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कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव: गहलोत के बाद खड़गे को जिम्मेदारी के मायने

Congress President Election: उथल-पुथल भरे हाल के कुछ दिनों में कांग्रेस में आतंरिक लोकतंत्र की थोड़ी बहुत झलक भी मिली

चैतन्य नागर
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव: गहलोत के बाद खड़गे को जिम्मेदारी के मायने</p></div>
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कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव: गहलोत के बाद खड़गे को जिम्मेदारी के मायने

(फोटो- altered by quint)   

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कांग्रेस (Congress) हमेशा से ही कई तरह के नेताओं और विचारधारा वाले लोगों की पार्टी रही है. किसी भी सियासी पार्टी के भीतर चलने वाले खेल किसी महल के गोपनीय कमरों में चलने वाले घुमावदार दांव-पेच से कम दिलचस्प नहीं होते.

एनी बेसेंट और महात्मा गांधी के बीच के विरोध, सुभाष चन्द्र बोस और गांधी जी के बीच हुए राजनीतिक मतभेद और पार्टी पर गांधी जी का जबरदस्त नियंत्रण, पार्टी को भंग करने का उनका सुझाव, पिछले कई वर्षों से सोनिया और राहुल गांधी का वर्चस्व, अध्यक्ष पद के लिए चुनाव का टलते जाना और गांधी परिवार के साथ पार्टी के सदस्यों का लगभग रुग्ण लगाव...ये सभी कांग्रेस पार्टी के इतिहास के कुछ बहुत ही दिलचस्प पहलू रहे हैं जिनपर लगातार लिखा जाता रहा है.

बहरहाल, इसी 17 अक्टूबर को करीब 8,000 सदस्य पार्टी के नए मुखिया के लिए वोट डालेंगे. राहुल गांधी पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि उनकी मां सोनिया गांधी अध्यक्ष पद पर नहीं रहेंगीं और बहन प्रियंका गांधी वाड्रा भी चुनाव नहीं लडेंगी.

इस दौरान राहुल गांधी ने देश के दक्षिणी छोर से उत्तर की ओर पदयात्रा शुरू की है. उनकी भारत जोड़ो यात्रा अब तक जिन क्षेत्रों से गुजरी है, वहां लोगों का उनके साथ जुड़ाव भी दिखा है.

कांग्रेस पार्टी के सांगठनिक चुनावों की प्रक्रिया को लेकर लोगों में ललक बढ़ती जा रही है. राहुल गांधी की पदयात्रा भावनात्मक तौर पर विस्फोटक साबित हो रही है. बारिश में भीगते, बच्चों को गले लगाते, योद्धा की तरह आगे बढ़ते उनकी तस्वीरों पर रूमानियत का मुलम्मा लगा कर कांग्रेस पार्टी के भक्त जैसे सत्तारूढ़ दल के भक्तों के साथ एक विचित्र किस्म की प्रतिस्पर्धा में कूद पड़े हैं.

पार्टियों के संगठनात्मक ढांचे

एक बार हम और कुछ पार्टियों के संगठनात्मक ढांचे पर नजर डालें. इन पार्टियों में मुखिया कौन होगा, इसे लेकर एक सुविचारित तंत्र विकसित किया गया है. बीजेपी के सांगठनिक मामले अक्सर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेताओं द्वारा तय किए जाते हैं. ये अक्सर बीजेपी के शीर्ष नेता भी होते हैं.

पहले अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी और अब नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के हाथों में सभी बड़े फैसले होते हैं.

वामपंथी दलों में पार्टी के गिने-चुने बड़े नेता सभी फैसले करते हैं. उनकी एक केंद्रीय समिति होती है. किसी परिवार के इर्द-गिर्द बने दलों में तुरंत ही समझ आ जाता है कि लगाम आखिर किसके हाथों में है. वाई एस आर कांग्रेस ने हाल ही में जगन मोहन रेड्डी को अपना आजीवन अध्यक्ष चुन लिया है. हालांकि, भारतीय चुनाव आयोग ने इसे गैर लोकतांत्रिक बताया है. चुनाव आयोग ने पार्टी से कहा है वह सार्वजानिक तौर पर इस बात का खंडन करे कि जगन मोहन रेड्डी को आजीवन अध्यक्ष चुना गया है, पर इसका कोई असर होगा इसमें संदेह है.

