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जब COP26 जलवायु सम्मेलन समाप्त होने को है, दुनिया फिर से वैश्विक जलवायु संकट से निपटने में तिब्बत (Tibet) की भूमिका के महत्व के बारे में अनजान है. तमाम हो-हंगामे के बावजूद स्टेकहोल्डर्स इस सामूहिक मिशन में "थर्ड पोल " के तकाजे और महत्व को पहचानने में विफल रहे हैं. ये आर्कटिक और अंटार्कटिका के बाद न केवल "थर्ड पोल " है बल्कि पूरे एशिया का "वाटर टॉवर" भी है.
प्रसिद्ध पर्यावरणविद् माइकल बकले ने अपनी किताब 'मेल्टडाउन इन तिब्बत' में कहा है कि "हमारे पास केवल एक तिब्बत है. इसका कोई बैकअप नहीं है, कोई दूसरा मौका नहीं है. यदि तिब्बती पठार के जल संसाधनों को ब्लॉक या मोड़ दिया जाता है या वो प्रदूषित हो जाता है, तो एशिया तबाही के गर्त में होगा".
अगर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को जलवायु संकट पर वैश्विक कार्रवाई के महत्व की परवाह हैं और वो ये कहते हैं कि "कयामत की घड़ी नजदीक है और हमें अभी कार्य करने की आवश्यकता है", तो उन्हें तिब्बत की भूमिका के बारे में पता क्यों नहीं है? ये आंशिक रूप से चीन के दबाव के कारण है.
तिब्बत पर चीन के कब्जे के कारण वहां के प्राकृतिक संसाधनों का एकाधिकार के अंतर्गत शोषण हुआ है. मेरे विचार से अकेले इस कृत्य का पूरी दुनिया के लिए ऐसा परिणाम है जिसे सुधारा नहीं जा सकता. इस ग्रह के लिए तिब्बत के पर्यावरण की रक्षा करने का समय आ गया है.
तिब्बत की नदियों पर चीनी सरकार के बेतहाशा हमले से नीचे के देशों के लिए एक बड़ा खतरा पैदा हो गया है. जाने-माने भू-रणनीतिकार प्रो. ब्रह्म चेलाने ने तिब्बत के पर्यावरण में गिरावट का प्रभाव पूरी दुनिया पर देखा है. उनके अनुसार,
उदाहरण के लिए भारत की 10 करोड़ से 15 करोड़ की किसान आबादी कृषि पर निर्भर है और पानी उनके लिए कितना जरूरी है, ये बताने की जरूरत नहीं है.
इस अथाह चुनौती को प्रो. चेलाने ने पूरी तरह से पहले से ही भांप लिया था: "चीन के द्वारा बांध बनाने से भारत की तुलना में कोई भी देश अधिक प्रभावित नहीं होगा, क्योंकि आंकड़ों के अनुसार: चीन के कब्जे वाले इलाके से सालाना बहने वाले 718 बिलियन क्यूबिक मीटर सतही जल में से 347 बिलियन क्यूबिक मीटर (कुल का 48.3%) सीधे भारत में आता है. कई प्रमुख भारतीय नदियां तिब्बत से निकलती हैं, जिनमें ब्रह्मपुत्र, कोसी, सतलुज और सिंधु शामिल हैं.”
अगर तिब्बत की नदियों पर चीन के एकाधिकार (मोनोपोली) को नहीं रोका गया तो ये जल्द ही एक बड़ा संकट खड़ा कर सकता है. बावजूद इसके संबंधित राष्ट्रों द्वारा इस बड़ी चुनौती का कभी भी विरोध नहीं किया जाता है.
इससे भी अधिक आश्चर्य की बात ये है कि COP26 में तिब्बत को नजरअंदाज करने पर संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की चुप्पी साबित करती है कि वे चीन के साथ टकराव नहीं चाहते हैं.
आपको याद दिला दें: दलाई लामा ने COP26 से दो दिन पहले एक वीडियो मैसेज जारी कर कहा था कि "कम से कम एशिया में, तिब्बत पानी का अंतिम स्रोत है. पाकिस्तान की सिंधु नदी, भारत की गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी, चीन की येल्लो रिवर, वियतनाम की मेकांग नदी- सभी प्रमुख नदियां तिब्बत से बहती हैं. हमें तिब्बत की पारिस्थितिकी (इकोलॉजी) के संरक्षण पर अधिक ध्यान देना चाहिए. ये न केवल 60-70 लाख तिब्बतियों के हित से जुड़ा है बल्कि पूरे क्षेत्र के लोगों के हित से भी."
