल्यूसी ने फिलहाल नेतृत्व के संकट को टाल दिया है. हालांकि उसका तरीका काफी बुरा था. क्योंकि इससे यही प्रदर्शित हुआ कि सीडब्ल्यूसी की बैठक का मकसद विरोधियों को ‘धमकाते’ हुए लाइन हाजिर करना और उन्हें किनारे लगाना था.
हालांकि यह भी सच है कि चुनावों में कांग्रेस की डूबती नैय्या को देखते हुए सिर्फ यही विकल्प बचता है कि गांधी परिवार का कोई सदस्य ही उसकी पतवार संभाले लेकिन यह भी गैर जरूरी था कि परिवार के प्रति स्वामिभक्ति को संगठन के प्रति वफादारी का सवाल बना दिया जाए. सही बात तो यह है कि लोकतंत्र को सिद्धांत के तौर पर स्वीकार किया जाना चाहिए.
यह विचित्र बात है कि सीडब्ल्यूसी ने सिर्फ एआईसीसी अधिवेशन की बात की. संगठन के भीतर चुनाव की कोई बातचीत नहीं हुई. एआईसीसी के अधिवेशन में फुल टाइम लीडरशिप के मसले को सुविधाजनक तरीके से नामांकन के जरिए सुलझा लिया जाएगा. अच्छा तो यह होता कि संगठन के भीतर चुनावों की योजना पर बात होती और फिर पूर्ण अधिवेशन होता. जहां नए प्रेजिडेंट, मुमकिन है, राहुल गांधी बागडोर संभालते. पूर्ण अधिवेशन में सीडब्ल्यूसी के पचास प्रतिशत सदस्य चुने जाते और बाकी को प्रेज़िडेंट चुन लेते.
सीडब्ल्यूसी का प्रस्ताव असहमतियों पर पूरी तरह से पाबंदी लगाता है और यह दर्शाता है कि कांग्रेस ने अपने कामकाज का ढर्रा नहीं बदला है. अगर वह सत्ता में रहती तो शायद इस तरीके से काम करने से उसे कोई नुकसान न होता. लेकिन मौजूदा स्थिति में जब सत्ता में कांग्रेस की वापसी दूर की कौड़ी बन गई हो और युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के पास चुनने के लिए दूसरी पार्टियां मौजूद हों, तब इतना केंद्रीयकृत संगठनात्मक कामकाज बेमतलब है. मिसाल के लिए कांग्रेस अब दलित, ओबीसी या आदिवासियों की पहली पसंद नहीं रह गई है.
राजनीतिक निष्ठा एक व्यापक विचार है और उसका ताल्लुक संगठन से होना चाहिए. असहमति जताने वालों को अलग-थलग करना आसान हो सकता है, जिनका विरोध मीडिया के जरिए जाहिर होता हो लेकिन यह समस्या पहले से भी जबरदस्त तरीके से उभर सकती है. चुनाव निकट हों तो सत्तासीन दल कांग्रेस की आंतरिक कलह का फायदा उठा सकता है और उसे संकट में तब्दील कर सकता है. ऐसी समस्याएं न उठे, इसका यही इलाज है कि पार्टी संगठन को लोकतांत्रिक बनाया जाए. क्योंकि यह रोग गंभीर है और इसे जड़ से दूर करने की बजाय फिलहाल सिर्फ इस रोग के लक्षणों को दबाने को कोशिश की जा रही है.
राहुल गांधी का नेतृत्व कांग्रेस को आगे ले जाएगा. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि पार्टी संगठन को लोकतांत्रिक न बनाया जाए और ब्लॉक और जिला स्तर, तथा एआईसीसी में चुनाव न कराए जाएं. चुनाव ही पार्टी को नई जिंदगी देंगे और भविष्य की चुनावी जंग के लिए उसे तैयार करेंगे.
(लेखक दिल्ली स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह एक ओपनियन लेख है. ये लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है)
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