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चुनाव आयोग (Election Comission) ने अभी इसी हफ्ते बताया कि पांच राज्यों में चुनावों (Assembly Election) के लिए चल रहे प्रचार अभियान में मुफ्त की चीजें बांटने में सात गुना बढ़ोत्तरी हुई है.
बीते अगस्त महीने में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के चीफ जस्टिस ने कहा था कि मतदाताओं को मुफ्त की चीजों से लुभाने के लिए करदाताओं के पैसे का इस्तेमाल एक “गंभीर आर्थिक मुद्दा” है. इसके समाधान के लिए उन्होंने एक शीर्ष संस्था बनाने का सुझाव दिया जिसमें RBI (भारतीय रिजर्व बैंक), नीति आयोग, वित्त आयोग, चुनाव आयोग और सत्तारूढ़ व विपक्षी, दोनों दल शामिल हों.
ये सभी बातें राजनीतिक दलों और सरकारों को वित्तीय रूप से हासिल न किए जा सकने वाले और गैर-जिम्मेदाराना वादे करने से रोकना मुश्किल बनाती हैं.
मुफ्त की रेवड़ियों (Freebies) पर रोक लगाना मुश्किल है क्योंकि इन्हें परिभाषित करना कठिन है. जो एक आदमी के लिए मुफ्तखोरी है वह दूसरे के लिए कल्याण हो सकता है. सभी राजनीतिक दल और सरकारें दावा करती हैं कि उनका वादा किया गया फायदा गरीबों, वंचितों, महिलाओं और बच्चों वगैरह के लिए जरूरी है.
सच यह है कि उनके कुछ वादे असल में समाज के लिए फायदेमंद हो सकते हैं. पहले से तय मानकों के आधार पर यह मान लेना गलत है कि टैक्सपेयर के पैसे की बर्बादी क्या है. और जो कार्यक्रम आज फायदेमंद लगता है वह कल नुकसानदायक हो सकता है. इसका उलटा भी हो सकता है.
यह समस्या पूरी दुनिया में है. सभी लोकतंत्रों में एक गुट ज्यादा वामपंथी झुकाव वाला है और ज्यादा कल्याणकारी योजना लागू करना चाहता है, जबकि दूसरा रूढ़िवादी है और सरकार की कम भूमिका चाहता है. एक पक्ष ज्यादा सरकारी खर्च चाहता है और दूसरा कम टैक्स को प्राथमिकता देता है. इन लड़ाइयों को मतदाताओं के बीच ले जाया जाता है, और चुनाव जीतने वाले अपनी योजनाओं को आगे बढ़ाते हैं.
उन देशों में जहां हारने वाले पक्ष को नजरअंदाज कर दिया जाता है, कल्याण कार्यक्रम बहुत उदार हो जाते हैं और टैक्स बहुत ज्यादा हो जाते हैं. अच्छे लोकतंत्र— जहां विजेता और हारने वालों को एक साथ मिलकर काम करना चाहिए— राजकोषीय समझदारी के साथ राजनीतिक दरियादिली को बेहतर ढंग से संतुलित करने में सक्षम हैं.
भारत मुफ्त की रेवड़ियों पर रोक लगाने की अपनी कोशिश में नाकाम है क्योंकि बहुमत शासन के संसदीय मॉडल पर आधारित हमारा संविधान अल्पमत वालों को बहुमत वालों के कार्यक्रमों में बदलाव करने या रोकने की जरा भी ताकत नहीं देता है. इसके उलट अमेरिकी राष्ट्रपति प्रणाली में बहुमत और अल्पमत सभी सरकार की तमाम शाखाओं पर अंकुश रखते हैं ताकि बहुमत “मनमानी” न चला सके.
ऐसी “बंटी हुई सरकार” अमेरिकी दलों को खर्च के बारे में अपने झगड़े को इस चरम सीमा तक ले जाने का मौका देती है कि कभी-कभी सरकार का कामकाज ठप हो जाता है.