जलवायु परिवर्तन के एक प्रमुख हिमायती होने के नाते दलाई लामा ने हमेशा माना है कि जलवायु और पर्यावरण सीमा से परे मुद्दे हैं जो न केवल एक खास देश बल्कि पूरे विश्व से संबंधित हैं.
इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात ये है कि COP26 और तिब्बत से संबंधित मेरे सभी ट्वीट्स को "सेंसिटिव कंटेंट" के रूप में दिखाया गया है. सही बात तो ये है कि वे ट्वीट संवेदनशील थे क्योंकि वे पूरी दुनिया और स्वतंत्रता में विश्वास करने वालों से संबंधित थे. दुर्भाग्य से वो ट्वीट चीन की सरकार के लिए बहुत ज्यादा संवेदनशील हो गए हैं.
इसलिए मुझे अपने ट्वीट्स को सेंसर करने के लिए ट्विटर इंडिया पर बहुत दया आती है. ट्विटर इंडिया को यह भी पता होना चाहिए कि चीन की सरकार उनकी कंपनी को कैसे सेंसर करती है. आसान भाषा में कहें तो चीन में ट्विटर पर प्रतिबंध लगा दिया गया है. लेकिन इसके विपरीत ट्विटर चीनी डिप्लोमैट्स को अपने नैरेटिव को प्रचार करने की अनुमति देता है.
मैं साफ शब्दों में स्पष्ट कर दूं कि जितना अधिक आप तिब्बत की उपेक्षा करेंगे जलवायु संकट के और विकराल होने की संभावना उतनी ही अधिक होगी. इसके अलावा चीन तिब्बत की नदियों को राजनीतिक हथियार में बदल रहा है.
यह पैंतरेबाजी आज भले ही कोई रिजल्ट न दे, लेकिन यह हाइड्रोपावर के शीघ्र होड़ की स्पष्ट तैयारी है. जैसा कि कुछ विद्वानों ने ठीक ही कहा है, “प्रथम विश्व युद्ध भूमि को लेकर लड़ा गया था, द्वितीय विश्व युद्ध तेल को लेकर लड़ा गया था, तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा."
चीन ने पहले ही तिब्बत से निकलने वाली सबसे बड़ी नदियों में से एक - ब्रह्मपुत्र पर बांध बनाना शुरू कर दिया है. यह नदी कई डाउनस्ट्रीम देशों के लिए एक जीवन रेखा रही है. चीन अंतरराष्ट्रीय समुदाय की चिंताओं की तब तक परवाह नहीं करता जब तक वे उसकी महत्वाकांक्षाओं को पूरा नहीं करते. इसलिए, भविष्य में होने वाली भूलों से बचने के लिए चीन के ऐतिहासिक वर्ताव का अध्ययन करना अनिवार्य है.
अगले साल, COP27 मिस्र में आयोजित किया जाएगा. लेकिन इतिहास हमें याद दिलाता है कि यह समिट केवल यह दिखावा करने की प्रथा बन गई है कि दुनिया पर्यावरण की परवाह करती है. क्या COP27 "थर्ड पोल" और "एशिया के वाटर टॉवर" की भूमिका को मान्यता देगा? वैश्विक राजनीति के मौजूदा परिदृश्य को देखते हुए इस सवाल का स्पष्ट उत्तर नहीं हो सकता है.
चलिए हम आगे बढ़तें है संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव बान की मून के COP26 पर कही बातों के साथ: "COP26 से अधिक महत्वपूर्ण कुछ नहीं हो सकता है, क्योंकि वास्तविकता यह है कि हम असफल रहे हैं, हम दुनिया को विफल कर रहे हैं और हम सबसे फ्रंटलाइन पर रहने वाले समुदाय के कमजोर लोगों को विफल कर रहे हैं.”
हमें यह याद रखना चाहिए कि वैश्विक जलवायु संकट के खिलाफ इस लड़ाई में तिब्बत सबसे कमजोर समुदायों में से एक है.
(येशी दवा इंस्टीट्यूट ऑफ लीडरशिप एंड गवर्नेंस, MSU बड़ौदा के पूर्व अकादमिक प्रशासक हैं. वह वर्तमान में तिब्बत पॉलिसी इंस्टिट्यूट में संबद्ध फेलो हैं और तिब्बत टीवी में होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @yd_tweets. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है)
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