कांग्रेस में आतंरिक लोकतंत्र

उथल-पुथल भरे हाल के कुछ दिनों में कांग्रेस में आतंरिक लोकतंत्र की थोड़ी बहुत झलक भी मिली है. राजस्थान में विधायकों ने ‘आला कमान’ यानी गांधी परिवार की मर्जी के सामने झुकने से ही इनकार कर दिया. आला कमान की ख्वाहिश थी कि सचिन पायलट अशोक गहलोत की जगह पर राजस्थान के मुख्यमंत्री बनें, पर नब्बे से अधिक विधायकों ने गहलोत का ही साथ दिया और पायलट के पास सिर्फ 20 विधायक बचे रह गए.

गहलोत समर्थक विधायकों ने आला कमान का विरोध किया. गहलोत मुख्यमंत्री बने रहे. साथ ही गांधी परिवार का वफादार होने की उनकी छवि भी टूटी.

राजस्थान की घटना एक तरफ यह दिखाती है कि आला कमान के अधिकार की भी अपनी सीमायें हैं, और अजीब बात यह है कि पार्टी के अध्यक्ष के निर्वाचन की प्रक्रिया यह भी दिखाती है कि कांग्रेस के लिए नेहरु गांधी परिवार से चिपके रहने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है. खड़गे के चुनाव में कूदने के साथ ही पार्टी में आतंरिक सुधार की कोशिश के लिए गठित ग्रुप 23 का अंत हो गया.

इस समूह ने कांग्रेस पार्टी में परिवारवाद के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की थी. शशि थरूर ने कुछ लोगों के साथ मिलकर यह बात उठाई थी कि पार्टी में एक फुल टाइम अध्यक्ष होना चाहिए. जब खड़गे भी अध्यक्षीय चुनाव के लिए खड़े हुए तो शशि थरूर के साथी संगी खड़गे के साथ हो लिए.

अब मल्लिकार्जुन खड़गे के सर पर गांधी परिवार का आशीष बरसेगा और यह साफ है कि वही आखिरकार पार्टी प्रमुख बनेंगे, विशेष कर इसलिए क्योंकि वे गांधी परिवार के उतने ही करीबी भक्त हैं जितने कि ए के एंटनी रहे हैं. यह स्पष्ट है कि अपने कैंडिडेट के जरिए राहुल गांधी, सोनिया गांधी के पास ही पार्टी में अंतिम फैसला लेने का अधिकार होगा और निर्वाचित अध्यक्ष को संगठन चलाने की औपचारिक जिम्मेदारी भी सौंप दी जाएगी.     

पार्टी की एक नेता कुमारी शैलजा ने ट्विटर पर यह पोस्ट तक डाल दी थी जिसमें उन्होंने ‘हमारे नेता सोनिया जी और राहुल जी’ को कांग्रेस अध्यक्ष के लिए चुनाव लड़ने के लिए प्रत्याशी चुनने का धन्यवाद दिया. शैलजा का इशारा खड़गे की ओर ही था. बाद में उन्होंने इसे ट्विटर पर से हटा भी लिया.  

किसी बड़े राजनीतिक संगठन में एक अध्यक्ष की भूमिका क्या होती है? जब पार्टी सत्ता में होती है तब पार्टी का नेता राजनीतिक नेतृत्व के प्रति जवाबदेह होता है. ऐसे में पार्टी अध्यक्ष एक मैनेजर या प्रबंधक की हैसियत से काम करता है. पर जब पार्टी सत्ता में नहीं होती, तब राजनीतिक नेतृत्व ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है और ऐसे में अक्सर राजनीतिक नेता ही पार्टी की बागडोर संभालता है.

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यह भी एक बड़ी वजह है कि कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए होने वाले चुनाव काफी दिलचस्प हैं. पार्टी पिछले आठ वर्षों से सत्ता से दूर है और इसकी कोई गारंटी नहीं कि अगले लोकसभा चुनावों में यह वापस सत्ता पा लेगी. ऐसे समय में पार्टी की अध्यक्षता ऐसे किसी को कैसे दी जा सकती है जिसका न ही कोई करिश्माई व्यक्तित्व हो और न ही उसमें शीर्ष नेता बनने की संभावना हो?