सबसे मशहूर उदाहरण 1996 का यूएस सरकार का शटडाउन है जब राष्ट्रपति बिल क्लिंटन (डेमोक्रेट) और हाउस स्पीकर न्यूट गिंगरिच (रिपब्लिकन) शिक्षा और जन स्वास्थ्य के लिए खर्च को लेकर भिड़ गए थे.
दोनों पक्षों के बीच समझौता होने के बाद, क्लिंटन ने “जैसा कि हम जानते हैं, कल्याण की समाप्ति” वाला ऐलान किया और देश ने 1920 के दशक के बाद पहली बार लगातार चार वर्षों तक अपने बजट को संतुलित बनाया.
भारत का संविधान बहुमत वाली पार्टी को सरकार चलाने का अधिकार देता है, लेकिन यह राजनीतिक दलों पर किसी भी तरह से अंकुश लगाने में नाकाम है. हमारी पार्टियां देश को अपनी जागीर की तरह चलाती हैं, जहां एक या दो शख्स चुनाव से पहले कोई भी उपहार बांटने का ऐलान कर सकते हैं. अधिकारियों को कोई चुनाव नहीं लड़ना होता हैं, कार्यक्रमों पर कोई जनता से राय नहीं ली जाती है, और खर्च के लिए पैसा कहां से आएगा इस बारे में कोई जानकारी देने की जरूरत नहीं है.
जब हमारे राजनीतिक दल सत्ता में आते हैं तो वे सरकारी खजाने की परवाह किए बिना अपने वादा किए गए कार्यक्रम लागू कर सकती हैं क्योंकि हमारे संविधान में सरकारों पर कोई अंकुश नहीं है.
प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को सभी कार्यकारी और विधायी अधिकार दिए गए हैं, जिससे संसद और राज्य विधानसभाएं सिर्फ रबर स्टैंप बनकर रह जाती हैं. ऋण सीमा पर कोई पाबंदी नहीं है और अलग से बजट अनुमोदन की जरूरत नहीं है. वित्त आयोग केवल सरकारों की वित्तीय स्थिति का मूल्यांकन कर सकता है लेकिन उसके पास अपनी सिफारिशों को लागू कराने का कोई अधिकार नहीं है. यहां तक कि हमारे संविधान के तहत राष्ट्रपति या राज्यपाल को भी अपनी सरकार की मर्जी को पूरा करना होता है.
संविधान की संघ और राज्य की शक्तियों की सूची के अलावा, समवर्ती सूची शिक्षा, चिकित्सा, बिजली, सामाजिक सुरक्षा, रोजगार आदि कल्याणकारी क्षेत्र में दोनों सरकारों को योजनाएं चलाने की पूरी छूट देती है.
अंतिम बात, हमारे संविधान की प्रस्तावना और नीति निदेशक सिद्धांत सरकारों को “कल्याण” की आड़ में हर तरह की योजनाएं शुरू करना सही ठहराते हैं. प्रस्तावना भारत को एक “समाजवादी” देश घोषित करती है, और नीति निदेशक सिद्धांत सरकार से “लोगों का कल्याण; आजीविका के पर्याप्त साधन; शिक्षा” आदि उपलब्ध कराने के लिए कहते हैं.
अगर “हम लोग” (We the People) सचमुच चाहते हैं कि हमारे राजनेता करदाताओं के पैसे का इस्तेमाल राजनीतिक रेवड़ियां बांटने के लिए करना बंद कर दें, तो हमें यह सोचना छोड़ना होगा कि जब तक कि हम अपने संविधान को दुरुस्त नहीं करते, भारत में बुनियादी बदलाव नामुमकिन हैं.
(लेखक दिव्य हिमाचल ग्रुप के संस्थापक और CEO हैं और ‘Why India Needs the Presidential System’ किताब के लेखक हैं. उनका X हैंडल @bhanuDhamija है. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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