क्या कांग्रेस का नया अध्यक्ष सिर्फ एक दिखावटी पद पर बैठेगा और असलियत में राहुल गांधी ही पार्टी के सबसे बड़े नेता बने रहेंगे? राहुल गांधी की पदयात्रा के बाद क्या कोई कांग्रेसी नेता लोकप्रियता के पैमाने पर उनके जरा करीब भी पहुंच पायेगा? खड़गे गांधी परिवार के निर्देशों से तनिक भी हट कर इधर-उधर कुछ कर सकेंगे?

गहलोत ने वफादारी की जगह अपनी महत्वाकांक्षा को चुना और आला-कमान ने अपना रुख स्पष्ट कर दिया. इस बात की पूरी संभावना है कि खड़गे की हार गांधी परिवार की ही जीत होगी. अव्वल तो वह दक्षिण भारत से हैं, जहां कांग्रेस को अभी भी थोड़ा समर्थन मिला हुआ है. अतीत में भी दक्षिण के कांग्रेसी नेताओं ने पार्टी के प्रति वफादारी दिखाई है. दूसरे, वह उम्र में अस्सी के आस पास हैं और इसलिए इसकी आशंका कम ही है कि अपने राजनीतिक करियर के संध्या काल में वह अचानक बगावत का बिगुल बजाने की ठान लेंगे.

नेहरु गांधी परिवार की ताकत की यही विडंबना है. जो वे चाहेंगे बस वही पार्टी कर सकती है. राजस्थान में चीजे उलट पुलट इसलिए हुईं क्योंकि आला कमान के साथ सलाह मशविरा नहीं किया गया था. खड़गे का चयन फिर से यह पुष्ट करता है कि चलेगी उसी की जो परिवार की श्रेष्ठता को मानेगा, उसका सम्मान करेगा. राहुल गांधी ने किसी औपचारिक भूमिका को स्वीकार करने से इनकार किया है.

वह अब कांग्रेस का नैतिक चेहरा भी होंगे. सत्ता से दूर, ‘जोत से जोत जलाते चलो, प्रेम की गंगा बहाते चलो’ का गीत गाने वाले नैतिक/राजनीतिक नेता/फ़कीर की छवि गढ़ते रहेंगे, पर पार्टी के रंगमंच पर चलने-फिरने वाली सभी कठपुतलियों की डोर उनके हाथों में रहेगी. परिवार रहेगा, दिखेगा नहीं. जब वह सूक्ष्म स्तर पर नियंत्रण करेगा, तो वह नियंत्रण अपने स्थूल रूप से ज्यादा ताकतवर होगा. सूक्ष्म की ऊर्जा स्थूल की ऊर्जा से बहुत अधिक प्रबल होती है. इस विरोधाभासी स्थिति की चुनौतियां भी होंगी और एक अदृश्य मुखिया के रूप में राहुल की ताकत की सचाई इन्ही चुनैतियों से निपटते समय सामने आएगी. 

बहुत कुछ निर्भर करेगा 2024 के लोकसभा चुनावों पर गांधी, परिवार को असली झटका तभी लगेगा जब कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाएगी.

राहुल के निजी राजनीतिक भविष्य को भी इससे एक ऐसा जख्म लग सकता है जिससे कांग्रेस पार्टी फिर नहीं उभर पाएगी, क्योंकि अभी तो ऐसा ही प्रतीत हो रहा है कि राहुल गांधी ने अपनी समूची ऊर्जा पार्टी जोड़ने में लगा दी है और बीजेपी के सामने स्वयं को एक अविजेय उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत करने की तैयारी कर ली है.

इसी बीच शशि थरूर की उम्मीदवारी से गांधी परिवार को कोई खतरा नहीं दिखता. उनके खड़े होने से पार्टी को बस यही साबित करने में मदद मिली है कि उसका सांगठनिक ढांचा वास्तव में लोकतान्त्रिक है. जो गांधी परिवार का सदस्य नहीं, वह भी चुनाव लड़ सकता है. तथाकथित विरोधी जी 23 गुट के सभी लोगों का समर्थन खड़गे के साथ हैं, सोनिया राहुल का पूरा साथ है और इस तरह कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए होने वाला चुनाव अब प्रतीकात्मक हो कर रह गया है. परिणाम अभी से ही देखे जा सकते हैं. 

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